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Wednesday, 10 January 2018

हममें और कुत्तों में कोई अंतर थोड़े ही है

”हममें और कुत्तों में कोई अंतर थोड़े ही है. जहां हम लोग सोते हैं, वहीं कुत्ते भी सोते हैं. हमारी थाली में मुंह देते हैं. उनको हम लोग लात मारकर भगा देते हैं और बड़े लोग हम लोगों को…”
‘जैसे कुत्ते का बच्चा पैदा होता है वैसे ही यह पैदा हुआ… यहीं फ़्लाइओवर के नीचे. ब्लेड से नाल काटे और क्या…”
यह बात कहने वाली कोई और नहीं, क़रीब दो महीने पहले पैदा हुए बच्चे की दादी और उनकी काई साथी थीं.
अमूमन, घर में पोते का जन्म हो तो दादी जितना कोई खुश नहीं होता लेकिन अपने ही पोते के लिए ऐसे शब्द?
यह सब सुनने के बाद शक़ होने लगता है कि हम कौन सी दिल्ली में रहते हैं?
हमारी दिल्ली में ही एक तबका ऐसा है जो यमुना के किनारे सोता है. वही यमुना नदी जिसके किनारे से गुज़रते हुए कुछ लोग नाक को रुमाल से ढक लेते हैं.
नदी में सूरज के गिरते ही यहां सुगबुगाहट शुरू हो जाती है. लोग आते जाते हैं और ख़ाली जगह भरने लगती है. नम-रेतीली ज़मीन पर सोने के लिए जगह का हिसाब होने लगता है.
लोग आते हैं और सुबह जिन पत्थरों के नीचे बिस्तर छिपाकर गए होते हैं उसे हटाकर सो जाते हैं.
किसी अजनबी के क़दम की हल्की सी थाप होती है और सैकड़ों की संख्या में कुत्ते भौंकने लगते हैं. मानो बोल रहे हों इन बेचारों को यहां तो सोने दो.
बेघरों के लिए काम करे वाले शैलेंद्र ने हमें बताया कि इन लोगों के पैर से जूते कभी उतरते ही नहीं हैं. दिन में काम करने के लिए पहनने पड़ते हैं और रात को ठंड से बचने के लिए.
”यमुना मइय्या ही इनको पाल रही हैं. जिस पानी से धोते हैं, उसी से कुल्ला करते हैं. बिस्तर को पत्थर से दबाते हैं और काम पर चले जाते हैं.”
नदी के किनारे से थोड़ा ऊपर आने पर एक ओर पीडब्ल्यूडी की शानदार बिल्डिंग है. दूसरी ओर गाय, कुत्ते, गोबर, कचड़े, पेशाब के बीच बोरी पर सोने वाले लोग.
रैन बसेरों में रहने वाले लोग
ऊपर आकर बांयी ओर मुड़ने पर नज़ारा बदल जाता है. कुछ लोग गुमटी पर बैठकर टीवी देखते नज़र आते हैं. पूछने पर पता चलता है कि वे रैन बसेरों में रहते हैं.
चांदनी चौक और आईएसबीटी इलाक़े में क़रीब 30 से 33 रैन बसेरे हैं. जिनमें स्थाई, अस्थाई और टेन्ट तीनों ही तरह के शेल्टर हैं. महिलाओं के लिए अलग. आदमियों के लिए अलग. बूढ़ों के लिए अलग.
डीयूएसआईबी के बिपिन राय बताते हैं ” दिल्ली में कुल 258 रैन बसेरे हैं. 83 पक्के निर्माण हैं. 115 पोटा केबिन्स हैं और 70 टेंट हैं. इसके अलावा एक सब-वे है जिसे भी शेल्टर बना दिया गया है.”
यमुना किनारे बसे इन रैन बसेरों में लोगों को कोई तक़लीफ़ नहीं है. बिपिन बताते हैं कि कोशिश होती है कि रैन बसेरों में रहने वाले लोगों को मूलभूत सुविधाएं दी जा सकें. इन रैन बसेरों में बेडिंग, कम्बल, पानी, टॉयलेट, मेडिकल और सुबह चाय के साथ रस्क दिया जा रहा है.
