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Tuesday, 23 October 2018

अब सीबीआई की जांच कौन करेगा?

राजेश माहेश्वरी

देश की सबसे प्रतिष्ठित जांच एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के दो सबसे बड़े अधिकारी राकेश अस्थाना और आलोक वर्मा दो करोड़ रुपये घूस के मामले में सुर्खियों में हैं। यह हमारे देश के लिए बहुत बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात है। सीबीआई की साख का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि आम आदमी का भरोसा जब पुलिस से उठ जाता है तो वो सीबीआई जांच की ही मांग करता है। लेकिन धूस काण्ड ने सरकारी तोते की पोल खोलने और ऊपर से नीचे तक फैली भ्रष्टाचार की बेल को सार्वजनिक करने का काम किया है। इस काण्ड की वजह से सीबीआई की साख तो गिरी ही है, वही आम आदमी का विश्वास भी टूटा।

आखिर सीबीआई के भीतर चल रहा युद्ध सडक पर आ ही गया। अप्रत्याशित कदम उठाते हुए सीबीआई ने अपने उप प्रमुख विशेष निदेशक राकेश अस्थाना समेत चार लोगों के खिलाफ मांस कारोबारी मोईन खान को क्लीन चिट देने के मामले में रिश्वत लेने का मुकदमा दर्ज कर ही लिया है। अस्थाना पर आरोप है कि उन्होंने रिश्वत लेकर मांस कारोबारी को क्लीन चिट दी। मोईन पर मनी लांड्रिंग (धन को अवैध रूप से देश से बाहर भेजने) और भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं। इसी मामले में अस्थाना ने भी सीबीआइ निदेशक आलोक वर्मा पर रिश्वत लेने का आरोप लगाते हुए दो महीने पहले कैबिनेट सेक्रेटरी को भी पत्र लिखा था। अब सवाल यह है कि यह बवाल क्यों हो रहा है? इससे जुड़ा एक और सवाल है कि इस शिकायत से जुड़े कागजात बाहर कैसे आये और इसमें किसका हित शामिल है?

अपनी स्थापना के बाद से ही सीबीआई को बड़ी इज्जत की नजर से देखा जाता रहा है। किसी भी बड़े अपराधिक मामले की जांच सीबीआई से करवाने की मांग आम तौर पर सुनाई देती है। स्थानीय पुलिस एवं अन्य जांच एजेंसियों की क्षमता और विश्वसनीयता पर सन्देह की वजह से भी सीबीआई पर लोगों का भरोसा बढ़ा। यद्यपि बड़ी मछलियों को फांसने में इस जांच एजेंसी की सफलता के आंकड़े बहुत संतोषजनक नहीं कहे जा सकते लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि भ्रष्टाचार एवं अन्य संगीन अपराधों के बाकी दोषियों को दंड दिलवाने में इसकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है। नेता भले इसके चक्रव्यूह से निकल आते हों लेकिन नौकरशाहों सहित अन्य लोगों के अपराध की जांच और दंड प्रक्रिया में सीबीआई की भूमिका काफी उल्लेखनीय रही है। हालांकि यह जांच एजेंसी विवादों में भी घिरती रही है। बावजूद इसके सीबीआई को सर्वोच्च जांच एजेंसी का दर्जा हासिल है।

सीबीआई को सरकार तोता की संज्ञा भी मिल चुकी है। खासकर जब भी विपक्ष के किसी नेता पर इसका शिकंजा कसता है तब सत्ता पक्ष पर उसके दुरुपयोग का आरोप लगाया जाना आम बात है। इसके पीछे आधार भी हैं। मसलन मायावती और मुलायम सिंह यादव पर भ्रष्टाचार के जो मामले सीबीआई ने दायर किये थे वे आज तक अंजाम तक नहीं पहुंच सके। केंद्र में सरकार बदलते ही जांच की गति प्रभावित हो जाती है। एक बार तो यूपीए सरकार ने जांच ही खत्म करवा दी जिसे सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर दोबारा खोला गया। लेकिन आज तक ये कोई नहीं बता सकता कि सीबीआई को अब तक उनमें कितनी सफलता मिल पाई। टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोपी ए. राजा का बेदाग छूट जाना सीबीआई की विफलता का बड़ा उदाहरण है। सर्वोच्च न्यायालय भी सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता कहकर उसकी खूब भद्द पीट चुका है।

सही बात ये है कि सीबीआई जिस उद्देश्य से बनाई गई उसकी बजाय उसे छोट-छोटे मामलों में उलझाकर रख दिया गया। राज्य सरकारें भी अपना सिरदर्द टालने के लिए छोटे-छोटे प्रकरण सीबीआई के पास टरका देती हैं। चूंकि सीबीआई के पास पर्याप्त स्टाफ नहीं है इसलिए राज्यों से आईपीएस अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर इसमें भेजे जाते हैं। ये भी बड़ा ही विरोधाभासी और हास्यास्पद है। जिस अधिकारी को राज्य पुलिस में रहते हुए अविश्वसनीय माना जाता है वह सीबीआई में जाते ही ईमानदारी का पुतला बन जाता होगा ये आसान नहीं है। यही कारण है कि भ्रष्टाचार और अनसुलझे आपराधिक मामलों की जांच हेतु रामबाण औषधि मान ली गई सीबीआई में भी धीरे-धीरे ही सही किन्तु वे सभी बुराइयां आती गईं जिनके लिए राज्यों की पुलिस कुख्यात है। इसके मुखिया की नियुक्ति में भी राजनीति होती आई है। वर्तमान निदेशक आलोक वर्मा की नियुक्ति पर भी उंगलियाँ उठीं। देश की इस प्रमुख जांच एजेंसी के भीतर की राजनीति भी समय-समय पर सामने आती रही है।

