किसी भी उच्च पदस्थ व्यक्ति की मन: स्थिति को समझने के लिए उसके भाव काफी होते हैं। उच्चपदासीन होने का यह मतलब यह नहीं कि पद प्राप्त करने वाले व्यक्ति द्वारा पद पर आसीन होने से पहले जो कुछ पढ़ा हो, वह पद की योग्यता के अनुरूप हो ही। किताबें पढ़कर अगर ”उच्च” हुआ जा सकता तो बेचारे कबीर, तुलसी, जायसी, रसखान, पद्माकर, बिहारी जैसे कवि हमारी थाती ना बने होते।
एक वाकया कल हुआ और आज अखबारों की सुर्खियां बन गया ।
कल ऋषिकेश-हरिद्वार के एक आयुर्वेद कॉलेज में अपने संबोधन में केंद्रीय जलसंसाधन राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह( पूर्व आईपीएस) ने गंगाप्रदूषण को लेकर अपनी सोच को जिस तरह पेश किया, वह न केवल उनके नाकारा प्रयासों को दर्शाती है बल्कि उन्हीं के कहे शब्दों से ज्ञात होता है कि ”नमामिगंगे-योजना” को केंद्रीय मंत्रियों ने किसतरह मज़ाक का विषय बना दिया है।
केंद्र इस योजना के अपार धन की बात करता है मगर गंगा-प्रदूषण पर पहले उमाभारती और अब सत्यपालसिंह जैसे मंत्रियों के रहते न यह धन काम आने वाला है और ना ही गंगा का दम घुटने से रोका जा सकता है। उन्होंने कहा कि ”गंगा में अस्थि विसर्जन और फूल के दोने प्रवाहित करने से, संतों को भी जलसमाधि देने के कारण अधिक प्रदूषण होता है। ऐसा करना किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा। गंगा में प्रवाहित करने के बजाय अस्थियों को किसी जमीन पर एक स्थान पर इकट्ठा के उसके ऊपर पौधे लगाए जाएं। ताकि आने वाली पीढ़ी उस पौधे में अपने पूर्वजों की छवि देख सकें।”
ये सही है कि पूर्वजों को याद करने का ये बेहतर तरीका हो सकता है मगर अस्थिवसर्जन को गंगा प्रदूषण का कारक फिर भी नहीं माना जा सकता।
मुंबई के पुलिस कमिश्नर रह चुके मंत्री सत्यपाल सिंह के बयान पर आक्रोषित संतों की भांति हम सभी सनातनधर्मी ये भलीभांति जानते हैं कि स्कंद पुराण, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, नारद पुराण और विष्णु पुराण में गंगा में अस्थिविसर्जन और संतों-साधुओं की जलसमाधि का उल्लेख है। यूं भी राख हुई अस्थियां कितना जलप्रदूषित करेंगी, ये तो कोई बच्चा भी बता सकता है।
कौन नहीं जानता कि गंगा समेत सभी नदियां सदैव से ऐसी नहीं थी, सर्वप्रथम अंग्रेजों के शासनकाल में शहरों का सीवेज हमारी नदियों में छोड़े जाने के बाद से इसकी शुरुआत हुई जो अब सीवरेज से होते हुए प्लास्टिक कचरे और उद्योगों के तेजाबयुक्त प्रदूषक तत्वों तक को ढो रही हैं। इसी तेजाब ने गंगा के जलचरों को लगभग खत्म ही कर दिया है। इन जलचरों का जीवन ही फूल-दोनों, गंगा में प्रवाहित खाद्यसामिग्री, जलसमाधि प्राप्त मृत शरीरों के अवशेषों पर निर्भर हुआ करता था परंतु उद्योगों व सीवरेज के घातक अपशिष्ट जलचरों को खत्म करता गया और नतीजा यह कि अब नदियां न सदानीरा रहीं और न ही सलिला।
बेशक गंगा और उसकी सहयोगी नदियां सदानीरा रहें इसकी सभी कामना करते हैं मगर जब गंगा मंत्रालय संभाल रहे मंत्री ही ऐसी बचकाना बातें कहेंगे और उसपर जनसहयोग न होने का रोना भी रोएंगे तो आखिर कौन लेगा गंगा को प्रदूषणमुक्त करने के जिम्मेदारी।
