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Wednesday, 29 August 2018

राजनीति में अपराधीकरण: पार्टियों की रहस्यमयी चुप्पी के निहितार्थ!

बीते सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रकरण की सुनवाई के दौरान, ’’राजनीति में अपराधीकरण को ’सड़ांध’ बताते हुए यह कहा कि वह चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों से उसके सदस्यों पर दर्ज आपराधिक मामलों पर खुलासा करने के लिए निर्देश देने के लिए विचार कर सकता है ताकि मतदाताओं को पता चल सके कि विभिन्न राजनीतिक दलों में कैसे कथित अपराधी मौजूद हैं’’। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय पीठ द्वाररा व्यक्त यह टिप्पणी तब आई, जब केन्द्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट को बताया गया कि सांसदों को अयोग्य ठहराने का मुद्दा भारतीय संसद के अधीन है।

वाद की सुनवाई के अवसर पर पीठ ने यह इंगित किया कि हम संसद को कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकते परन्तु ऐसे में सवाल यह उत्पन्न होता है कि भारतीय राजनीतिक दलों में व्याप्त इस ’सड़ांध’ को प्रभावी तरीके से रोके जाने के लिए आखिरकार क्या कुछ कर सकते हैं। चीफ जस्टिस की इस पीठ में जस्टिस आर0एफ0 नरीमन, ए0एम0 खान विलकर, डी0वाई0 चन्द्रचूड़ और इन्दु मल्होत्रा सम्मिलित हैं। विविध गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे व्यक्तियों को भारतीय चुनावी राजनीति में शामिल होने की इजाजत नहीं दिये जाने की मांग करने वाली जनहित याचिकाओं (पी0आई0एल0) पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की प्रश्नगत पीठ ने याचिकाकर्ता के अधिवक्ता कृष्णन वेणुगोपाल के दिये गये सुझाव पर भी संज्ञान लिया जिसमें उन्होंने यह अनुरोध किया कि सुप्रीम कोर्ट भारतीय चुनाव आयोग को यह निर्देश निर्गत कर सकता है कि आयोग राजनीतिक दलों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को चुनाव लड़ने हेतु टिकट नहीं दिये जाने का प्रावधान कर सके। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इस संबंध में कई याचिकाएॅं लम्बित हैं, जिनमें गम्भीर अपराध में आरोप तय होने की स्थिति में व्यक्ति को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराये जाने की मांग की है।

विगत सप्ताह एक अन्य प्रकरण की सुनवाई के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को यह जानकारी दिये जाने हेतु निर्देशित किया है कि दागी नेताओं के खिलाफ देश के विभिन्न राज्यों में लम्बित मुकदमों के निपटारे के लिए अब तक कितने विशेष कोर्ट बनाये गये हैं? उल्लेखनीय है कि बीत साल 14 दिसम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे प्रकरणों के निपटारे के लिए 12 विशेष अदालत गठित किये जाने हेतु निर्देशित किया था। विगत 01 मार्च को सुनवाई के दौरान ऐसी विशेष अदालतों को सुनवाई शुरू किये जाने हेतु भी इंगित किया गया था। जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस नवीन सिन्हा की पीठ ने केन्द्र सरकार को यह बताने के लिए कहा कि प्रस्तावित विशेष अदालत आखिरकार किस स्वरूप में होंगी अर्थात् यह सेशन कोर्ट हैं या फिर मजिस्ट्रेट कोर्ट? सुप्रीम कोर्ट ने इन विशेष अदालतों के निर्धारित अधिकार क्षेत्र और इनके अन्तर्गत लम्बित मामलों की जानकारी भी चाही है।

ज्ञातव्य है कि इस प्रकरण की सुनवाई के दौरान विगत 01 नवम्बर को पीठ ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि दागी 1581 सांसद व विधायकों के खिलाफ दर्ज कितने मुकदमों का निपटारा मार्च 2014 के आदेश के तहत निर्धारित समयावधि 01 वर्ष के भीतर किया गया। कितने प्रकरणों में आरोपी सांसद या विधायक बरी हुए और कितने मामलों में सजा निर्धारित की गयी? सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से सभी अपेक्षित जानकारी 28 अगस्त को प्रस्तुत किये जाने का निर्देश दिया था।

28 अगस्त 2018 को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भारत निर्वाचान आयोग ने केन्द्र सरकार से उलट नजरिया अपनाते हुए गम्भीर अपराधों में आरोप तय होने पर व्यक्ति को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराये जाने की मांग का पुरजोर समर्थन किया है। ज्ञातव्य है कि भारत निर्वाचन आयोग ने 1997 में और विधि आयोग ने 1999 में भारत सरकार को अपनी संस्तुति प्रेषित करते हुए यह अपेक्षा की थी कि मौजूदा जनप्रतिनिधित्व कानून में त्वरित संशोधन कर गम्भीर अपराध में आरोपित व्यक्ति को उत्तरदायी होने की स्थिति में चुनाव लड़ने से सर्वथा अयोग्य घोषित किया जा सके। चुनाव आयोग ने यह तथ्य रखा है कि आयोग एवं केन्द्रीय विधि आयोग ने केन्द्र सरकार से इस विषय में मौजूदा कानून में संशोधन करने की सिफारिश की थी परन्तु सरकार ने इस संबंध में अनुकूल रूख अख्तियार नहीं किया है।