अब तक जो संस्था दूसरों का पर्दाफाश करती आई थी आज उसी के चेहरे पर कालिख पुत रही है वह भी उसके उच्च पदस्थ अधिकारियों द्वारा ही। इस मामले में श्री अस्थाना और श्री वर्मा में से कोई एक तो सच होगा ही क्योंकि जिस गवाह के बयान से मामला बनाया गया उस पर दबाव के आरोप भी लग सकते हैं। इस बारे में रोचक बात ये है कि केंद्र सरकार के कैबिनेट सचिव के पास महीनों पहले पहुंची लिखित शिकायत के बाद मामला दर्ज कराने में इतना समय कैसे लग गया? यद्यपि प्रथम दृष्टया तो श्री अस्थाना पर शिकंजा कस गया है जिसका पूर्वानुमान उन्हें हो चुका था तभी उन्होंने अपने उच्च अधिकारी के विरुद्ध पहले ही शिकायत भेज दी थी। इस प्रकरण में सच झूठ का पता तो गहन जांच के बाद में चलेगा किन्तु इससे सीबीआई की पोल खुल गई है।

इसके पहले भी इस तरह की घूसखोरी के मामले सामने आए थे। सीबीआई के अनेक छोटे बड़े कर्मचारी-अधिकारी पकड़े भी गए लेकिन निदेशक और विशेष निदेशक के पद पर आसीन अधिकारी पर इतने संगीन आरोप लगना बेहद चिंताजनक है क्योंकि इस प्रकरण से सीबीआई की तथाकथित पवित्रता तार-तार होकर रह गई है। घूस श्री अस्थाना ने खाई या श्री वर्मा सहित और लोगों ने भी ये तो अदालत में ही साबित होगा लेकिन सीबीआई को भी बिकाऊ कहने का मौका तो उसके आलोचकों को मिल ही गया।

भ्रष्टाचार के विषाणु भी इसमें प्रविष्ट हो चुके हैं। पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के कारनामे जगजाहिर हो चुके हैं लेकिन जो ताजा प्रकरण सामने आया है उससे सीबीआई की अंदरूनी खींचतान सड़क पर आ गई है। विशेष निदेशक के रूप में इसके दूसरे सबसे बड़े अधिकारी राकेश अस्थाना के विरुद्ध करोड़ों की घूस लेने का प्रकरण दर्ज किया जाना इस बात का संकेत है कि जिस बुराई को दूर करने यह संस्था बनी अब खुद उन बुराइयों से घिर चुकी है। श्री अस्थाना ने भी बाकायदा कैबिनेट सचिव को पत्र लिखकर सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा सहित कुछ अन्य अधिकारियों पर जवाबी आरोप करोड़ों की घूस खाने के लगाए। आरोप-प्रत्यारोप के इस मुकाबले में रॉ के कुछ अफसरों के दामन पर भी छींटे पड़ रहे हैं।

इतनी बड़ी जांच एजेंसी के शीर्ष पदाधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, इतना तो अब आम आदमी भी समझ चुका है। न जाने ऐसे और कितने पदाधिकारी होंगे, जिसकी खबर हम तक नहीं पहुंची होगी। सीबीआइ के इन दो अफसरों में कौन सच बोल रहा है, कौन झूठ, यह तो वही जानें, मगर इतना संदेश तो लोगों में गया ही है कि चाहे नेता-मंत्री हों या अफसर-पुलिस, बहती गंगा में हाथ धोने को सभी व्याकुल हैं, भले की उनका संगठनात्मक और संवैधानिक ओहदा कुछ भी हो। अगर सीबीआइ और रॉ जैसे संस्थानों के शीर्ष अधिकारी आपस में ही ऐसे आरोप लगा रहे हैं, तो जाहिर है, इसका परिणाम भी उतना ही दूरगामी होगा। केंद्र सरकार को इस विवाद में गंभीरता से जरूरी कदम उठाने चाहिए क्योंकि ये महज दो या कुछ अधिकारियों के बीच का मसला नहीं अपितु देश की प्रमुख जांच एजेन्सी की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता का सवाल है। विचारणीय मुद्दा ये है कि जब सीबीआई में शीर्ष स्तर पर इस तरह के गोरखधंधे चल रहे हों तब निचले स्तर पर क्या हो रहा होगा इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।

इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते कि सीबीआई में पदस्थ अधिकारियों के सम्पर्क राजनीति में नहीं है। इस मामले में जिस तरह की पेंचबंदी की गई है उसके तार राजनीति और 2019 में आने वाले आम चुनाव से जुड़े हैं। सीबीआई के दोनों धड़े एक दूसरे के खिलाफ पिछले कई महीनों से शिकायतें करवा रहे हैं। इसमें राजनीति की भी भूमिका साफ दिखाई देती है, जैसे शिकायतों का सार्वजनिक होना। शासकीय पत्रों को मीडिया को उपलब्ध कराना। ये कृत्य भी किसी अपराध से कम नहीं है। इस केन्द्रीय एजेंसी के साथ ही यह उन लोगों पर भी प्रश्न चिन्ह है जिन पर सीबीआई की निगहबानी की जवाबदारी है। जहां तक मोईन कुरैशी का सवाल है, उसके राजनीतिक सम्बन्ध जग जाहिर है। सवाल सीबीआई की गिरती साख का है।

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