नई दिल्ली। साहित्य अकादमी ने ‘देवनागरी लिपि आन्दोलन का इतिहास’ नामक पुस्तक प्रकाशित की है, जिसमें लिपि के लिए अठारहवीं सदी के अंत से लेकर बीसवीं सदी तक लम्बे आन्दोलन को बताया गया है।
क्या आपको मालूम है कि जिस देवनागरी लिपि में आज आप हिन्दी लिखते और पढ़ते हैं, उसके लिए अठारहवीं सदी के अंत से लेकर बीसवीं सदी तक लम्बा आन्दोलन चला था।
इसकी शुरूआत सर विलिंयम जोंस के वर्ष 1784 में प्रकाशित एक लेख से हुई थी तथा ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक मई 1793 में इस लिपि को पहली बार अपनाया था।
यह शोधपूर्ण तथ्य पहली बार प्रामाणिक रूप से ‘ देवनागरी लिपि आन्दोलन का इतिहास’ नामक पुस्तक में सामने आया है, जिसे साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया है ।
बिहार विश्वविद्यालय (मुजफ्फरपुर ) में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त डॉ रामनिरंजन परिमलेंदु द्वारा लिखित इस पुस्तक का लोकार्पण हाल ही में भारतीय सामाजिक विज्ञान संस्थान के अध्यक्ष बी बी कुमार ने किया ।
सात सौ 56 पृष्ठों के इस शोधपरक ग्रंथ से पता चलता है कि देवनागरी लिपि को राजकीय स्तर पर अपनाने के लिए उस ज़माने में लेखकों, पत्रकारों तथा हिन्दीसेवियों को लम्बा संघर्ष करना पड़ा क्योंकि अंग्रेज सरकार के हिमायती रोमन लिपि में ही हिन्दी को लिखे जाने के समर्थक थे तो कई फारसी लिपि के समर्थक थे और कई राजनीतिज्ञ उर्दू लिपि में हिन्दुस्तानी लिखे जाने के हिमायती थे ।
डॉ परिमलेंदु के अनुसार एशियाटिक सोसिएसिटी ऑफ कोलकत्ता के संस्थापक अध्यक्ष सर विलियम जोंस के 1784 एक लेख से देवनागरी लिपि के आन्दोलन का प्रारंभ हुआ था क्योंकि जोंस ने इस लिपि को अन्य लिपियों की अपेक्षा श्रेष्ठ माना था लेकिन खुद सम्पूर्ण एशियायी भाषाओं के लिए रोमन लिपि को ही मान्यता दी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी शासन का संविधान एक मई 1793 में लागू हुआ, जिसके प्रथम अनुच्छेद की तृतीय धारा में देवनागरी लिपि को सरकारी स्वीकृति प्राप्त हुई ।
-एजेंसी
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