निर्वाचन आयोग ने यह मन्तव्य भी प्रकट किया है कि बीते दिनों इस संबंध में गठित संसदीय समिति की आख्या में की गयी सिफारिश को भी दरकिनार कर दिया गया है। ऐसी स्थिति में आयोग की यह मंशा है कि यदि भारत सरकार और देश की संसद इस संवेदनशील और राष्ट्रीयहित से जुड़े प्रकरण को पूरी शिद्दत और संजीदगी के साथ नहीं लेती है तो सर्वोच्च न्यायालय को व्यक्तिगत पहल करते हुए इस संबंध में सुस्पष्ट आदेशित करना चाहिए। आखिरकार देश के 125 करोड़ से ज्यादा नागरिकों के हितों से प्रत्यक्षतः जुड़े इस मसले को प्राथमिकता के आधार पर लेते हुए भारतीय मतदाताओं को स्वच्छ छवि के जनप्रतिनिधियों को चुने जाने के हक से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। मौजूदा परिप्रेक्ष्य में पूर्व की सुनवाई के अवसर पर भारत निर्वाचन आयोग ने आपराधिक दोषसिद्ध व्यक्तियों को राजनीतिक दल बनाने अथवा दल का पदाधिकारी बनने पर रोक लगाने वाली याचिका का समर्थन करते हुए सुस्पष्ट पक्ष रखा था कि आयोग के पास राजनीतिक दलों के पंजीकरण को रद्द करने का अधिकार भी संवैधानिक रूप से हासिल होना चाहिए।

विदित हो कि जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा-29-ए में निर्वाचन आयोग को मात्र दलों को पंजीकरण करने का अधिकार देकर आधी ताकत प्रदान की गई है। अपने हलफनामें में आयोग ने कहा था कि वर्ष 1998 में सर्वप्रथम तत्कालीन निर्वाचन आयुक्त ने तत्समय की केन्द्र सरकार के कानून मंत्री को पत्र लिखकर यह अधिकार हासिल करने की पुरजोर गुहार लगाई थी। मात्र पंजीकरण करवाकर कागजों पर अपना अस्तित्व दर्शाने वाले राजनीतिक दलों के प्रति भी एफिडेविट में तीखा कटाक्ष किया गया है। इंगित किया गया है कि अनेक राजनीतिक दलों ने पंजीकरण तो करवाया है किन्तु अद्यतन किसी भी चुनाव में हिस्सा नहीं लिया। फरवरी, 2016 से दिसम्बर, 2016़ के बीच इस तरह के 255 राजनीतिक दलों को पंजीकृत किये गये गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों की सूची से बाहर का रास्ता दिखाया गया है। आयोग का मत है कि ऐसी पार्टी बनाने का मकसद आयकर अधिनियम का फायदा उठाने का भी हो सकता है।

प्रकरण की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इंगित किया कि किसी भी राजनीतिक दल के चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार के आपराधिक ब्यौरे के बारे में जानना आम मतदाता का अधिकार है। जबकि केन्द्र सरकार की ओर से इस मांग का विरोध करते हुए संसद के स्तर से ही कोई कार्यवाही किये जाने और सुप्रीम कोर्ट को दखलंदाजी न किये जाने का तर्क दिया गया है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रकरण की सुनवाई पूरी करते हुए अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है, जो कि आगे सुनाया जा सकता है।

मौजूदा परिदृश्य में भारत में राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए दायर की गई उक्त जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय की पीठ अन्ततः जिस किसी नतीजे पर अपना निर्णय दे यह तो समय बतायेगा किन्तु इस याचिका के सापेक्ष भारत निर्वाचन आयोग द्वारा अपने हलफनामें में दर्शाये गये गंभीर बिन्दुओं और वास्तविकताओं पर पूरे देश में एक सार्थक और सोद्देश्य बहस की पूरी शिद्दत, संजीदगी और साफगोई से जरूरत आन पड़ी है।खेद का विषय है कि गहरे व्याख्यानों के आयोजक हों अथवा तथाकथित प्रगतिशील जमात के अलम्बरदार हों या फिर छोटे-बड़े राजनीतिक दल हों और तो और देश के दोनों बड़े राजनीतिक दल हों कोई भी इस गंभीर विषय पर न तो गंभीरता से विचार करने को तैयार दिखता है और न ही चुनाव आयोग को उसकी मांग के सापेक्ष सशक्त और प्रभावी तथा निर्णायक भूमिका प्रदान करने की संवैधानिक शक्ति प्रदान करने के पक्ष में नजर आ रहा है।

पार्टी विद डिफरेंस के नारे का उद्घोष करने वाली भाजपा को सच में इस अतिमहत्वपूर्ण मुद्दे को अहमियत देकर चुनाव आयोग के हाथ मजबूत करके भारतीय लोकतंत्र को और सुदृढ़ करने का सुप्रयास प्रारंभ करना ही चाहिए। यह समय की मांग है। खेद व विस्मय का विषय है कि चुनाव आयोग पिछले दो दशक से जिन प्रमुख चुनावी सुधारों की मांग करता आया है उन पर देश के विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालय या देश के सर्वोच्च न्यायालय ने बीच-बीच में दायर वादों में हस्तक्षेप करते हुए संजीदगी के साथ चुनाव सुधार को आवश्यक बताते हुए अपना अभिमत व्यक्त किया है। किन्तु देश के नौकरशाहों और विधायिका के कर्णधारों ने अपने कथित निहित स्वार्थों और राजनीतिक दुकान चलाने में एक-दूसरे का कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग व सहभागिता निभाने की दुरभिसंधि के चलते चुनाव सुधार के विषय को सदा बट्टे खाते में ही डालकर रखा है।

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