रैन बसेरों में महिलाओं के लिए क्या इंतज़ाम?
बिपिन ने बताया कि महिलाओं और बच्चों के लिए ख़ास ख्याल रखकर शेल्टर तैयार किए गए हैं.
हालांकि वो भी मानते हैं कि शेल्टर कम पड़ रहे हैं और इस परेशानी का स्थायी समाधान निकाले जाने की ज़रूरत है.
एक शेल्टर के केयरटेकर राजबीर का कहना है कि कोई भी आकर शेल्टर में रह सकता है. उसको कोई पहचान पत्र दिखाने की ज़रूरत नहीं होती. सिर्फ पिता का नाम, स्थाई पता और नाम ही काफ़ी होता है. हालांकि सामान की चेकिंग ज़रूर की जाती है.
वहीं निज़ामुद्दीन पुल से थोड़ी दूर पर बने रैन बसेरे कुछ और ही कहानी बयां करते हैं.
यहां क़रीब 50 से 60 लोग रहते हैं लेकिन शेल्टर तीन ही है. इस शेल्टर में रहने वाले ज़्यादातर लोग परिवार वाले हैं, जिनके साथ दुधमुंहे बच्चे भी हैं. ज्यादातर मुसलमान हैं.
यहां रहने वाली यास्मीन कहती हैं ” बस कहीं और नहीं रह सकते इसलिए यहां रह रहे हैं. टॉयलेट से लेकर हर चीज़ की दिक्क़त है. शेल्टर के अंदर कई तरह के आदमी रहते हैं. डर बना रहता है लेकिन कोई दूसरा सहारा भी नहीं है. सड़क किनारे शेल्टर है तो बच्चों को लेकर भी डर रहता है कि कहीं सड़क पर न भाग जाएं. लाइट नहीं है. न कोई दवा-इलाज को पूछने वाला.
यहीं एक शेल्टर में सलमा रहती हैं जो क़रीब दो महीने पहले ही तीसरे बच्चे की मां बनी हैं. उनकी डिलीवरी फ़्लाइओवर के नीचे हुई. उनके साथ की औरतों ने ही नाल काटी और उसके बाद वो रैन बसेरे में आ गईं.
दिल्ली के शेल्टर का क्या है हाल?
सलमा बताती हैं ”यहां परेशानी तो है. खाने को नहीं है. दवा भी नहीं है पर बच्चों को लेकर कहीं जा भी तो नहीं सकते. कम से कम लेटने को तो है.”
शेल्टर में रहने वाली आठ महीने की गर्भवती का कहना है ” किसी को हमारी चिंता नहीं. कभी पेट दर्द होता है तो कभी बुखार हो जाता है लेकिन दवा देने वाला कोई नहीं.”
उन्हें नहीं पता कि उनका बच्चा कैसे पैदा होगा और उसके बाद उसका क्या होगा.
एक एनजीओ के लिए काम करने वाले सुनील बताते हैं कि यह मामला आपदा से कम नहीं है. उनका कहना है कि दिल्ली में एक भी शेल्टर मानक के अनुसार नहीं हैं.
हर शेल्टर में तय लोगों की संख्या से कई गुना ज़्यादा लोग रह रहे हैं. मानकों के अनुसार तो एक शेल्टर में वो तमाम सुविधाएं होनी चाहिए जो मौलिक हैं लेकिन ज़मीनी हक़कीत बहुत दुखदायी है.
कबाड़ बीनने वाले जमद अली का कहना है मेरी बेटी 16 साल की है. यहीं शेल्टर में रहती है. एक बेटा भी है थोड़ा पागल है. जब घर से निकलता हूं तो डर लेकर काम पर जाता हूं कि दर्जनों आदमियों के बीच में बेटी को छोड़कर जा रहा हूं.
-भूमिका राय

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