सोचिए कि क्या हमारे साथ भी अक्सर ऐसा ही नहीं होता।
”बार” में प्रवेश करते ही मुल्ला नसरुद्दीन को उसके साथियों ने घेर लिया और बधाइयां देने लगे।
दरअसल, मुल्ला की एक धनी चाची मर गई थी और उसने जो वसीयत छोड़ी थी उसमें मुल्ला का भी नाम था।
यह खबर मुल्ला के दोस्तों को मिल चुकी थी इसलिए वह ”बार” में मुल्ला के आने का इंतजार कर रहे थे ताकि बधाइयां देकर उस दिन की पार्टी का खर्च मुल्ला से वसूल सकें।
लेकिन मुल्ला उदास था।
मुल्ला को उदास देखकर एक साथी ने मुल्ला से पूछा- मियां, उदास क्यों हो। क्या तुम्हारी धनी चाची के मरने और उनकी वसीयत में तुम्हारा भी नाम होने की बात सच नहीं है?
इस पर मुल्ला ने बताया कि बातें तो दोनों सच हैं किंतु जरा सोचो कि पिछले आठ वर्षों से मैं उस सनकी बुढ़िया की दर्जनभर बिल्लियों पर इसलिए प्यार जता रहा था कि वसीयत लिखते वक्त मुझे भी याद रखे।
…तो क्या उसने तुम्हें याद नहीं रखा। क्या वसीयत में तुम्हारे नाम उसने कुछ नहीं छोड़ा। एक अन्य साथी ने मुल्ला से जानना चाहा।
मुल्ला ने बताया- उसने याद भी रखा और मरे नाम वसीयत में छोड़ा भी, किंतु वही दर्जनभर बिल्लियां, जिन्हें अब मुझे ताजिंदगी अपने गले में लटकाकर रखना होगा।
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