श्रीप्रकाश “वर्मा”
देश की सियासत के चुनावी दौर में किसानों की कर्जमाफी का ऐलान एक हिट फार्मूला सा बन चुका है और देखा जाये तो यह घोषणा करने वाले राजनीतिक दलों के लिए वरदान भी साबित होता रहा है। देश की लगभग आधी से ज्यादा आबादी अपने रोज़ी रोटी के लिए कृषि पर निर्भर है। इस लिहाज से किसान ही देश का सबसे बड़ा वोट-बैंक माना जाता है तो चुनावी दौर में राजनीतिक दलों का किसानों की परिक्रमा करना भी लाजिमी है। चुनावी दौर में राजनीतिक दल किसानों के लिए हितैषीपन दिखाते हुए कर्जमाफी को ही किसानों की सभी समस्याओं के हल के रूप पेश कर देते हैं। जिसका फायदा उन्हें निश्चित रूप से चुनावों में मिलता रहा है।
2009 में यूपीए की सरकार ने देश भर के किसानों के लगभग 60 हजार करोड़ रुपये की कर्जमाफी का ऐलान किया था जिसका फायदा उसे सत्ता की वापसी के रूप मे हुआ था। इसके उदाहरण अभी नजदीक के कई चुनावों मे देखने को भी मिले है। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने किसानों के कर्जमाफी का ऐलान किया और बहुमत की सरकार बनाई। 2018 हाल में ही हुए पाँच राज्यों के चुनावों में भी कहीं न कहीं इसका स्पष्ट असर देखने को मिला है। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र मे किसानों की कर्जमाफी का ऐलान किया और पाँच मे से तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ मे अप्रत्याशित रुप से जीत दर्ज की।
वास्तविक रूप से देखें तो देश के किसानों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। आये दिन कर्ज मे डूबे किसान आत्महत्या जैसा महापाप करने को भी मजबूर हो रहे है। ऐसे समय में कर्जमाफी का ऐलान उनके बुझे मन को आशान्वित कर देता है और उन्हें लगता है कि अब उनकी मुश्किलें खत्म तो नहीं पर कुछ कम तो अवश्य ही होगीं। इनकी यही आशा वोट मे परिवर्तित हो राजनीतिक दलों को लाभ पहुँचाती रहती है।
चुनाव जीत सरकार बनाने के बाद एक निश्चित राशि तक कर्जमाफी का ऐलान भी कर दिया जाता है पर वास्तविक रूप से गरीब किसानों की स्थिति में कोई सकारात्मक परिवर्तन देखने को नही मिलता है।
सवाल यह उठता है कि देश के किसानों की बदहाल स्थिति को सुधारने के लिए केवल कर्जमाफी का कदम ही काफी है या सरकार के द्वारा इनकी स्थिति को सुधारने के लिए अन्य कोई प्रभावी और योजनाबद्ध तरीके से कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। यह भी देखा जा चुका है कि किसानों की कर्जमाफी से तात्कालिक रूप से सियासी फायदे तो उठाये जा सकते हैं लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। कर्जमाफी करने वाले राज्यों की जीडीपी पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है।
यह भी देखा जाता है कि कर्जमाफी का लाभ केवल 10 प्रतिशत गरीब किसान ही उठा पाता है क्योंकि देश का ज्यादातर किसान या तो अनपढ़ है या कम पढ़ा -लिखा है जो बैंक की झंझट से बचने के लिए या जानकारी के अभाव में बैंक से कर्ज लेने के बजाय सेठ साहूकारों से अधिक ऋण पर कर्ज ले लेता है और कर्जमाफी के लाभ से भी वंचित रह जाता है।
कर्जमाफी से कहीं न कहीं उन किसानों के साथ नाइंसाफ़ी होती है जो समय से ईमानदारी के साथ अपना कर्ज चुका देते हैं।कर्जमाफी के लाभ से वंचित होने पर उनके अंदर भी समय से कर्ज़ जमा न करनें की प्रवृत्ति उत्पन्न होनें लगती है।
हाल ही में देश के कई राज्यों के किसानों द्वारा अपने हक की मांग करते हुए देशव्यापी आंदोलन किया गया था जो इस बात का सबूत है कि देश का किसान सरकार द्वारा उनके हित मे उठाये गए कदमों से संतुष्ट नहीं है। सरकार द्वारा कर्जमाफी के साथ-साथ किसानों की फसलों का उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करके आमदनी बढ़ाने के उपायों पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए। साथ ही साथ बिचौलियों पर नकेल कसना भी अतिआवश्यक है जिससे किसानों को बाजार में अपनी फसलों का उचित मूल्य मिल सके जिससे उन्हें अपनी फसलों को सड़कों पर फेंकने के लिए मजबूर ना होना पड़े।किसानों को समय समय पर बीज,खाद,डाई, यूरिया आदि की उपलब्धता हो जिसके लिए उन्हें भटकना न पड़े।अक्सर देखा जाता है कि डाई यूरिया के लिए उनको लंबी लंबी लाइनों में लगना पड़ता है और कभी कभी तो पुलिस की लाठियां तक खानी पड़ जाती हैं।इन समस्याओं की तरफ़ भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
जब किसानों की आमदनी अच्छी होगी तो कर्ज माफ करने की इतनी ज्यादा मात्रा में जरूरत ही नहीं पड़ेगी। किसानों पर दया नहीं बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए।
किसानों के लिए योजनाएं चुनाव के मद्देनजर रखते हुए नहीं बल्कि देश के किसानों और देशहित को ध्यान में रखते हुए दीर्घकालिक बनाई जानी चाहिए तभी असल मायने में देश के अन्नदाता की समस्याओं का हल सम्भव है।
क्योंकि जब देश का अन्नदाता सुखी और सम्पन्न होगा तभी वास्तविक रूप से राष्ट्र सुखी और सम्पन्न होगा।
Posted by:sp.verma//9452768586
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