अखाड़ा परिषद सहित संतों और हमारे जैसे आमजन को भी मंत्री की ये बात गले नहीं उतर रही। उन्हें संतों ने करारा जवाब देते हुए कहा है कि पहले शास्त्र पढ़ें मंत्री जी और जहां तक बात है जलसमाधि की तो हम तो सरकार से पहले ही भूसमाधि हेतु जमीन मांग रहे हैं, अकेले उत्तराखंड में ही हजारों उद्योगों का अपशिष्ट गंगा में ना बहाने को संतों ने कितनी बार फरियाद की, मगर आज तक उसपर तो कोई विचार भी नहीं हुआ, मंत्री बतायें कि आखिर वे गंगा प्रदूषण पर इन मांगों को क्यों नहीं मान रहे। क्या सिर्फ अस्थिविसर्जन और फूल के दोने ही प्रदूषण फैलाते हैं, मंत्री की दृष्टि में इंडस्ट्रियल पॉल्यूटेंट
क्या हैं। संतों की ही बात करें तो अस्थिविसर्जन को पौराणिक व धार्मिक तौर पर ही सही नहीं माना गया बल्कि पर्यावरणीय, वैज्ञानिक, सामाजिक और भूमि के उपयोग को लेकर भी यह सर्वोत्तम संस्कार प्रक्रिया मानी गई है। अच्छा खासा वजनी से वजनी व्यक्ति भी सिमट कर एक लोटे में आ जाता है, क्या इससे फैल रहा है प्रदूषण?
फिलहाल तो गंगा-प्रदूषण पर स्वयं गंगा की ही हालत ऐसी हो गई है जैसी कि महाभारत के रचयिता वेद व्यास की थी, जो धर्म पालन के संदर्भ में यह कह रहे थे कि मैं अपनी बाहें उठा-उठाकर चिल्लाता हूं लेकिन मेरी कोई सुनता ही नहीं। ऐसा लगता है कि जिस महान संस्कृति को गंगा ने जीवन दिया उसका सबसे विकसित रूप देखने तक गंगा का ही जीवन नहीं बचेगा।
मंत्री सत्यपाल सिंह को ज्ञात होना चाहिए कि –
गंगा को ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है।
प्रसिद्ध नदीसूक्त में सर्वप्रथम गंगा का ही आह्वान किया गया है। ऋग्वेद में ‘गंगय’ शब्द आया है जिसका सम्भवत: अर्थ है ‘गंगा पर वृद्धि करता हुआ।’
शतपथ ब्राह्मण एवं ऐतरेय ब्राह्मण में गंगा एवं यमुना के किनारे पर भरत दौष्यंति की विजयों एवं यज्ञों का उल्लेख हुआ है।
महाभारत एवं पुराणों में गंगा की महत्ता एवं पवित्रीकरण के विषय में सैकड़ों प्रशस्तिजनक श्लोक हैं।
स्कन्द पुराण में गंगा के एक सहस्र नामों का उल्लेख है।
सत्यपाल सिंह के बयान और गंगा के प्रति बेहद सतही टिप्पणी के बाद गंगा के लिए कवि केदारनाथ अग्रवाल की ”गंगा पर कुछ पंक्तियां” पढ़िए-
आज नदी बिलकुल उदास थी/
सोयी थी अपने पानी में/
उसके दर्पण पर बादल का वस्त्र पड़ा था/
मैंने उसे नहीं जगाया/
दबे पांव घर वापस आया।’
न जाने वह कौन सी नदी थी, जिसकी उदास और सोयी हुई लहरों पर कवि केदारनाथ अग्रवाल ने इतना सुंदर बिम्ब रचा था।
कवि को उस रोज नदी उदास दिखी, उदासी दिल में उतर गई।
– सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी
The post सुनिए मंत्री जी! गले नहीं उतरने वाले ये बचकाना तर्क appeared first on Legend News: Hindi News, News in Hindi , Hindi News Website,हिन्दी समाचार , Politics News - Bollywood News, Cover Story hindi headlines,entertainment news.
No comments:
Post a Comment