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Thursday, 27 September 2018

लोकप्रियता का दावा और भय की पराकाष्ठा?

निर्मल रानी

यदि आप एक ओर यह दावा भी करें कि समाज में आपसे अधिक लोकप्रिय नेता कोई भी नहीं है। आपके प्रवक्तागण मेज़ें ठोक-ठोक कर यह चीखते चिल्लाते रहें कि आपकी लोकप्रियता का ग्राफ दिन-प्रतिदिन ऊपर उठता जा रहा है। आपको किसी समाज विशेष, क्षेत्र अथवा देश का ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे अधिक लोकप्रिय नेता प्रमाणित करने के प्रयास भी किए जा रहे हों, यहां तक कि आप अपनी इन्हीं तथाकथित लोकप्रियताओं के आधार पर विश्व का सर्वोच्च ग्लोबल शांति पुरस्कार लेने की कतार में भी स्वयं को खड़ा कर चुके हों और इतनी लोकप्रियताओं के अंबार के बावजूद आप ही को अपने ही समर्थकों, शुभचिंतकों, अपने ही पार्टी के कार्यकर्ताओं से यहां तक कि उनके कपड़े, बनियान व थैलों से डर लगने लगे या आप उन्हें संदेह की नज़रों से देखने लगें तो निश्चित रूप से यह दोनों ही बातें विरोधाभासी हैं। या तो लोकप्रियता के आपके दावों में कोई खोट है या गरीबों व आम कार्यकर्ताओं पर संदेह किया जाना गलत है या फिर आपके अपने ही कारनामे, आपकी कारगुज़ारियां ही आपको स्वयं भीतर से भयभीत किए हुए हैं। अन्यथा लोकप्रियता व भय दोनों साथ-साथ नहीं चलने चाहिए। परंतु इस समय हमारे देश में इन्हीं दो विरोधाभासी विषय वस्तुओं का संगम एक साथ बार-बार देखने को मिल रहा है।

इसी वर्ष 7 जुलाई को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जयपुर में एक अनूठे कार्यक्रम में हिस्सा लिया। इसमें प्रधानमंत्री द्वारा विभिन्न सरकारी योजनाओं से लाभ उठाने वाले लोगों से संवाद स्थापित किया गया। इस रैली का नाम भी ‘प्रधानमंत्री-लाभार्थी जनसंवाद रखा गया था। इनमें विभिन्न राज्यों से सरकारी तंत्र द्वारा कथित लाभार्थियों को ढूंढ-ढूंढ कर जयपुर लाया गया था। परंतु रैली स्थल पर इन लाभार्थियों के पहुंचने के बाद इन्हें प्रधानमंत्री के समक्ष लाभार्थी संवाद वाले पंडाल में बैठने हेतु ड्रेस कोड सूचित किए गए। इसके तहत जिन-जिन कथित लाभार्थियों ने काली शर्ट या काली पैंट पहन रखी थी या उनके हाथों में काले बैग, काले गम्छे या किसी भी प्रकार के काले लिबास थे उन्हें उतरवा लिया गया। यहां तक कि काली बनियान भी जिस्म से उतारने के लिए कहा गया। हद तो यह है कि जिन लोगों ने अपने कपड़े नहीं बदले या जिनके पास बदलने हेतु दूसरे कपड़े नहीं थे उन्हें पंडाल में दाखिल ही नहीं होने दिया गया। कुछ लोग तो ऐसे थे जिन्होंने अपनी काली शर्ट तो बदल ली परंतु उनके पास काली पैंट के सिवा बदलने के लिए कोई दूसरी पैंट नहीं थी ऐसे लाभार्थियों को प्रधानमंत्री से संवाद का अवसर नहीं दिया गया। इस प्रकार की चौकसी किसी नेता की लोकप्रियता का मापदंड है या उसके भयभीत होने का प्रमाण?

दरअसल देश का वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य अब 2012-14 जैसा नहीं रहा। भाषणबाज़ी व जुमलेबाज़ी से ऊब चुकी देश की जनता अब समझ चुकी है कि राजनीति के बोलवचन तथा उनपर अमल करने में कितना अंतर है? देश की जनता यह भी बखूबी समझने लगी है कि जुमलेबाज़ी के आधार पर अब लोकप्रियता की मार्किटिंग की जा रही है और दिखाई देने वाली लोकप्रियता कृत्रिम लोकप्रियता है वास्तविक नहीं। लिहाज़ा किसी भी नकली लोकप्रियता रखने वाले व्यक्ति का भीतर से भयभीत होना भी लगभग स्वाभाविक है। अभी गत दिनों प्रधानमंत्री ने अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी का दौरा किया। अपने संसदीय क्षेत्र के चौदहवें दौरे में उन्होंने अपना जन्मदिन भी वाराणसी में ही मनाया।

