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Thursday, 21 December 2017

बिठूर गंगा महोत्‍सव में कल रात कबीर फिर लौटे

कानपुर। बिठूर गंगा महोत्‍सव में कल रात मुंबई के संगीत नाट्य मंच के प्रसिद्ध हस्ताक्षर शेखर सेन ने कबीर की फकीरी को मंच में उतारते हुए उनके जन्म से मृत्यु की गाथा शब्दों में पिरोई तो एकाग्र चित्त होकर उनकी हर अंदाज को तालियां बजाकर सराहते रहे। नीरू और नीमा नामक जुलाहा को मिले नवजात शिशु से शुरू हुई शब्द यात्रा आखिरी तक बांधे रही।

कबीरा जुलाहा बाबा और मां के साथ चादर बुनने में हाथ बंटाते तो दोस्तों संग खेलते भी। कबीर की मस्जिद न जाने की टीस को उजागर करते सूत्रधार ने आडंबर, पाखंड और दिखावे पर जो तोको कांटा बोए, ताहि बोए तू फूल, पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूंजू पहार, ताते या चाकी भली पीसी खाय संसार,पोठी पढ़-पढ़कर जग मुआ पंडित हुआ न कोए, ढाई आखर प्रेम का पढैं सो पंडित होय के जरिेए चोट की।

कबीर के जीवन के कई पड़ाव की यात्रा को सूत्रधार ने जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो न तलवार को, पडा रहन दो म्यान, साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाए, सार-सार को गहि लहे, थोथा देह उड़ाए के जरिए ज्ञान और साधु को परिभाषित किया तो रहना नहिं देश बेगाना है, यह संसार कागज की पुड़िया, बंज पड़े घुल जाना है, ये तन विष की पोठली, गुरु अमृत की खान, सीस दिए गुरु मिले तो भी सस्ता जान, लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल, लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल के जरिए समाज की बुराई और गुरू की महत्ता को बताया।

झीनी झीनी रे झीनी झीनी रे चदरिया, सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी ओढ़ के मैली कीन्ही चदरिया, दास कबीर जतन से ओढ़ी जस ती तस रख दीन्हीं चदरिया, माया महाठगनी है हम जानी. तिरगुन फांस लिए कर डोले, बोले मधुरि बानी, पहले मन काक था करता जीवन खाक, अब मन हंसा बना, दाना चुग-चुग खात, चल हंसा उत ओर जहां पिया बसे चितचोर के जरिए उनकी उलट वाणी, लोकमंगल की भावना, इंसानियत का संदेश देने में भी नाटक सफल रहा। लाइट इफैक्ट, सहयोग देने वाले चित्रण, संगीत ने मंचन को और संजीदा बना दिया।

कौनो ठगवा नगरिया लूटत हो, उठो री सखी मोरी मांग संवारो दूल्हा मोसे रूठत हो, कहत कबीर सुनौ भाई साधौ जगत से नाता टूटत हो, दुल्हन गांव मंगलचार, हमरे घर आए राजाराम भरतार, रामदेव मोहे ब्याहन आए मैं जोबन मदभाती, एक के बाद कबीर की रमैनी, साखी, शबद और भजन स्वर लहरों के बीच हवा में गूंजते रहे और सभी जीवन की सच्चाई को इसमें तलाशते नजर आए।

नानासाहब पेशवा की धरती पर ‘कबीरा’ आत्मा को झिंझकोरने के साथ मजहबी दीवारों को तोड़ने का संदेश देने में सफल रहा।

बिठूर गंगा महोत्‍सव के पहले दिन एकल संगीत नाट्य मंचन कबीरा की प्रस्तुति के दौरान यह नजारा देखने को मिला।
-एजेंसी

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