राजेश माहेश्वरी
एससी-एसटी एक्ट को लेकर देशभर में बहस छिड़ी हुई है। एससी-एसटी उत्पीड़न को लेकर जिस सुप्रीम कोर्ट ने बिना जांच किए गिरफ्तारी पर रोक लगाने का निर्णय दिया था उसे सरकार ने विपक्षी दलों तथा दलित समुदाय के दबाव में जब पलट दिया तो पूरे देश में उसका उग्र विरोध हुआ। सवर्ण समुदाय ने दलील दी कि जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दहेज उत्पीड़न में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाई वैसी ही व्यवस्था दलितों व आदिवासियों के उत्पीडन संबंधी शिकायतों को लेकर होनी चाहिए। लेकिन गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व में दिये अपने ही फैसले को बदलते हुए दहेज उत्पीड़न की शिकायत पर आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी पुलिस पर छोड़ दी है। मोदी सरकार के इस फैसले का व्यापक तौर पर लगातार विरोध जारी है। सड़क पर संघर्ष के बाद सोशल मीडिया पर इस बाबत लोगों को विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा है। मोदी सरकार अपने फैसले को सही साबित करने के लिये तमाम दलीलें दे रही हैं, लेकिन जनता में गुस्सा बरकरार है।
बीते साल दो माननीय न्यायाधीशों की पीठ ने शिकायत की जांच एक परिवार कल्याण समिति को सौंपने तथा एक माह के भीतर उसकी रिपोर्ट आने के बाद ही आगे की कार्रवाई करने संबंधी फैसला दिया था लेकिन गत दिवस मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यों की पीठ ने कह दिया कि न्यायपालिका का काम कानून बनाना नहीं है इसलिए परिवार, कल्याण समिति जैसी व्यवस्था सरकार चाहे तो अपने स्तर पर बनाए। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपी को अग्रिम जमानत का अधिकार देते हुए पुलिस को हिदायत दी है कि वह गिरफ्तारी का कदम सोच-समझकर उठाये क्योंकि दंड विधान संहिता के अनुसार गैर जमानती अपराध में गिरफ्तारी का समुचित कारण उसे बताना होगा।
प्रथम दृष्ट्या ऐसा प्रतीत होता है कि गत दिवस दिया गया निर्णय न्यायपालिका की सीमाओं को ध्यान रखते हुए किया गया है जिसका उल्लंघन करने के लिए उसे समय-समय पर कार्यपालिका और विधायिका की आलोचना का शिकार होना पड़ा है। लेकिन ऐसे में प्रश्न उठता है कि दहेज प्रताडना प्रकरण में जब बिना जांच किये गिरफ्तारी पुलिस के विवेकाधीन छोडना गलत नहीं है तब फिर अनु.जातिध्जनजाति कानून के तत्संबंधी प्रावधान पर सर्वोच्च न्यायालय ने क्यों पाबंदी लगाई थी? केन्द्र सरकार द्वारा पुरानी व्यवस्था को दोबारा लागू किये जाने को भी सर्वोच्च न्यायालय में चुनाती दी गई है। ऐसे में यदि वह उस संबंध में अपने पिछले निर्णय पर कायम रहते हुए तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाने की बात दोहराता है तब वह विरोधाभास पैदा करने वाला रहेगा।
इस तरह के न्यायालयीन फैसलों से जनसाधारण में भी भ्रम और असंतोष व्याप्त होता है। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कानून बनाने का अधिकार विधायिका का है। शायद इसी आधार पर उसने एससी-एसटी उत्पीडन संबंधी नये कानून पर स्थगन देने से इंकार करते हुए केन्द्र सरकार से छह हफ्ते में जवाब देने कह दिया किन्तु जिस कानून को वह पहले रद्द कर चुका हो उस पर दोबारा रोक लगाने में वह संकोच कर गया। ये स्थिति अनिश्चितता उत्पन्न करने वाली है। दहेज उत्पीडन में अग्रिम जमानत की सुविधा भी सर्वोच्च न्यायालय ने दी है जबकि दलित उत्पीडन की शिकायत में छह माह तक सींखचों में रहने की व्यवस्था की गई है। ठीक वैसा ही आश्वासन राज्य और केन्द्र सरकार की तरफ से दलितों संबंधी कानून को लेकर दिया जा रहा है परन्तु समस्या का एक पहलू तो पुलिस का रवैया भी है जो लोगों को भयाक्रान्त करता है।
