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Saturday, 23 September 2017

आदिवासी लेखिकाओं से भारतीय साहित्य बहुत परिचित नहीं है

साहित्य अकादमी ने देश में पहली बार झारखंड भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा के सहयोग से अखिल भारतीय आदिवासी लेखिका सम्मेलन का आयोजन किया।
आदिवासी लेखिकाओं से भारतीय साहित्य बहुत परिचित नहीं है। ओड़िया, बांग्ला, तेलुगू, कन्नड़, मराठी आदि प्रादेशिक भाषाओं की उन्हीं महिला साहित्यकारों को देश का साहित्यिक जगत जानता है जिनकी कृतियां हिंदी या अंग्रेजी में अनूदित हैं। जैसे कमला दास, प्रतिभा राय, महाश्वेता देवी आदि। ऐसे में आदिवासी महिला लेखिकाएं जो हिंदी व अंग्रेजी से इतर अनेक आदिवासी भाषाओं में लिख रही हैं उनसे यह देश नावाकिफ है तो इसे पहली नजर में भाषाई दूरी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है। क्या वाकई में यह सिर्फ भाषाई अपरिचय और दूरी का मसला है जिसके कारण भारत का साहित्यिक जगत आदिवासी लेखिकाओं के रचनात्मक अवदान से अपरिचित हैं? या फिर इसके पीछे सांस्कृतिक और राजनीतिक कारण भी है जिसका सवाल देश का आदिवासी समाज औपनिवेशिक काल से अब तक लगातार उठाता आ रहा है।
इस दृष्टि से 7-8 सितंबर 2017 को झारखंड की राजधानी रांची में संपन्न हुआ देश का पहला अखिल भारतीय आदिवासी लेखिका सम्मेलन एक ऐतिहासिक परिघटना है। यह स्थापित कर दिया गया है कि लिखित साहित्य के क्षेत्र में आदिवासियों का प्रवेश आजादी के बाद हुआ है। आजादी से पूर्व वे शिक्षा और विकास की पहुंच से दूर थे। स्वतंत्रता के बाद ही उन्हें शिक्षित होने का अवसर मिला। आदिवासी समुदाय जागरूक हुए और अस्सी-नब्बे के दशक से वे लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हुए। परंतु रांची में आयोजित अखिल भारतीय आदिवासी लेखिका सम्मिलन इस मिथ्या अवधारणा को नकारता है क्योंकि इसका आयोजन हिंदी की पहली आदिवासी लेखिका एलिस एक्का(1917-2017) की जन्मशताब्दी के अवसर पर हुआ था। 8 सितंबर 1917 को जन्मी एलिस एक्का पचास-साठ के दशक में हिंदी कहानियां लिखती थीं।
अंग्रेजी साहित्य में ग्रेजुएट एलिस ने कहानियां लिखने के साथ खलील जिब्रान को भी हिंदी में अनुवादित किया है। यही नहीं, जिस सभागर में दो दिनों तक आदिवासी लेखिकाओं का सम्मिलन चला, उसका नाम सुशीला सामद को समर्पित किया गया था। एलिस की तरह ही मुंडा आदिवासी समुदाय की सुशीला 1925 में हिंदी की साहित्यिक पत्रिका ‘चांदनी’ का प्रकाशन-संपादन करती थीं और इनका पहला हिंदी काव्य-संग्रह ‘प्रलाप’ 1934 में छप चुका था। ‘प्रलाप’ की भूमिका तत्कालीन ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक देवीदत्त शुक्ल ने लिखी थी। यानी आदिवासी लोग, जिनमें महिलाएं भी समान रूप से शामिल हैं, बीसवीं सदी की शुरुआत से ही साहित्य रचना में संलग्न थे। अपनी आदिवासी भाषाओं के साथ-साथ हिंदी में भी। इसलिए यह कहना कि आदिवासी नब्बे के दशक से लिख रहे हैं और भाषाई दूरी के कारण भारत का साहित्यिक जगत उनसे वाकिफ नहीं है, तथ्यसंगत नहीं है।
