गुरुदत्त की पुण्‍यतिथि आज: जब देवानंद से पहली बार मिले गुरुदत्त | Alienture हिन्दी

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Tuesday, 10 October 2017

गुरुदत्त की पुण्‍यतिथि आज: जब देवानंद से पहली बार मिले गुरुदत्त

गुरुदत्त की देवानंद से पहली मुलाकात पुणे के प्रभात स्टूडियो में हुई थी. दोनों के कपड़े एक ही धोबी के यहाँ धुला करते थे.
एक बार धोबी ने ग़लती से गुरुदत्त की कमीज़ देवानंद के यहाँ और उनकी कमीज़ गुरुदत्त के यहाँ पहुंचा दी. मज़े की बात ये कि दोनों ने वो कमीज़ पहन भी ली.
जब देवानंद स्टूडियो में घुस रहे थे तो गुरुदत्त ने उनका हाथ मिलाकर स्वागत किया और अपना परिचय देते हुए कहा कि, “मैं निर्देशक बेडेकर का असिस्टेंट हूँ.”
अचानक उनकी नज़र देवानंद की कमीज़ पर गई. वो उन्हें कुछ पहचानी हुई सी लगी और उन्होंने छूटते ही पूछा, “ये कमीज़ आपने कहाँ से ख़रीदी?”
देवानंद थोड़ा सकपकाए लेकिन बोले, “ये कमीज़ मेरे धोबी ने किसी की सालगिरह पर पहनने के लिए दी है. लेकिन जनाब आप भी बताएं कि आपने अपनी कमीज़ कहाँ से ख़रीदी?”
गुरुदत्त ने शरारती अंदाज़ में जवाब दिया कि ये कमीज़ उन्होंने कहीं से चुराई है. दोनों ने एक दूसरे की कमीज़ पहने हुए ज़ोर का ठहाका लगाया, एक दूसरे से गले मिले और हमेशा के लिए एक दूसरे के दोस्त हो गए.
दोनों ने साथ मिलकर पूना शहर की ख़ाक छानी और एक दिन अपने बियर के गिलास लड़ाते हुए गुरुदत्त ने वादा किया, “देव अगर कभी मैं निर्देशक बनता हूँ तो तुम मेरे पहले हीरो होगे.”
देव ने भी उतनी ही गहनता से जवाब दिया, “और तुम मेरे पहले निर्देशक होगे अगर मुझे कोई फ़िल्म प्रोड्यूस करने को मिलती है.”
देवानंद को अपना वादा याद रहा और जब नवकेतन फ़िल्म्स ने ‘बाज़ी’ बनाने का फ़ैसला किया तो निर्देशन की ज़िम्मेदारी उन्होंने गुरुदत्त को दी.
‘बाज़ी’ फ़िल्म हिट साबित हुई और उसने उनके जीवन को बदल दिया. उन्होंने अपने परिवार के लिए पहला सीलिंग फ़ैन ख़रीदा.
इसी फ़िल्म को बनाने के दौरान उनकी ऐसे कई लोगों से मुलाकात हुई जो उनसे ताउम्र जुड़े रहे.
उनमें से एक थे इंदौर के बदरुद्दीन जमालउद्दीन काज़ी, जो बाद में जॉनी वाकर के नाम से मशहूर हुए.
वो बस कंडक्टर की नौकरी करते थे और फ़िल्मों में छोटे-मोटे रोल किया करते थे. बलराज साहनी ने उन्हें गुरु दत्त से मिलवाया था.
वो जॉनी वाकर से इतने प्रभावित हुए कि गुरुदत्त ने उनके लिए ख़ास तौर से रोल लिखवाया. हालांकि, तब तक ‘बाज़ी’ आधी बन चुकी थी.
गीता रॉय से प्यार
‘बाज़ी’ के ही सेट पर उनकी मुलाकात गायिका गीता रॉय से हुई और उन्हें उनसे प्यार हो गया.
उस समय गीता रॉय एक पार्श्व गायिका के रूप में मशहूर हो चुकी थीं.
उनके पास एक लंबी गाड़ी हुआ करती थी, वो गुरुदत्त से मिलने उनके माटुंगा वाले फ़्लैट पर आया करती थीं.
सरल इतनी थीं कि रसोई में सब्ज़ी काटने बैठ जाती थीं. अपने घर से वो ये कह कर निकलती थीं कि वो गुरुदत्त की बहन से मिलने जा रही हैं.
