फ़िल्म जगत के जाने-पहचाने चेहरे टॉम ऑल्टर का शुक्रवार रात निधन हो गया. उन्होंने करीब 300 फ़िल्मों में अभिनय किया था.
पद्मश्री सम्मान से नवाज़े जा चुके टॉम ने फ़िल्मों, धारावाहिकों और थिएटर के अलावा खेल के क्षेत्र में भी अपनी ज़बर्दस्त पकड़ के चलते भारतीय समाज में एक अलग पहचान बनाई थी.
आज से करीब 4 साल पहले जुलाई 2013 में टॉम ऑल्टर ने एक विशेष लेख में अपने करियर, पसंद-नापसंद और तमाम ख्यालातों को कलमबद्ध किया था.
पढ़िए टॉम ऑल्टर का लेख, उन्हीं के शब्दों में…
मेरी पहली फ़िल्म थी-चरस, जिसमें न तो मैं विलेन हूं न अंग्रेज़. मैं धरम जी का बॉस बना था, वो इंटरपोल के अफसर थे. अंग्रेज़ी में एक शब्द नहीं, सभी डायलॉग उर्दू और हिंदी में थे. ये इल्ज़ाम ग़लत है कि मुझे हिंदी फ़िल्मों में सिर्फ़ गोरे आदमी के तौर पर पेश किया गया.
मैंने करीब 250-300 फिल्में कीं. उनमें विलेन और अंग्रेज़ के रोल बमुश्किल 10-15 किए यानी चार-पांच फ़ीसदी. अब लोगों के इस इल्ज़ाम का जवाब देते-देते मेरे बाल सफेद हो गए, बाल उड़ भी गए.
‘शतरंज के खिलाड़ी’ में मैं अंग्रेज़ जरूर था लेकिन वो अंग्रेज़ जो शायरी करता है. जो वाज़िद अली शाह का भक्त है और अंग्रेज़ के सामने वाज़िद अली शाह की तरफ़दारी करता है. जिस फ़िल्म ‘क्रांति’ के लिए मैं इतना बदनाम हूं, उसमें भी आप मेरी ज़बान सुनिए. मैं उर्दू में बात कर रहा हूं. मेरा काम इसका सबूत है.
‘फ़िल्में छोड़ें, मैनेजर बन जाएं’
‘चमेली मेमसाब’ एक फ़िल्म थी. जिसकी पूरी शूटिंग सिलीगुड़ी से कुछ आगे दो तीन चाय बागानों में हुई थी. कुछ एक साल तक शूटिंग चलती रही. उस दौरान एक मज़ेदार बात हुई. मैं फ़िल्म में असिस्टेंट टी एस्टेट मैनेजर बना हूं. तब मुझे दो ऑफर मिले थे.
कुछ लोगों ने कहा कि आप चाय बागान में आइए, फ़िल्म लाइन छोड़िए. वहां मैंने असल में जाना कि चाय के पत्ते की कहानी क्या है, उसे अपनी आंखों से देखा.
‘मेरे खानदान में जिधर देखो शायर हैं’
हमारा जिस खानदान से रिश्ता है, वहां जहां देखो शायर बैठे हैं. मेरे बड़े भाईसाहब इंग्लिश में शायरी करते हैं. मेरे सबसे बड़े चचेरे भाई शायर भी हैं और मशहूर नॉवेलिस्ट भी हैं. मेरी कजिन हैं सू मिलर, वह जानी-मानी नॉवेलिस्ट हैं. मेरी बहन और मां को लिखने का शौक है.
वो जो बीज हैं, वह बचपन में ही पड़ गए थे. चारों तरफ़ शायरी का माहौल था. मगर मैंने शायरी से बगावत भी की. इस चीज़ से कौन बच सकता है, अगर वह आपकी फ़ितरत में शामिल हो.
‘मेरे वालिद इबादत उर्दू में करते थे’
मेरे वालिद साहब पादरी थे, दादा-नाना पादरी थे, चाचा भी पादरी थे, मेरे ससुर पादरी हैं. भारत के उत्तरी इलाक़े में जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार में आज भी जहां इबादत होती है तो ज़्यादातर उर्दू में ही होती है.
इंजीले मुक़द्दस यानी बाइबिल भी उर्दू में ही पढ़ी जाती है. हालांकि अब इन इलाक़ों में धीरे-धीरे हिंदी में इबादत का चलन शुरू हुआ है. तब हम उर्दू पढ़ नहीं सकते थे, लेकिन घर में सुनते थे.
