नई दिल्ली। ‘‘रस्टी’’और ‘‘अंकल कैन’’ जैसे पात्रों को अपने लेखन के जरिए लोकप्रिय बनाने वाले Ruskin bond के साथ एक बार कुछ ऐसा वाकया पेश आया कि उन्हें भारतीय नहीं बल्कि ‘‘रेड इंडियन’’ मान लिया गया, और वह भी अपने देश में।
घटना करीब तीन साल पुरानी है। रस्किन बांड किसी हवाई अड्डे पर एक होटल में रूकने के लिए गए। उन्होंने ‘चेक इन काउंटर’ पर बैठे अधिकारी को बार बार समझाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें अपनी नागरिकता के बारे में समझा नहीं पाए।
होटल अधिकारी जानना चाहते थे कि वह किस देश से और कैसे आए हैं । रस्किन ने बताया कि वह भारतीय हैं । अधिकारी को इससे संतोष नहीं हुआ। उसने जानना चाहा कि रस्किन किस तरह के भारतीय हैं, क्यों भारतीय हैं और कैसे भारतीय हैं ? हार कर रस्किन ने कहा कि वह ‘रेड इंडियन’ हैं तो इस पर अधिकारी तुरंत उनकी बात से सहमत हो गए और उसने उनको रेड इंडियन मान लिया।
बीती शाम इंडिया हैबिटाट में दर्शक यह वाकया सुनकर लोट पोट हो गए। बीती शाम यहां इंडिया हैबीटेट सेंटर में साहित्य के ‘‘पैंग्विन फीवर’’ कार्यक्रम में बच्चों के लोकप्रिय लेखक रस्किन ने दर्शकों के साथ अपने जीवन के कई अनछुए पहलुओं को साझा किया। पैंग्विन रेंडम हाउस इंडिया ने प्रकाशन क्षेत्र में अपने 30 साल का जश्न मनाने के लिए इस कार्यक्रम का आयोजन किया था।
विदेशी मूल के होने के कारण क्या उन्हें कभी हिंदुस्तान में भेदभाव का सामना करना पड़ा, इस सवाल के जवाब में उन्होंने यह मजाकिया किस्सा सुनाया। उन्होंने बताया, ‘‘एक बार ऐसा हुआ था । मैं इसे भेदभाव नहीं कहूंगा बल्कि ये एक बड़ा मजाकिया वाकया है। तीन साल पहले मैं एक हवाई अड्डे पर होटल में ठहरा हुआ था। होटल में चेक इन करने के दौरान काउंटर पर बैठे अधिकारी ने मुझसे पूछा कि मैं किस देश से हूं और हिंदुस्तान कैसे आया ? वो बार बार पूछता रहा कि किस देश से आया हूं ।’’ ‘‘मैंने मजाक में कहा कि मैं सामान के साथ डिलीवर हो गया हूं । उसको मेरी कोई बात समझ नहीं आई । वह जानना चाहता था कि मैं किस तरह का इंडियन हूं तो मैंने कहा कि मैं रेड इंडियन हूं और उसने मेरी बात का यकीन भी कर लिया।’’ देश में राष्ट्रगान और देशभक्ति की परिभाषा को लेकर पैदा हुए तमाम विवादों की पृष्ठभूमि में पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित और ब्रिटिश मूल के भारतीय लेखक रस्किन बांड ने कहा कि उनकी निष्ठा और वफादारी हमेशा देश के लिए रही है और इसीलिए उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि कौन सा राजनीतिक दल सत्ता में है।
मसूरी में रचे-बसे अंग्रेजी के लेखक Ruskin bond का बचपन नई दिल्ली में बीता
यह बात कम जानी है कि आज मसूरी में रचे-बसे अंग्रेजी के लेखक रस्किन बांड का बचपन नई दिल्ली में बीता।
