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Thursday, 23 May 2019

आखिर ढह गई जात-पात की दीवारें!

राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान, क्षेत्रीय प्रलोभन से किनारा कर जनता का स्पष्ट जनादेश

क्षेत्रीय दलों की ‘खिचड़ी सरकार’ से ऊब गई है जनता

जाति-बिरादरी के फैक्टर से आगे बढ़ी यूपी-बिहार की जनता

रवि गुप्ता
लखनऊ। 17वीं लोकसभा के गठन का पूर्ण व स्पष्ट जनादेश बीजेपी नीत एनडीए गठबंधन को मिल गया। कहा तो यह भी जा रहा है कि मोदी ने एक तरह से पंडित नेहरु और इंदिरा गांधी की बराबरी कर ली जिनकी करिश्माई अगुवाई में कोई पार्टी दोबारा रिकॉर्ड मतों व सीटों के साथ सत्ता में वापस आयी। मगर राजनीतिक जानकारों की मानें तो इस लोकसभा चुनाव में जो सबसे बड़ा व सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिला, वो यह रहा कि जनता-जनार्दन ने जात-पात के मकड़जाल से बाहर निकलते हुए अपने मताधिकार का प्रयोग किया। यानी इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं दिख रहा है कि इस चुनाव में अधिकांश जनता ने जाति-बिरादरी और क्षेत्रीय मुद्दों से आगे बढ़कर राष्ट्रीय मुद्दों को तरजीह देते हुए मतदान किया है।
अबकी बार उसी जनता ने क्षेत्रीय दलों वाली ‘खिचड़ी सरकार’ के पांच साल तक चलने वाली उठापटक वाली राजनीति से किनारा कर लिया। देश की जनता ने राष्ट्रीय अस्मिता व एजेंडे को लेकर चलने वाले दल को अगले पांच साल तक शासन का मौका दिया। ऐसे में वो बीजेपी के बजाये कांग्रेस भी हो सकती थी।
इस मुद्दे पर वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हेमेंद्र प्रताप तोमर का कहना है कि आखिरकार बदलाव की चाभी तो जनता के पास ही रहती है, हां यह तय नहीं होता है कि वो उसे कब और कैसे घुमायेगी। उन्होंने कहा कि जिस कदर बीते कुछ समय से भारतीय राजनीति पर जात-पात का कल्चर हावी हो गया था, उससे यही लग रहा था कि अब लोकतंत्र खतरे में है। लेकिन अबकी चुनाव में नेताओं के बजाये जनता ने धीरे से उनकी नब्ज टटोली, अपना मत बदला और एकसाथ आकर जातिगत राजनीति की जड़ को उखाड़कर फेंक दिया।
वहीं यूपी की बात करें तो देश में सबसे अधिक 80 लोकसभा सीटों वाले इस हिन्दी भाषी राज्य में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। इस चुनाव के ठीक पहले जिस प्रकार से दो बेमेल वाली पार्टियों सपा-बसपा का राजनीतिक आनन-फानन में मेल हुआ, उसके पीछे कहीं न कहीं प्रदेश के जातीय समीकरण को साधने की कोशिश थी। वैसे भी राजनीति की दुनिया में यही कहा जाता है कि यहां पर सब कुछ संभव है। मगर प्रदेश में सपा-बसपा की जातिगत गठबंधन वाली राजनीति को वोटरों ने एक तरह से नकार दिया और जमीनी व जरूरी मुद्दों को मन-मस्तिष्क में रखकर वोटिंग की। गौर हो कि जब भी लोकसभा का चुनाव होता है तो राजनीतिक पटल पर यही चर्चा अपने आप सुर्खियों में आ जाती है कि…दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर ही तय किया जा सकता है, यानी देश के प्रधानमंत्री के नाम पर अंतिम मुहर यही प्रदेश लगाता है।

लेकिन साथ ही उत्तर प्रदेश को लेकर यह भी कहा जाता रहा कि यहां की राजनीति सीधे तौर पर जातिगत समीकरण पर आधारित है, यानी कोई दल या प्रत्याशी चाहकर भी इससे अलग होकर यहां पर अपनी राजनीतिक जमीन नहीं बना सकता। इतना ही नहीं कुछ ऐसी ही स्थितियां यूपी से सटे बिहार राज्य में भी काबिज रहीं, जहां पर लम्बे समय तक केवल और केवल जातिगत फैक्टर को फोकस में रखकर राजनीति की गई। मगर इस बार वहां पर भी लोगों ने क्षेत्रीय दुर्भावना व प्रलोभन से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हित के मद्देनजर मतदान किया और जाति आधारित राजनीति करने वाले लोगों को धराशायी कर दिया।

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