श्लोक : गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
भावार्थ : गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ।
श्लोक : धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः । तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥
भावार्थ : धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।
श्लोक : निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते । गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥
भावार्थ : जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं ।
श्लोक : नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ । गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥
भावार्थ : गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पे बैठना चाहिए । गुरु आते हुए दिखे, तब अपनी मनमानी से नहीं बैठना चाहिए।
श्लोक : किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च । दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
भावार्थ : बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है ।
श्लोक : प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा । शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
भावार्थ : प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है ।
श्लोक : गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते । अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥
भावार्थ : ‘गु’कार याने अंधकार, और ‘रु’कार याने तेज; जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है ।
श्लोक : शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च । नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
भावार्थ : शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए ।
गुरु और शिष्य का रिश्ता ऊर्जा पर आधारित होता है। वे आपको एक ऐसे आयाम में स्पर्श करते हैं, जहां आपको कोई और छू ही नहीं सकता। इसी भाव से हिन्दू धर्म ग्रन्थों में गुरु की अलौकिक महिमा गायी गयी है। संस्कृत साहित्य से भक्ति काल के हिन्दी कवियों ने अव्यक्त ब्रह्म के पद पर—और किन्हीं ने उनसे श्रेष्ठतर−आसीन कराया है। जैसे:–
ध्यानमूलं गुर्रुमूर्तिम पूजा मूलं गुरुर्पदम्। मन्त्र मूलं गुरुर्वाक्यम् मोक्ष मूलं गुरु कृपा॥
गोस्वामी तुलसीदास जी रामायण का प्रारम्भ मात्र गुरु वन्दना से करते हैं। वन्दना भी गुरुदेव का नहीं, उनके ‘पद पद्म परागा’ का। इतना साहस कहाँ कि गुरुदेव भर की पूजा करें, जब उनके चरण भी नहीं, उसके रज कण में संजीवनी बूटी की महत्ता है, बल्कि जो ‘शम्भु तनु विभूति’ के समान विमल है। ‘मानस’ में उस रज कण के अलौकिक गुणों का अवलोकन किया जा सकता है। वे गुरुजी कैसे हैं!
“कृपा सिन्धु नर रूप हरि।” बल्कि भक्त शिष्य के दृष्टिकोण से उनमें एक विशेषता भी है कि “महा मोह तमपुञ्ज, जासु वचन रविकर निकर।” स्वयं हरि किसी साधक में अज्ञानतम दूर करने की प्रेरणा देते हैं, परन्तु गुरुदेव तो स्वयं सूर्य के समान उसका कारण बन जाते हैं। बल्कि हरि की पहचान करवाने की शक्ति अथवा कला गुरु के पास ही है:—
वन्दे बोधमंय नित्य गुरुं शंकर रुपिणाम्। याम्यां विना न पश्यन्ति योगिनः स्वान्तस्थमीश्वरम्॥
यहाँ गुरु का एवं शंकर की एक पद मर्यादा तथा एक कार्यभार हो गया है। बिना इन दोनों की कृपा के योगी अपने हृदय में स्थित ईश्वर का भी साक्षात्कार नहीं कर सकते। वस्तुस्थिति का कैसा सच्चा वर्णन है।
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