उन्होंने पेंगुइन से प्रकाशित अपनी पुस्तक “सीन्स फ्रॉम ए राइटर्स लाइफ” में बचपन में पहली बार दिल्ली आने का वर्णन करते हुए लिखा है कि जब कालका-दिल्ली एक्सप्रेस दिल्ली में दाखिल हुई, तब मेरे पिता (रेल) प्लेटफ़ॉर्म पर अपनी (रॉयल एयर फोर्स) की वर्दी में बेहद चुस्त लग रहे थे। और उन्हें स्वाभाविक रूप से मुझे देखकर काफी खुशी हुई।
दिल्ली में अपने पिता घर के बारे में वे बताते हैं कि उन्होंने कनाट सर्कस के सामने एक अपार्टमेंट वाली इमारत सिंधिया हाउस में एक फ्लैट ले लिया था। यह मुझे पूरी तरह से माफिक था क्योंकि यहां से कुछ ही मिनटों की दूरी पर सिनेमा घर, किताबों की दुकानें और रेस्तरां थे। सड़क के ठीक सामने एक नया मिल्क बार (दूध की दुकान) था।
जब मेरे पिता अपने दफ्तर गए होते थे तो मैं कभी-कभी वहां स्ट्राबेरी, चॉकलेट या वेनिला का मिल्कशेक पी आता था। वही एक अखबार की दुकान से घर के लिए एक कॉमिक पेपर भी खरीदता था।
रस्किन बांड अपने पिता की संगत में दिल्ली में फ़िल्में देखने के अनुभव को साझा करते हुए बताते हैं कि वे सभी शानदार नए सिनेमाघर आसानी से पहुंच के भीतर थे और मेरे पिता और मैं जल्द ही नियमित रूप से सिनेमा जाने वाले दर्शक बन गए। हमने एक हफ्ते में कम से कम तीन फिल्में तो देखी ही होंगी।
उनके शब्दों में, पिता के डाक टिकटों के संग्रह की देख रेख, उनके साथ फिल्में देखना, वेंगर्स में चाय के साथ मफिन खाना, किताब या रिकार्ड खरीदकर घर लाना, भला एक आठ साल के छोटे-से बच्चे के लिए इससे ज्यादा क्या खुशी की बात हो सकती थी?
इतना ही नहीं, रस्किन ने उस ज़माने की पैदल सैर के बारे में भी लिखा है।पुस्तक के अनुसार, फिर पैदल सैर थीं। उन दिनों में, आपको नई दिल्ली से बाहर जाने और आसपास के खेतों में या झाड़ वाले जंगल तक पहुंचने के लिए थोड़ा-बहुत ही चलना पड़ता था। हुमायूँ का मकबरा बबूल और कीकर के पेड़ों से घिरा हुआ था, और नई राजधानी के घेरे में मौजूद दूसरे पुराने मकबरों और स्मारकों का भी यही हाल था।
मेरे पिता ने निर्जन पुराना किला में मुझे हुमायूं के पुस्तकालय से नीचे आने वाली तंग सीढ़ियां दिखाई। यही बादशाह की फिसलकर गिरने के कारण मौत हुई थी। हुमायूं का मकबरा भी ज्यादा दूर नहीं था। आज वे सभी नई आवासीय क्षेत्रों और सरकारी कॉलोनियों से घिर गए हैं और शोरगुल वाले यातायात को देखना सुनना एक अद्भुत अनुभव है।
तब की नई दिल्ली के स्वरुप पर Ruskin bond बताते हैं कि 1943 में नई दिल्ली अभी भी एक छोटी जगह थी, मेडिंस, स्विस जैसे बड़े होटल पुरानी दिल्ली में ही थे, सड़कों पर केवल कुछ कारें ही दिखती थी, सैनिकों सहित अधिकतर लोग घोड़े जुते तांगे से सफर करते थे.
Ruskin bond बताते हैं कि जब हम रेल पकड़ने के लिए स्टेशन गए तो हमने भी तांगा लिया, नहीं तो वैसे हम पैदल ही जाते थे।
-एजेंसी
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