डॉ दिलीप अग्निहोत्री
इसमें सन्देह नहीं कि भारत में जांच और न्यायिक प्रक्रिया में बहुत समय लगता है। लेकिन सच एक न एक दिन सामने अवश्य आता है। यूपीए सरकार में चर्चित कोयला घोटाले को लेकर कांग्रेस पार्टी उल्टे सवाल करने लगी थी। उसका कहना था कि किसी को सजा नहीं मिली ,इसका मतलब की घोटाला हुआ ही नहीं था। यूपीए सरकार में मंत्री रहे कपिल सिब्बल का भी यही कहना था। उनके अनुसार यह तत्कालीन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय के अनुमान पर आधारित था। जिसे भाजपा ने बड़ा मुद्दा बना दिया। लेकिन अब तय हुआ कि नियंत्रक महालेखा परीक्षक गलत नहीं थे। वैसे भी संविधान में इस संस्था को बहुत महत्व दिया गया। संविधान निर्माताओं की कल्पना थी कि यह संस्था अपनी रिपोर्ट से वित्तीय गड़बड़ी की ओर ध्यान आकृष्ट कराएगी। विनोद राय ने अपनी जिम्मेदारी किया था। यह तथ्य न्यायपालिका के निर्णय से प्रमाणित हुआ।
पटियाला हाउस कोर्ट की विशेष सीबीआई कोर्ट ने कोयला घोटाले पर निर्णय सुना दिया। भ्रष्टाचार और आपराधिक साजिश रचने के मामले में कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव एचसी गुप्ता, पूर्व संयुक्त सचिव केएस क्रोफा और पू्र्व निदेशक केसी समरिया को तीन वर्ष की कारावास की सजा सुनाई। निजी कंपनी विकास मेटल्स एंड पावर लिमिटेड के प्रमोटर विकाश पटनी और उनके सहयोगी आनंद मलिक को चार वर्ष की सजा सुनाई है। इसके अलावा दोषी कम्पनी पर एक लाख और उसके एमडी पर पच्चीस लाख रुपये का जुर्माना लगाया है। विकास मेटल्स एंड पावर लिमिटेड कंपनी को पश्चिम बंगाल स्थित मोरिया और मधुजोड़ में स्थित कोयला खदानों का नियमों के विपरीत जाकर आवंटन किया था। कमल स्पंज एंड पावर लिमिटेड और विनी आयरन एंड स्टील उद्योग लिमिटेड के मामलों में एचसी गुप्ता को पहले ही दोषी ठहरा चुकी है। इस घोटाले से जुड़े आठ मामलों में गुप्ता के खिलाफ सुनवाई चल रही है। कोर्ट ने इस मामले में सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट खारिज करते हुए जांच के निर्देश दिए थे। यूपीए सरकार मामले को दबाना चाहती थी। उसे जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने बाध्य किया था।
प्रशासनिक व्यवस्था ऐसी है कि सचिव ही निशाने पर आ गए। लेकिन नैतिक रूप से तत्कालीन राजनीतिक सत्ता भी दोषी है। सब कुछ उनकी जानकारी और सहमति से ही हो रहा था। इस मामले में सीबीआई ने सितंबर दो हजार बारह में मुकदमा दर्ज किया था। 1.86 लाख करोड़ रुपये का यह घोटाला उस वक्त सामने आया था जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने दो हजार बारह में अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में सरकार पर आरोप लगाया था कि उसने दो हजार चार से दो हजार नौ तक की अवधि में कोयला ब्लॉक का आवंटन गलत तरीके से किया। सीएजी की अंतिम रिपोर्ट के मुताबिक इससे सरकारी खजाने को बहुत नुकसान पहुंचा था। जबकि कंपनियों ने बेहिसाब मुनाफा कमाया था। सीएजी के मुताबिक सरकार ने कई फर्म्स को बिना किसी नीलामी के कोयला ब्लॉक आवंटित किए थे। यदि सभी पर इस प्रकार ट्रायल हो तो प्रायः ऐसे ही परिणाम दिखाई देंगे। स्पेक्ट्रम और कोल ब्लाक आवंटन को लेकर यूपीए सरकार की बहुत फजीहत हुई थी। मनमोहन सिंह सरकार ने मामले को दबाने के बहुत प्रयास किये। उसने इसे घोटाला मानने से इनकार कर दिया था। लेकिन अंततः न्यायपालिका ने जांच के न केवल निर्देश दिए। सरकार की नीयत पर अविश्वास दिखाई दिया तो, सुप्रीम कोर्ट ने जांच को अपनी निगरानी में ले लिया।
कोयला घोटाले पर तो उसने जांच रिपोर्ट तत्कालीन सरकार को न दिखाने के निर्देश दिए थे। इसके बाबजूद तत्कालीन कोयला मंत्री अश्विनी महाजन पर रिपोर्ट देखने का आरोप लगा था। इस पर कोर्ट की नाराजगी के चलते उन्हें मंत्रिपद छोड़ना पड़ा था। अश्विनी को मनमोहन सिंह का करीबी माना जाता था। चर्चा थी कि सरकार किसी विशिष्ट व्यक्ति को आरोप से बचना चाहती थी। तत्कालीन सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा भी इस मसले पर न्यायिक प्रक्रिया का सामना कर रहे है। मनमोहन सिंह को नीलामी से कोल ब्लाक आवंटन की सलाह दी गई थी। तब कोयला मंत्रालय मनमोहन सिंह के ही पास था। गड़बड़ी के सर्वाधिक आरोप उसी समय लगे थे। लोकलेखा समिति की जांच भी प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंच रही थी। इसमें विपक्षी सांसदों का बहुमत था। इसके बल पर जांच को आगे बढ़ने से रोका गया था। कोयला ब्लॉक आवंटन में इतनी गड़बड़ी का प्रतिकूल प्रभाव निवेश और संबंधित उद्योग पर भी पड़ा था। मनमोहन सिंह सरकार की विश्वसनीयता भी रसातल में जा रही थी।
नरेंद्र मोदी सरकार ने कोयला ब्लॉक आवंटन को पारदर्शी बनाया। इससे सरकारी कोष को बड़ा फायदा हुआ। यह नहीं भूलना चाहिए कि इस मामले में मनमोहन सरकार सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी के बाद नरम पड़ी थी। सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में अटॉर्नी जनरल ने स्वीकार किया था कि कोल ब्लॉक आवंटन में कुछ न कुछ गलत जरूर हुआ है। इसे और सही तरीके किया जा सकता था। इसके पहले सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार से पूछा था कि वह बताए कि क्या इन आवंटनों को रद्द कर दोबारा आवंटन किया जा सकता है। कंपनियों ने बिना सभी क्लियरेंस के खुद निवेश किए हैं। तब तत्कालीन महाधिवक्ता जी.ई. वाहनवती ने बताया था कि कोल ब्लॉक में इन कंपनियों ने दो लाख करोड़ का निवेश किया है। क्लियरेंस के नाम पर लाइसेंस कैंसल करना मुश्किल काम है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ये कंपनियां इसका खामियाजा खुद भुगतेंगी, इस बात के मायने नहीं है कि इन्होंने कितना निवेश किया है। जाहिर है कि यह पूरा मामला मनमोहन सिंह सरकार को कठघरे में पहचाने वाला था। तत्कालीन कोयला सचिव को मिली सजा मनमोहन सिंह के लिए भी शर्मिंदगी का विषय होना चाहिए। क्योंकि यह जिस दौर का मसला है, उसमें कोयला मंत्रालय उन्हीं के पास था।
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