प्रधानमंत्री वाराणसी को टोयटो बनाने की बातें कर चुके है। यहां के लोगों को गंगा की सफाई का सपना दिखा चुके हैं। अपने ही संसदीय क्षेत्र के एक गांव को आदर्श गांव बनाने हेतु उसे गोद ले चुके हैं और बनारस को स्मार्ट सिटी की तर्ज पर विश्व का निराला शहर बनाने की सपने दिखा चुके हैं। निश्चित रूप से जब उन्होंने काशी वासियों से यह कहकर अपना रिश्ता जोड़ा था कि मां गंगा ने मुझे वाराणसी से चुनाव लडऩे हेतु बुलाया है उस समय उनकी इस भावुक अपील में लोग उनके साथ बह गए थे। और उन्हें विजयश्री दिलाई थी। इसके बाद अब 2019 के चुनाव सिर पर हैं। इन पिछले पांच वर्षों में वाराणसी का कितना कायाकल्प हो सका है यह या तो स्वयं प्रधानमंत्री जानते हैं या उनके योग्य प्रवक्तागण या फिर वाराणसी की वह जनता जो 2014 से लेकर 2019 तक के वादों, संकल्पों, सपनों तथा संभावनाओं की आगोश में झूला झूलती रही है।

प्रधानमंत्री के वाराणसी के इस ताज़ातरीन दौरे में वाराणसी विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में जैसे ही प्रधानमंत्री ने अपना भाषण देना शुरु किया तथा अपनी योजनाओं की सूची पढऩी शुरु की ठीक उसी समय प्रधानमंत्री के सामने बैठी जनता कुर्सियां छोड़-छोड़ कर जाने लगी। वैसे भी इस पंडाल में पचास हज़ार लोगों की भीड़ जुटाने का दावा किया गया था जो पूरी तरह खोखला साबित हुआ। हद तो उस समय हो गई जब कुर्सियां छोड़कर जाती हुई भीड़ से प्रधानमंत्री द्वारा स्वयं अपने भाषण के बीच ही उन्हें बैठने के लिए बार-बार -भैया बैठ जाओ, भैया बैठ जाओ, कहना पड़ा। परंतु प्रधानमंत्री को पीठ दिखा चुकी जनता दोबारा कुर्सी पर बैठने को राज़ी नहीं हुई।

प्रधानमंत्री ने गत् चार वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा वाराणसी में लागू की गई योजनाओं की सूची प्रस्तुत की और अंत में यहां तक कहा कि काशी की जनता हमारी मालिक है, हमारी हाईकमान है। जनता को अपना भाषण छोड़कर जाता देख वे कई बार मायूसी की हालत में रुमाल से अपने चेहरे का पसीना पोंछते हुए भी दिखाई दिए। परंतु गंगा मैया के बुलाए हुए जिस मेहमान को काशीवासियों ने अपने सिर-आंखों पर बिठाया था आज उसी काशी के लोग न तो प्रधानमंत्री को सुनने में दिलचस्पी रखते हैं न ही उनकी लच्छेदार बातों पर विश्वास कर रहे हैं। ऐसे में लोकप्रियता की उनकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की मार्किटिंग को आखिर क्या समझा जाए?

आम मतदाता या किसी योजना के लाभार्थियों की बात तो छोडि़ए प्रधानमंत्री को अब संभवत: अपनी ही पार्टी के उन कार्यकर्ताओं पर भी भरोसा नहीं रहा जिन्हें वह पार्टी की जीत समर्पित करते अक्सर सुनाई देते हैं। यह दृश्य गत् दिनों भोपाल में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता सम्मेलन में देखने को मिला। यहां भी जयपुर की ही तरह भाजपा कार्यकर्ताओं को शरीर पर किसी भी प्रकार का काला कपड़ा पहनकर न आने की हिदायत दी गई थी। जो नेता या कार्यकर्ता किसी भी प्रकार का काला कपड़ा धारण किए हुए था उसे उतरवा दिया गया। खबरों के अनुसार प्रधानमंत्री के भोपाल प्रवास के दौरान लगभग पांच सौ ऐसे लोगों को हिरासत में भी लिया गया जिनसे यह भय था कि वे प्रधानमंत्री के दौरे में विघ्र डालने का प्रयास कर सकते हैं। यह खबरें भी आई हैं कि राजधानी भोपाल में प्रधानमंत्री मोदी के चित्र वाले जो पोस्टर उनके स्वागतार्थ लगाए गए थे उनपर कालिख पोत दी गई। ऐसे में शासन व प्रशासन का चौकस हो जाना भी स्वाभाविक था। परंतु इस चौकसी व भय की गाज भाजपा के उन कार्यकर्ताओं पर भी गिरेगी जो किसी भी प्रकार का काला लिबास धारण किए हुए थे इस बात की तो कल्पना भी नहीं का जा सकती थी।

इस प्रकार के विरोधाभासी समाचार और भी कई जगहों से आने शुरु हो चुके हैं जहां एक ओर तो चीख-चीख़ कर यह बताने की कोशिश की जा रही है कि हमारे नेता से अधिक लोकप्रिय कोई दूसरा नेता नहीं है तो दूसरी ओर उसी नेता को अपने ही देश की आम जनता, मतदाता यहां तक कि अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं से भय भी महसूस हो रहा है। लोकप्रियता व भय का ऐसा संगम संभवत: देश में पहले कभी देखने को नहीं मिला।

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