राजेश माहेश्वरी
पेट्रोल-डीजल की बेतहाशा बढ़ती कीमतों को लेकर कांग्रेस ने भारत बंद का ऐलान किया था। बंद के सहारे विपक्ष जहां मोदी सरकार को सड़क पर घेरने के इरादे से उतरा था, वहीं वह विपक्षी गठबंधन की ताकत को भी तोलना चाहता था। बंद का मिलाजुला असर देखने को मिला। पूरे देश में इस भारत बंद के समर्थन में कांग्रेस के अलावा अन्य 20 राजनीतिक दल सड़कों पर उतरे थे। कैलाश मानसरोवर यात्रा से लौट कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी इस प्रदर्शन में शामिल हुए। राहुल ने राजघाट पहुंच महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी, जिसके बाद उन्होंने विपक्ष के मार्च की अगुवाई की। राहुल गांधी के अलावा यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी रामलीला मैदान पर धरने में शामिल हुए। कांग्रेस की बद की काॅल पर विपक्षी दल इस मुद्दे पर एकजुट दिखाई नहीं दिये। गठबंधन के कई दलों ने खुद इस बंद से दूर रखा।
लोकसभा चुनाव में अभी भले वक्त हो, लेकिन सरकार और विपक्ष दोनों की ओर से रणनीतिक तैयारियां अभी से शुरू हो गई हैं। विपक्ष महागठबंधन बना रहा है ताकि इस बार नरेंद्र मोदी का एकजुट मुकाबला करके उन्हें सत्ता में आने से रोका जाए। उधर सरकार और बीजेपी अपने सवा चार साल के कामकाज और मोदी के नेतृत्व को बेजोड़ मान रही हैं। लेकिन क्या महागठबंधन के आने से वाकई मोदी को कोई बड़ी चुनौती मिल पाएगी? बीजेपी और मोदी सरकार महागठबंधन की काट के लिए क्या उपाय कर रही हैं?
विपक्ष भाजपा को घेरने में कितना कामयाब हो पाएगा ये सवाल भविष्य की गर्त में छिपा है। भाजपा ने भी जमीनी तैयारियों में तेजी से जुट गई है। बीते दो दिनों में एक बात तो स्पष्ट हो गई कि 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की जुगल जोड़ी की अगुआई में ही लड़ेगी। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में संगठन चुनाव टालने का फैसला होने के बाद भाजपा ने चुनावी चुनौती के लिए खुद को तैयार बताते हुए दावों और उम्मीदों के ऊंचे पहाड़ खड़े कर दिए। शाह ने तो 50 साल तक भाजपा शासन के चलने का विश्वास जता दिया वहीं बकौल श्री मोदी विपक्ष अपनी भूमिका में पूरी तरह विफल रहा है।
असल में भाजपा की उम्मीदें विपक्ष द्वारा प्रधानमंत्री के लिए कोई सर्वमान्य चेहरा तय न कर पाने के कारण और बुलंद हो रही हैं। तमाम सर्वेक्षणों में प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत लोकप्रियता अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में बहुत ज्यादा होने से भाजपा को लग रहा है कि 2019 में 2004 के दोहराये जाने की आशंका झूठ साबित होगी और नरेंद्र मोदी फिर एक बार का नारा वास्तविकता में बदल जाएगा। गत दिवस श्री मोदी ने अजेय भारत, अटल भाजपा का नारा उछालकर अपने हौसले का प्रदर्शन किया वहीं अमित शाह ने उपस्थित भाजपा नेताओं को ये भरोसा दिलाया कि विजय सुनिश्चित है। उन्होंने जीत के नुस्खे भी सिखाए ऐसा बताया जा रहा है। इसमें तो कोई दो मत नहीं है कि अटल-आडवाणी की जोड़ी ने जहां भाजपा को कांग्रेस का मुख्य प्रतिद्वंदी बनाया वहीं मोदी-शाह ने उसे अखिल भारतीय स्तर तक विस्तार देकर देश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित करते हुए उन क्षेत्रों तक में मजबूती से खड़ा कर दिया जहां भाजपा का नाम तक लोग नहीं जानते थे।