उस दौरान राज खोसला गुरुदत्त के असिस्टेंट हुआ करते थे. उन्हें गाने का बहुत शौक था.
गुरुदत्त के यहाँ होने वाली बैठकों में राज खोसला और गीता रॉय डुएट गाया करते थे और पूरा दत्त परिवार बैठ कर उनके गाने सुनता था.
गुरुदत्त की छोटी बहन ललिता लाजमी याद करती हैं कि वो गुरुदत्त और गीता के प्रेम पत्र एक दूसरे के लिए ले जाया करती थीं.
1953 में गुरुदत्त और गीता रॉय विवाह बंधन में बंध गए.
दरियादिल गुरुदत्त
2003 में जब अंग्रेज़ी पत्रिका ‘आउटलुक’ ने भारत की दस सबसे प्रभावशाली फ़िल्मों के बारे में सर्वेक्षण करवाया तो चोटी की दस फ़िल्मों में से तीन गुरुदत्त की फ़िल्में थीं.
गुरुदत्त की बहन ललिता लाजमी बताती हैं कि वो बचपन से ही बहुत रचनात्मक थे. उन्हें पतंगें उड़ाने का बहुत शौक था और वो अपनी पतंगें ख़ुद बनाया करते थे.
उनके नाम से लगता था कि वो बंगाली थे लेकिन उनका जन्म मंगलौर में हुआ था और उनकी मातृ भाषा कोंकणी थी.
उनको बचपन से ही नाचने का बहुत शौक था इसलिए पंद्रह साल की उम्र में ही वो महान नर्तक उदयशंकर से नृत्य सीखने अल्मोड़ा चले गए.
सोलह साल की उम्र में उन्हें एक मिल में चालीस रुपए माह की टेलीफ़ोन ऑपरेटर की नौकरी मिली.
जब उन्हें पहली तन्ख़्वाह मिली तो उन्होंने अपने अध्यापक को एक भगवत् गीता, मां के लिए साड़ी, पिता के लिए कोट और अपनी बहन ललिता के लिए एक फ़्रॉक ख़रीदी.
ललिता कहती हैं कि जब भी वो गीता के लिए कोई उपहार खरीदते थे तो उनके लिए भी कुछ न कुछ लाया करते थे.
गुरुदत्त भाई बहनों में सबसे बड़े थे और जब उनमें और दूसरे भाई आत्माराम में लड़ाई होती थी तो गुरुदत्त ही उन्हें आकर बचाते थे.
मालिश वाले की कहानी
गुरुदत्त को कोलकाता से ख़ास प्यार था. उनका बचपन वहीं गुज़रा था.
जब वो कोलकाता जाते थे तो गोलगप्पे और विक्टोरिया मेमोरियल के लॉन में बैठकर झाल मुड़ी ज़रूर खाते थे.
एक बार उन्होंने देखा कि चारखाने की लुंगी और एक अजीब सी टोपी पहने, हाथ में तेल की बोतल लिए हुए एक मालिश वाला आवाज़ लगा रहा है.
वहीं से एक रोल ने आकार लिया. ख़ास तौर से एक गाना लिखवाया गया- ‘सर जो तेरा चकराए…’ और उसे जॉनी वॉकर पर फ़िल्माया गया.
बिना संगीत की नज़्म
उसी तरह एक बार गुरुदत्त ने तय किया कि वो साहिर लुधियानवी की एक नज़्म को अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल करेंगे.
रिकार्डिंग की रिहर्सल के लिए तय समय पर मोहम्मद रफ़ी उनके यहाँ पहुंच गए लेकिन संगीतकार एसडी बर्मन का कहीं पता नहीं था.
गुरुदत्त ने रफ़ी से कहा आप संगीत के बादशाह हैं. आप क्यों नहीं बिना संगीत के इस नज़्म को गुनगुना देते.
रफ़ी ने थोड़ी देर सोचा और उस नज़्म को अपनी सुरीली आवाज़ में गाने लगे.
गुरुदत्त ने उसे अपने टेप रिकॉर्डर पर रिकॉर्ड किया और हूबहू अपनी फ़िल्म प्यासा में इस्तेमाल किया.
स्टूडियो में रिकार्ड न होने की वजह से उसकी गुणवत्ता ज़रूर ख़राब हुई, लेकिन सीन में वास्तविकता आ गई.
गुरुदत्त, गीता और वहीदा का प्रेम त्रिकोण
‘प्यासा’ बनने के दौरान गीता और उनके बीच दूरियां आनी शुरू हो गईं. कारण था उनकी अपनी हीरोइन वहीदा रहमान से बढ़ती नज़दीकियाँ.