देश के साहित्यिक जगत में आदिवासी महिला रचनाकारों का रांची में हुआ यह पहला जुटान कई लिहाज से उल्लेखनीय है। पहली बात तो यही कि इसका आयोजन झारखंड की स्थानीय सामुदायिक संस्था झारखंड भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा के सहयोग से साहित्य अकादमी ने किया। अपने 62 सालों के इतिहास में इससे पहले साहित्य अकादेमी ने किसी आदिवासी लेखक की न तो जन्मशती मनायी और न ही उसने आदिवासी लेखिकाओं के साहित्यिक अवदान पर कोई कार्यक्रम आयोजित किया। हमें जानना चाहिए कि देश की विभिन्न भाषाओं के साहित्यिक विकास के लिए साहित्य अकादमी के गठन का प्रस्ताव 1944 में रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल ने भारत सरकार को दिया था। इसी प्रस्ताव के आलोक में 12 मार्च 1954 को साहित्य अकादमी औपचारिक रूप से अस्तित्व में आई, लेकिन आज तक अकादमी सिर्फ आठवीं अनुसूची में दर्ज भाषाओं के साहित्य तक ही सीमित रही है। आदिवासी भाषाएं और उनके वाचिक-लिखित साहित्य, जिनको संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार संरक्षण और विकास के समुचित अवसर मिलने चाहिए पर साहित्य अकादेमी ने अधिक ध्यान कभी नहीं दिया।
ऐसे में अकादमी द्वारा एलिस एक्का की जन्मशती पर दो दिवसीय अखिल भारतीय आदिवासी लेखिका सम्मेलन का आयोजन किया जाना स्वागतयोग्य तो है ही, यह इस बात का भी संकेत है कि आदिवासी सृजन और साहित्य की उपेक्षा अब संभव नहीं है। पहले आदिवासी लेखिका सम्मिलन में राजस्थान, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, ओडिशा, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड सहित 12 राज्यों से 40 से ज्यादा आदिवासी लेखिकाओं ने भागीदारी की। इनमें तमिलनाडु के नीलगीरी पहाड़ पर 1000 से भी कम जनसंख्या वाले टोडा आदिवासी समुदाय की पहली ग्रेजुएट साहित्यकार के. वासमल्ली हैं, तो शिलांग के नॉर्थ हिल यूनिवर्सिटी में खासी भाषा की विभागाध्यक्ष प्रोफेसर स्ट्रीमलेट डखार, जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, रांची विश्वविद्यालय, रांची में खड़िया भाषा विभागाध्यक्ष डॉ. रोज केरकेट्टा, सिदो-कान्हू मुमरू विश्वविद्यालय की पूर्व प्रो-वाइस चांसलर डॉ. प्रमोदिनी हांसदा और बारीपदा कॉलेज में ओड़िया साहित्य की विभागाध्यक्ष व संताली की सुप्रसिद्ध लेखिका डॉ. दमयंती बेसरा भी हैं।
सुदूर त्रिपुरा के मोग आदिवासी समुदाय की वरिष्ठ लेखिका क्रैरीमोग चौधरी थीं तो गुजरात के बंजारा आदिवासी समुदाय की इंदुमती लमाणी और नवोदित कवयित्री सोनाली राठवा भी इस सम्मिलन में शामिल थीं। झारखंड के असुर समुदाय की सुषमा असुर, अरुणाचल की जोराम यालाम नाबाम, कर्नाटक की एस. रत्नम्मा, कलिम्पोंग-दार्जिलिंग की शोभा लिम्बू जैसी अनेक वरिष्ठ और युवा आदिवासी लेखिकाओं की उपस्थिति इस सम्मिलन में थी। कहने की जरूरत नहीं कि भारत में सुशीला सामद (1909), एलिस एक्का(1917) जैसी अनेक आदिवासी लेखिकाएं हैं जिन्होंने अपने सृजनात्मक साहित्य लेखन से भारतीय साहित्य के विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया है, लेकिन आदिवासी महिलाओं के लेखन पर किसी की नजर नहीं जाने से वे अंधेरे में रह गईं और भारतीय साहित्य उनके समृद्ध साहित्य से वंचित रह गया। इन लेखिकाओं ने समवेत स्वर में सामूहिकता और सहजीविता वाले आदिवासी दर्शन को अपने साहित्य सृजन का मूल माना और कहा कि आदिवासियों का अस्तित्व जल जंगल जमीन व प्रकृति से अभिन्न रूप से जुड़ा है।
-एजेंसी

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