‘खुदा ने इब्तिदा में आसमान और ज़मीन को पैदा किया’ ये हम बचपन से ही सुन रहे थे. आप देखिए कि इबादत का अलग पहलू और रंग होता है और इबादत का बड़ा गहरा असर पड़ता है. बचपन से ही मैं इंजीले मुक़द्दस सुनता आ रहा हूं तो यह ज़िंदगी का हिस्सा बनता चला गया.
‘हम राजेश खन्ना से कम हैं क्या’
एक तो शायरी हमारे खानदान में चारों तरफ मिलेगी और दूसरे टीचर भी कई मिलेंगे. मेरी बेगम साहिबा टीचर हैं, वालिद साहब टीचर रहे. बड़े भाई साहब टीचर हैं, मेरी बड़ी सिस्टर भी टीचर हैं. टीचर के पेशे ने मुझे भी पकड़ लिया.
तब मैं काफ़ी कमसिन था, सिर्फ़ 19 साल का था. तनख्वाह सिर्फ़ 300 रुपए मिलती थी. क्रिकेट खेलते हुए, पढ़ाते हुए, इश्क फ़रमाते हुए वक़्त गुज़रता था. एक मुकम्मल ज़िंदगी थी.
जगाधरी (हरियाणा) में जहां मैं टीचर था, वहां इंग्लिश फिल्में नहीं चलती थीं. हमारे मसूरी में चलती थीं. जगाधरी में ही मेरा रुझान हिंदी फ़िल्मों की तरफ़ हुआ. बस हमने सोचा कि हम राजेश खन्ना से कम हैं क्या. हम भी हीरो बन जाएंगे. सफ़र शुरू हुआ. दो-ढाई साल तक मैंने और काम किए. मसूरी में और अमरीका में काम किया.
इसके बाद फिल्म इंस्टीट्यूट पूना के लिए एडमिशन का फॉर्म भर दिया, पांच रुपए मनीऑर्डर के साथ. मुझे एडमिशन मिल गया. दो साल तक वहां अपने गुरु रौशन तनेजा का शागिर्द रहा. आज भी उनका शागिर्द हूं.
इसके बाद 1974 में मोटरसाइकिल पर बैठकर मैं पूना से बंबई (पुणे से मुंबई नहीं) चला आया. तब शहर के नामों पर अंग्रेज़ों का काफ़ी असर था. तब पूना ही था और बंबई ही था.
‘सहवाग के साथ जो हुआ, वही काका के साथ’
जिस दौर में मैं फ़िल्म लाइन में आना चाहता था, वह उस वक़्त के सबसे बड़े हीरो थे राजेश खन्ना. उनके काम में एक रवानी और एक लहर थी. ख़ुसूसन जब वो रोमेंटिक गाने गाते थे.
देखिए, लिप सिंक कितना मुश्किल काम है. गाना तो कोई और गा रहा है. आपको अपने जज़्बात और अपने होठों की थिरकन को किसी और के जज़्बात और होठों की थिरकन से मिलाना होता है. यह बहुत मुश्किल काम है. मगर जब राजेश खन्ना स्क्रीन पर यह करते थे, तो लगता था कि वही गा रहे हैं, जबकि गा तो किशोर कुमार रहे होते थे.
हालांकि उनका राज सिर्फ़ पांच-छह साल तक ही चला. यह होना ही था, जैसे सहवाग की बैटिंग है. सहवाग को पता ही नहीं था कि बॉल कहां से आएगी. बस मार रहे हैं. राजेश खन्ना जब हीरो बने थे, तो उन्हें पता ही नहीं था कि मैं क्या कर रहा हूं. एक के बाद एक फ़िल्मों में चौका-छक्का लगा रहे थे. जिस तरह सहवाग के साथ हुआ, रिफ़्लेक्स कमजोर हो गए, कुछ मोटे हो गए, वही हमारे काका जी के साथ हुआ.
सबसे बड़ी बात यह है कि जब वह टॉप स्टार थे, तब भी अलग-अलग तरह के रोल किया करते थे. आप सफ़र, ख़ामोशी, आनंद, आविष्कार, हाथी मेरे साथी, बावर्ची जैसी फ़िल्में देखिए. बावर्ची में एक खाकी निक्कर और खाकी जर्सी में पूरी फ़िल्म निकाल दी.