पूर्वोत्तर में जिस आक्रामक अंदाज में भाजपा ने कदम बढ़ाए वह अमित शाह की दुस्साहसिक राजनीतिक शैली का ही परिणाम रहा। 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में उप्र में भाजपा को मिली अप्रत्यशित सफलता के पीछे श्री शाह की कुशल मैदानी रणनीति ही जिम्मेदार रही वरना तो उस सूबे में भाजपा हॉशिये से बाहर आ चुकी थी । यद्यपि मोदी-शाह की जुगलबंदी को दिल्ली ,बिहार और हाल ही में कर्नाटक रूपी झटके भी लगे लेकिन उसने खोया कम पाया ज्यादा इसलिये भारतीय राजनीति में उनकी धाक और भय दोनों इस कदर व्याप्त हो गए कि सांप-नेवले जैसे रिश्तों वाले सपा-बसपा सरीखे दल भी एक साथ आने पर बाध्य हो गए। बावजूद इसके भाजपा यदि पूरी तरह श्री मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व और श्री शाह की रणनीति के भरोसे निश्चिंत होकर बैठी रही तब भले ही 2004 जैसी स्थिति 2019 में न दोहराई जा सके किन्तु 2014 जैसा चमत्कार भी होना भी असम्भव दिखाई दे रहा है बशर्ते प्रधानमंत्री अपने तरकश से कोई ब्रह्मास्त्र निकालकर विपक्ष को हतप्रभ न कर दें। इस बारे में विचारणीय बात ये है कि तब स्व. अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार के विरुद्ध जनता के मन में ऐसा कोई गुस्सा नहीं था जैसा आज भाजपा समर्थकों के मन में दिखाई दे रहा है । इसकी एक वजह ये भी थी कि वाजपेयी सरकार आसमानी वायदे करके सत्ता में नहीं आई थी । इसके ठीक उलट नरेंद्र मोदी ने अच्छे दिन के नाम पर न जाने क्या दृ क्या करने का वायदा किया जिन्हें अब जुमला कहकर उनका मजाक उड़ता है।
बीते दिनों अनु जाति/जनजाति कानून को लेकर पूरे देश में जो आक्रोश परिलक्षित हुआ उससे ये बात उभरकर सामने आ गई कि प्रधानमंत्री को सत्ता में लाने वाला परंपरागत मतदाता वर्ग भी अपनी नाराजगी व्यक्त करने में किसी तरह का लिहाज नहीं करेगा। हिंदुत्व और प्रखर राष्ट्रवाद के नाम पर धु्रवीकरण का गणित जातिवाद के जाल में उलझता दिख रहा है। पेट्रोल-डीजल की अनियंत्रित कीमतें सरकारी अर्थप्रबन्धन की दिशाहीनता एवम लचरपन को उजागर कर रही है। भले ही विपक्ष का धु्रवीकरण अभी तक आकार न ले सका हो किन्तु उसे हवा में उड़ा देना भी घातक हो सकता है। यही वजह है आज के परिदृश्य में तो मोदी-शाह के आत्मविश्वास को वास्तविक मानना सही नहीं लगता । रास्वसंघ की ओर से भी ये कहा जा रहा है कि 2019 में भी मोदी सरकार की वापिसी होगी क्योंकि जनता प्रधानमंत्री को चाहती है। ये आशावाद आधारहीन नहीं है किंतु उसे भी ये तो मानना होगा कि हिन्दू समाज के भीतर भी इस समय मानसिक द्वंद चल रहा है। यद्यपि अभी भी प्रधानमंत्री की मेहनत और ईमानदारी के प्रति विश्वास कायम है वहीं भाजपा को काँग्रेस से बेहतर मानने की मानसिकता भी खत्म नहीं हुई परन्तु उसमें पहले जैसा भाव नहीं रहा। यही वजह है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा हिंदुत्व के प्रति दिखाया जा रहा रुझान मतदाताओं के एक वर्ग को आकर्षित कर रहा है।
लबोलुआब यही है कि मोदी और अमित शाह मिलकर सब पर भारी पड़ते हैं किंतु कभी-कभी ताकतवर पहलवान भी जरा सी चूक से कमजोर प्रतिद्वंदी से मात खा जाता है और भाजपा को इसी से बचना होगा। संचार क्रांति के इस युग में कुछ महीने भी बहुत होते हैं चुनावी बाजी पलटने के लिए। उस दृष्टि से अभी भी मोदी सरकार को एक कार्यकाल और मिलने की उम्मीद खत्म नहीं मानी जा सकती लेकिन उसकी गारन्टी देना भी सही नहीं है। वहीं विपक्ष खासकर भाजपा को उसी की शैली में सोशल मीडिया से लेकर अन्य मंचों पर जवाब दे रही है। सोशल मीडिया पर विपक्ष अब भाजपा को बराबर की टक्कर दे रहा है। यदि जैसा मोदी-शाह ने कहा वैसा करते हुए 2019 जीतना है तो बिना देर किए ताबड़तोड़ उपाय करने होंगे जिससे जनता का डोलता विश्वास फिर हासिल किया जा सके। चुनावी गणित में महारत रखने वालों को लगता है कि आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री बाजी अपने पक्ष में पलटने के लिए कुछ न कुछ करेंगे लेकिन ये भी सही है कि उनके पास समय कम है। विपक्ष आज भले ही बिखरा हुआ दिखाई दे रहा है, लेकिन अगर भाजपा के खिलाफ हवा बहने लगी तो सत्ता लोलुप दलों को एक साथ आने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।
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