आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र एक बादशाह के अलावा शायर दिल इंसान भी थे। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 1857 के विद्रोह में षड्यंत्र के आरोप में दोषी ठहराए जाने के बाद अंग्रेज़ों ने उन्हें निर्वासित कर म्यांमार (बर्मा ) भेज दिया था।
रंगून में आख़िरी सांस लेने वाले ज़फ़र की ख़्वाहिश थी कि वह हिंदुस्तान की मिट्टी में दफ़्न हों। उनका मज़ार म्यांमार की पुरानी राजधानी रंगून में है।
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार [1] में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में
काँटों को मत निकाल चमन से ओ बाग़बाँ
ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में
बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद [2] से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में
कितना है बद-नसीब ‘ज़फ़र’ दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार [3] में
– बहादुर शाह ज़फ़र
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