दोनों के बीच शक़ इस हद तक बढ़ गया कि एक दिन गुरुदत्त को एक चिट्ठी मिली.
उसमें कहा गया था कि, “मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती. अगर तुम मुझे चाहते तो आज शाम को साढ़े छह बजे मुझसे मिलने नारीमन प्वॉइंट पर आओ. तुम्हारी वहीदा.”
जब गुरुदत्त ने ये चिट्ठी अपने दोस्त अबरार को दिखाई तो उन्होंने कहा कि मुझे ये नहीं लगता कि ये चिट्ठी वहीदा ने लिखी है.
दोनों ने इस चिट्ठी का रहस्य जानने की योजना बनाई. अबरार अपनी फ़िएट कार में नारीमन प्वॉइंट पहुंचे और उन्होंने अपनी कार सीसीआई के पास एक गली में पार्क कर दी.
उन्होंने देखा कि गीता दत्त और उनकी दोस्त स्मृति बिस्वास एक कार की पिछली सीट पर बैठी किसी को खोजने की कोशिश कर रही हैं.
पास की बिल्डिंग से गुरुदत्त भी ये सारा नज़ारा देख रहे थे. घर पहुंच कर दोनों में इस बात पर ज़बरदस्त झगड़ा हुआ और दोनों के बीच बातचीत तक बंद हो गई.
बिछड़े सब बारी बारी
गुरुदत्त के मरने से दस दिन पहले उनकी बहन ललिता और उनके पति उनसे मिलने गए थे. उस ज़माने में वो दोनों कोलाबा में रहा करते थे.
उनके यहां एक संगीत सभा हो रही थी जिसमें उस्ताद हलीम जाफ़र खाँ सितार बजाने वाले थे.
वो गुरूदत्त को उस संगीत सभा के लिए आमंत्रित करने गए थे. उस समय गुरुदत्त अपनी फ़िल्म ‘बहारें फिर भी आएंगी’ को अंतिम रूप दे रहे थे.
गुरुदत्त ने कहा कि उन्हें पार्टियाँ पसंद नहीं हैं, इसलिए वो उनके यहाँ नहीं आ पाएंगे लेकिन जल्द ही दोनों साथ-साथ खाना खाएंगे.
लेकिन ऐसा कभी नहीं हो पाया और गुरुदत्त 10 अक्तूबर, 1964 को इस दुनिया से हमेशा के लिए चले गए.
आख़िरी रात
9 अक्तूबर को उनके दोस्त अबरार अलवी उनसे मिलने गए तो गुरु दत्त शराब पी रहे थे. इस बीच उनकी गीतादत्त से फ़ोन पर लड़ाई हो चुकी थी.
वो अपनी ढाई साल की बेटी से मिलना चाह रहे थे और गीता उसे उनके पास भेजने के लिए तैयार नहीं थीं.
गुरुदत्त ने नशे की हालत में ही उन्हें अल्टीमेटम दिया, “बेटी को भेजो वर्ना तुम मेरा मरा हुआ शरीर देखोगी.”
एक बजे रात को दोनों ने खाना खाया और फिर अबरार अपने घर चले गए. दोपहर दिन में उनके पास फ़ोन आया कि गुरुदत्त की तबियत ख़राब है.
जब वो उनके घर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि गुरुदत्त कुर्ता-पाजामा पहने पलंग पर लेटे हुए थे.
पलंग की बगल की मेज़ पर एक गिलास रखा हुआ था जिसमें एक गुलाबी तरल पदार्थ अभी भी थोड़ा बचा हुआ था.
अबरार के मुंह से निकला, गुरुदत्त ने अपने आप को मार डाला है. लोगों ने पूछा आप को कैसे पता?
अबरार को पता था, क्योंकि वो और गुरुदत्त अक्सर मरने के तरीकों के बारे में बातें किया करते थे.
गुरुदत्त ने ही उनसे कहा था, “नींद की गोलियों को उस तरह लेना चाहिए जैसे माँ अपने बच्चे को गोलियाँ खिलाती है…पीस कर और फिर उसे पानी में घोल कर पी जाना चाहिए.”
अबरार ने बाद में बताया कि उस समय हम लोग मज़ाक में ये बातें कर रहे थे. मुझे क्या पता था कि गुरुदत्त इस मज़ाक का अपने ही ऊपर परीक्षण कर लेंगे.
-BBC

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