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Thursday, 30 November 2017

मुल्‍ला नसरुद्दीन और उसके कपड़े

पूरी मनुष्य जाति ऐसी मुसीबत में फंसी है। एक गलत सिलसिला शुरू हो जाता है तो हर कदम पर और बढ़ता ही जाता है। जितना हम उसे सुलझाने की कोशिश करते हैं, वह उतना ही उलझता जाता है। यह बात धर्म पर भी खरी उतरती है और सामान्‍य व्‍यवहार में भी।
एक समय आता है जब हम गलत सिलसिले को ही सही मानकर दोहराते रहते हैं क्‍योंकि वह हमारे अवचेतन का हिस्‍सा बन जाता है।
मुल्‍ला नसरुद्दीन एक शाम अपने घर से निकला। उसे किन्हीं मित्रों के से मिलने उनके घर जाना था। वह चला ही था कि दूर गाँव से उसका एक दोस्त जलाल आ गया। नसरुद्दीन ने कहा, “तुम घर में ठहरो, मैं जरूरी काम से दो-तीन मित्रों को मिलने जा रहा हूँ। लौटकर तुमसे मिलूंगा। अगर तुम थके न हो तो मेरे साथ तुम भी चल सकते हो”।
जलाल ने कहा, “मेरे कपड़े सब धूल-मिट्टी से सन गए हैं अगर तुम मुझे अपने कपड़े दे दो तो मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ। तुम्हारे बगैर यहां बैठकर मैं क्या करूंगा? इसी बहाने मैं भी तुम्हारे मित्रों से मिल लूँगा”।
नसरुद्दीन ने अपने सबसे अच्छे कपड़े जलाल को दे दिए और वे दोनों निकल पड़े।
जिस पहले घर पर वो दोनों पहुंचे वहां नसरुद्दीन ने कहा, “मैं इनसे आपका परिचय करा दूं, ये हैं मेरे दोस्त जलाल। और जो कपड़े इन्होंने पहने हैं वे मेरे हैं”।
जलाल यह सुनकर बहुत हैरान हुआ। इस सच को कहने की कोई भी जरुरत न थी। बाहर निकलते ही जलाल ने कहा, “कैसी बात करते हो, नसरुद्दीन! कपड़ों की बात उठाने की क्या जरूरत थी? अब देखो, दूसरे घर में कपड़ों की कोई बात मत उठाना”।
वे दूसरे घर पहुंचे। नसरुद्दीन ने कहा, “इनसे परिचय करा दूं, ये हैं मेरे पुराने मित्र जलाल। रही कपड़ों की बात, सो इनके ही हैं, मेरे नहीं हैं”।
जलाल फिर हैरान हुआ। बाहर निकलकर उसने कहा, “तुम्हें हो क्या गया है? इस बात को उठाने की कोई क्या जरूरत थी कि कपड़े किसके हैं? और यह कहना भी कि इनके ही हैं, शक पैदा करता है, तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?”
नसरुद्दीन ने कहा, “मैं मुश्किल में पड़ गया. वह पहली बात मेरे मन में गूंजती रह गई, उसकी प्रतिक्रिया हो गई। गलती हो गई।
जलाल ने कहा, “अब ध्यान रखना कि इसकी बात ही न उठे. यह बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए”।
अब वो तीसरे मित्र के घर पहुंचे। नसरुद्दीन ने कहा, “ये हैं मेरे दोस्त जलाल। जहां तक सवाल इनके कपड़ों का है तो इस मुद्दे को उठाना उचित नहीं है”।
इसके बाद नसरुद्दीन ने जलाल से मुखातिब होकर कहा, “ठीक है न, कपड़ों की बात उठाने की कोई ज़रुरत ही नहीं है। कपड़े किसी के भी हों, इससे फर्क क्‍या पड़ता है, मेरे हों या इनके हों। यहां कपड़ों की बात उठाने का कोई मतलब नहीं है”।
बाहर निकलकर जलाल ने कहा, “अब मैं तुम्हारे साथ और नहीं जा सकूता। मैं हैरान हूं, तुम्हें हो क्या गया है?”
नसरुद्दीन बोला, “मैं अपने ही जाल में फंस गया हूं. मेरे भीतर, जो मैं कर बैठा, उसकी प्रतिक्रियाएं हुई चली जा रही हैं। मैंने सोचा कि ये दोनों बातें भूल से हो गयीं, कि मैंने अपना कहा और फिर तुम्हारा कहा। तो मैंने तय किया कि अब मुझे कुछ भी नहीं कहना चाहिए, यही सोचकर भीतर गया था लेकिन बार-बार यह होने लगा कि यह कपड़ों की बात करना बिलकुल ठीक नहीं है. और उन दोनों की प्रतिक्रिया यह हुई कि मेरे मुंह से यह निकल गया और जब निकल गया तो समझाना जरूरी हो गया कि कपड़े किसी के भी हों, क्या लेना-देना”।

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