वरना उस ज़माने में हीरो का एक-एक सूट 15-20 लाख रुपए में सिलता था. आराधना शुरुआती फिल्म थी पर उस फिल्म में काका के दो किरदार हैं और दोनों अलग.
‘टॉम वैरी गुड, कीप इट अप’
सन 1974 में जब मैं इंस्टीट्यूट से पास आउट हुआ, तो इत्तेफाक से मुझे गोल्ड मैडल मिला था. अक्टूबर में हमारा कन्वोकेशन था और सत्यजीत रे मुख्य अतिथि थे. तो मैं दो बार स्टेज पर आया. एक बार डिप्लोमा और दूसरी बार गोल्ड मैडल लेने. कन्वोकेशन खत्म हुआ तो वह निकले.
जैसे ही रे साहब मेरे पास से निकले, वैसे ही झुककर अंग्रेजी में कहा – ‘वी शैल बी वर्किंग टुगैदर वेरी सून’. मुझे लगा कि रे साहब ने वास्तव में कुछ कहा या मेरी तमन्ना बोल रही थी. डेढ़ साल बाद मुझे प्रेसीडेंट होटल मुंबई बुलाया गया. एक कमरे में रे साहब बैठे थे. उन्होंने कहा- ‘टॉम यू रिमेम्बर, व्हाट आई टोल्ड यू दैट डे.’
यानी उन्होंने उसी समय फ़ैसला लिया था कि हमारी फ़िल्म में टॉम यह रोल करेगा. उसके बाद जिस बड़े सीन में मैं रिचर्ड एटनबरो के साथ हूं. वो इतना प्यारा लिखा और डायरेक्ट किया कि वीएस नायपाल ने इस सीन के बारे में कहा था कि दिस इज़ लाइक सिंफनी ऑफ म्यूजिक. उस सीन में एटनबरो के साथ हम शूट कर रहे थे.
अमूमन किसी एक शॉट के कम से कम दो-तीन रीटेक होते ही हैं, उससे कम नहीं. मगर हमारे शुरू के 10-12 शॉट में कोई रीटेक नहीं हुआ. रे साहब ने न तो अच्छा कहा और न बुरा. 10-11 शॉट्स के बाद एटनबरो ने मुझसे पूछा- ‘हैव यू वर्क्ड विद रे बिफोर? डू यू थिंक देयर इज़ फ़िल्म इन द कैमरा. ही इज़ नॉट टेकिंग एनी अदर रीटेक. आय थिंक देयर इज़ नो फ़िल्म इन द कैमरा. दिज इज़ रिहर्सल फ़ॉर अस’.
इसके बाद रे साहब ने एटनबरो को बुलाया और उनके कान में कुछ कहा. एटनबरो वापस आकर बोले- ‘यस देयर इज़ फ़िल्म इन द कैमरा.’ तो मैंने पूछा कि मेरी बारी कब आएगी. दो-तीन टेक के बाद मुझे बुलाया गया. महागुरु ने सिर्फ इतना कहा- टॉम वैरी गुड, कीप इट अप.
‘हमने अंग्रेज़ों को पीछे छोड़ दिया’
1947 में हुए बंटवारे का आज भी बहुत ज़बर्दस्त महत्व है हमारी जिंदगी में. मगर हमने कोई सबक़ नहीं लिया. हम अंग्रेज़ों को गाली देते हैं कि डिवाइड एंड रूल उन्होंने शुरू किया, लेकिन हमने तो अंग्रेज़ों को बहुत पीछे छोड़ दिया है.
हमारे नेता वही तो कर रहे हैं. गांधी जी को मारने वाला अंग्रेज़ था या पाकिस्तानी था? इसका दोष हम किसे देंगे? क्या अंग्रेज़ों को देंगे, नहीं अपने आपको देंगे. जब तक हम यह नहीं मानते कि दोषी कौन है, हमारा मुल्क आगे नहीं बढ़ सकता.
हम छिपाते रहेंगे और फिर आग की सूरत में चीजें भड़क जाती हैं और लोग मारे जाते हैं. तारीख को कुरेदने का कोई फायदा नहीं पर तारीख में से सच्चाई निकालने में मेरी दिलचस्पी है.