कई मामलों में पुलिस को राजनीतिक एवं सामाजिक दबावों में रहकर भी काम करना होता है। ऐसे में बेहतर तो यही होगा कि संदर्भित दोनों ही मामलों में आरोपी को सीधे गिरफ्तार करने की बजाय ऐसी कोई व्यवस्था बनाई जाए जिससे कि कानून का दुरुपयोग भी न हो वहीं आरोपी भी बचकर न निकल जाए। तत्काल जमानत को लेकर ये तर्क दिया जाता है कि ऐसा करने पर आरोपी छूटकर शिकायतकर्ता को धमकाने तथा साक्ष्य नष्ट करने का काम कर सकता है परन्तु दहेज उत्पीडन में तत्काल गिरफ्तारी तथा लंबे समय तक जमानत नहीं मिलने की वजह से न जाने कितने शरीफ और बेगुनाह लोगों को यातनाएं झेलनी पड़ी ये किसी से छिपा नहीं है। दलित के अलावा महिलाओं के उत्पीडन संबंधी कानूनों का दुरुपयोग भी समय-समय पर सामने आता रहा है। इस संबंध में व्यवहारिक बात ये है कि शिकायतकर्ता एवं आरोपी दोनों में से किसी के साथ ज्यादती न हो ये चिंता करना न्यायपालिका एवं कार्यपालिका दोनों का ही दायित्व है।
इस संबंध में बने कानूनों से पीड़ित पक्ष के हितों का संरक्षण तो बेशक हुआ है परन्तु सिक्के का दूसरा पहलू पुलिस के निरंकुश रवैये के रूप में बेहद शर्मनाक है। समय आ गया है जब न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका तात्कालिक सोच से ऊपर उठकर ऐसे निर्णय करें जिनका असर दूरगामी हो तथा एक समस्या का निराकरण करते समय दूसरी के उत्पन्न होने जैसी परिस्थिति से बचा जा सके। एक आदर्श व्यवस्था में किसी का भी उत्पीडन नहीं होना चाहिए।
इस मुद्दे पर खूब राजनीति भी हो रही है। माना कि हमारे देश की राजनीति का स्तर इस हद तक गिर चुका है कि लगभग सत्ताधारी और राजनेता जातिवाद, धर्म, संप्रदाय के मुद्दे को अपने वोट के लिए हथियार बनाते हैं, लेकिन अगर आज भी पिछड़े या अन्य गांवों में जाकर देखा जाए, तो शायद पता चल जाए कि आज भी हमारे देश में बहुत से ऐसे गांव हैं जो 21वीं सदी में आकर भी जातपात के भेदभाव से मुक्त नहीं हो पाए हैं। वास्तव में दलित आंदोलनों और विभिन्न विपक्षी दलों के साथ-साथ सत्ता पक्ष के कुछ सांसदों के विरोध के बाद आनन-फानन में सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बदलने के लिए संविधान संशोधन किया तथा कानून को पुनः यथावत कर दिया. सरकार के ही कुछ सांसद इसके समर्थन में उतर आये हैं। फिर आगे क्या होता है यह तो सरकार ही जाने, लेकिन भाजपा अब दोतरफा दबाव में घिर गयी है। वैसे यह बात समझना काफी कठिन है कि यही भारतीय जनता पार्टी की सरकार राम मंदिर कानून को लेकर सरकार सर्वोच्च न्यायालय पर निर्भर है जबकि अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति कानून के बारे में उसी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बदल दिया।
असल में जब से देश आजाद हुआ है, तब से दलित वर्ग पर जितनी राजनीति की गई, अगर उतना काम सत्ताधारी और राजनेता जातपात के कलंक को मिटाने के लिए करते, तो आज देश जातपात की भेदभाव की बेड़ियों से आजाद हो गया होता। आज भी हमारे देश में जातपात के आधार पर भेदभाव किया जाता है। खासतौर पर गांवों में जातपात की बीमारी बहुत बुरी तरह फैली है। दिल्ली में बैठे-बैठे जो कानून बनाए जाते हैं, उनका असर गांवों तक पहुंचता ही नहीं, जबकि भारत तो बसता ही गांवों में है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 में जो संशोधन सुप्रीम कोर्ट ने किया, उस पर सभी को राजी होना चाहिए था। अगर सुप्रीम कोर्ट को सरकार और आम लोगों के मुताबिक ही फैसले लेने के लिए बाध्य किया जाएगा, तो एक दिन सुप्रीम कोर्ट की अहमियत और गरिमा भी लगभग खत्म हो जाएगी। एससी-एसटी एक्ट वर्ग के लोगों को इंसाफ दिलाना है, तो हर किसी को अपनी सोच बदलनी होगी, तभी देश से जात-पात आधारित भेदभाव की बीमारी का भी अंत होगा।
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