‘सचिन जो हैं गावस्कर की वजह से’
सचिन के पहले वीडियो इंटरव्यू का पूरा श्रेय सुनील गावस्कर को जाता है. जैसे फ़िल्मों में राजेश खन्ना थे तो स्पोर्ट्स में सुनील गावस्कर थे. जब क्रिकेट छोड़कर वह 1988 में ‘स्पोर्ट्स वीक’ में एडिटर बने तो मैं उसमें लिखा करता था.
शायद जून-जुलाई की बात है. गावस्कर साहब ने बहुत बड़ी बात कही. उन्होंने कहा इस वक़्त मुंबई में सबसे बड़ा बैट्समैन दिलीप वेंगसरकर है और दूसरे नंबर पर हैं सचिन तेंदुलकर. तब सचिन को कोई नहीं जानता था तो मेरे कान खड़े हो गए.
मुझे लगा कि गावस्कर कह रहे हैं तो सचिन ज़रूर खास ही होंगे. ‘स्पोर्ट्स वीक’ ने साल के आख़िर में मुझे कहा कि एक फ़िल्म बनाओ. तो गावस्कर की बात मेरे ज़ेहन में थी. मैंने पहला इंटरव्यू वेंगसरकर का किया, फिर उनसे पूछा कि सचिन कहां मिलेंगे.
उन दिनों सचिन वानखेड़े स्टेडियम में बंबई टीम की नेट प्रैक्टिस में थे. मैं पहली मर्तबा उनसे मिला और दोपहर में उनका इंटरव्यू किया.. लेकिन सचिन आज जो हैं वह गावस्कर की वजह से हैं और गावस्कर जो थे वह विजय मर्चेंट की वजह से थे.
यह मैं बहुत अलग बात कह रहा हूं. एक परंपरा चलती है. गावस्कर यह मानें या न मानें विजय मर्चेंट उनके गुरु थे और सचिन के गुरु हैं सुनील गावस्कर. सचिन ने 15 साल की उम्र में एक इंटरव्यू में कहा भी था कि मैं सुनील गावस्कर और विवियन रिचर्ड्स को गुरु मानता हूं.
‘आईपीएल पोर्नोग्राफ़ी है, चलेगी ही’
आईपीएल एक जीती-जागती मिसाल है कि पिछले 20 साल में हमारे इस महान मुल्क में जो नायाब चीजें हैं उन्हें हमने पैसा बनाने का ज़रिया बनाया है. आईपीएल वालों ने कोई कमाल नहीं किया क्योंकि क्रिकेट तो पहले से चल रहा था.
आप अगर गुल्ली डंडा को लेकर या हॉकी को लेकर आईपीएल चलाइए तो मान जाऊं. क्रिकेट को लेकर चलाना कोई मुश्किल काम नहीं. आपने दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर को फिल्मों से उतारकर अगर टीवी सीरियल में डाल दिया, तो टीवी सीरियल तो चलेगा ही. इसमें कौन सी बड़ी बात है.
आईपीएल को सिर्फ इसलिए कामयाब माना जा रहा है कि उससे पैसा बहुत कमाया जाता है. मैं कहता हूं रोमेंटिक फिल्म बनाइए, बहुत मुश्किल काम है, लेकिन पोर्नोग्राफी बनाइए, बहुत आसान है. पोर्नोग्राफी लोग सबसे ज़्यादा देखते हैं. आईपीएल एक पोर्नोग्राफी है मेरे लिए, वह तो चलेगी ही. लेकिन क्या आप इसे अच्छा मानेंगे. पोर्नोग्राफी चलती है, क्या इसलिए वह अच्छी है.
‘आतंकवाद को हराना है तो जिन्ना से सीखें’
अगर मैं सच कहूं तो इस वक्त दो ऐतिहासिक किरदार हैं, जिन्हें मैं करना चाहता हूं- नेहरू और जिन्ना. इन दोनों पर या तो मैं नाटक करना चाहूंगा या फ़िल्म बनाना चाहूंगा. नेहरू पर आज तक न तो फ़िल्म बनी है और न नाटक हुए हैं.
जिन्ना बहुत विवादित हैं, लेकिन बहुत दिलचस्प आदमी है. उनकी ज़िंदगी से बहुत सीखने को मिलेगा. इतना सेक्युलर आदमी था जिन्ना. वह अतिवादी क्यों बना. अगर हम उस राज़ को समझ सकते, तो अभी जो हमारे चारों तरफ़ चल रहा है, उसे खत्म कर सकते हैं. आतंकवाद को हराना है तो जिन्ना की ज़िंदगी से बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है.
-BBC
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