आज जन्मदिन पर निदा फाज़ली के चंद अशआर…
निदा फाज़ली हिंदी उर्दू की अदबी दुनिया के सितारे थे. उन्होंने बेशक तमाम फिल्मों में गाने लिखे पर उनकी शायरी इससे मटमैली नहीं हुई. उसमें इंसानियत की खुशबू दिनोदिन परवान चढ़ती रही. उनके लफजों में ऐसा मीठापन था कि सुनने वाला किसी धुन में खो जाए.
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए…
जब यह शेर निदा ने एक बार पाकिस्तान में पढ़ा तो इस पर कट्टरपंथियों ने यह कह कर उनका विरोध किया कि क्या बच्चा अल्लाह से बढ़कर है? तब निदा फाजली ने जो उत्तर दिया था वह काबिले गौर था. उन्होंने कहा था, “मस्जिद तो इंसान बनाता है पर बच्चों को खुदा खुद अपने हाथों से रचता है.” मुझे याद आया कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी कहा था कि, “भगवान अब भी बच्चों को धरती पर भेज रहा है. इसका अर्थ यह है कि अभी वह मनुष्य जाति से निराश नहीं हुआ है.”
इंसानियत की खुशबू
निदा फाजली शायरी में डूबे हुए उस शख्स का नाम है जिसकी शायरी, दोहों, गजलों, नज्मों से रसखान रहीम तुलसी गालिब और सूर के पदों की सुगंध आती है. समाज में जिस वक्त फिरकापरस्ती का आलम हो, इंसान इंसान के बीच खाइयां पैदा करने वाली ताकतें फूल फल रही हों, ऐसे में निदा फाजली जैसे शायर मनुष्य की चेतना को इंसानियत की खुशबू से मालामाल कर देते हैं. दिल्ली में जन्मे और ग्वालियर से पढ़ाई करने वाले मुक्तदा हसन के बारे में भला कौन जानता है कि यह शख्स एक दिन निदा बन कर हवाओं में दिलों में चेतना में गूंजेगा और जिसकी आवाज में जिसके शब्दों में खुदा की-सी आवाज़ गूंजेगी. पर कश्मीर के फाजिला इलाके से दिल्ली आ बसे इस परिवार ने निदा पहले शख्स से जिसने अपना नाम बदल कर निदा फाजली रखा यानी फाजिला इलाके की आवाज़ जो आज शायरी की दुनिया में एक भरोसेमंद नाम है. आप दुख में खोए हुए हों तो उनके दोहे आपके जख्मों पर रुई का फाहा रखते हैं. आप परदेस में हो तो घर को याद करके आप उनकी शायरी से दिल बहला सकते हैं.
मैं रोया परदेस में भीगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार…
निदा ने अपने फिल्मी गीतों के सफर की शुरुआत कमाल अमरोही की फिल्म से की और उसके बाद उन्होंने कई फिल्मों के लिए गीत लिखे. शायरी की दुनिया यों तो बहुत व्यापक है. पर शायरी की सदियों की परंपरा जब आधुनिकता की दहलीज पर पहुंचती है तो काफी कुछ बदलता है. इस अर्थ में समाज में चाहे जितनी गिरावट हो, पर अभी भी हर पीढ़ी में शायरों से मुहब्बत करने वाले लोग हैं, जो महफिलों में शायरी सुनना पसंद करते हैं. शायरी में संवेदना का जो गाढा रसायन आज के शायरों में बशीर बद्र, वसीम बरेलवी और मुनव्वर राणा में मिलता है, निदा फाजली में इन सबके तत्व एक साथ नजर आते हैं. निदा में जो सूफियाना अंदाज है वह उन्हें इंसानियत के सबसे मजबूत धागे से जोड़ता दिखाई देता है. जब वे कहते हैं घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए तो औचक बशीर बद्र के इस शेर की याद ताजा हो जाती है…
यहां एक बच्चे के खून से जो लिखा हुआ है उसे पढ़ो
अभी कीर्तन तेरा पाप है अभी मेरा सिजदा हराम है…
और बनारस के रियाज़ बनारसी की गजल के इस शेर की भी –
सदा हुसैन की एक और बात कहती है
गिरे को पहले उठाओ ये ताजिया रख दो
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं…
निदा अपने पिता को बहुत चाहते थे पर यहां के कौमी दंगों के चलते मां-पिता पाकिस्तान चले गए. वे काम की तलाश में मुंबई आए और अदबी रिसालों में लिखने का काम किया. फिल्मों में गाने लिखने का काम तलाशा. पर जब जब अकेलापन सताता वे मां व पिता को बखूबी याद किया करते. एक दोहे में उन्होंने इस दर्द को पिरोया है.
मैं रोया परदेस में भीगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्टी बिन तार…
यहां तक कि पिता के इंतकाल पर जो नज़्म उन्होंने बाद में बुनी वह जैसे पिता के लिए की गई इबादत की तहरीर बन गई. वह नज्म आज भी मिसाल के रूप में पेश की जाती है.
तुम्हारी कब्र पर मैं, फ़ातेहा पढ़ने नहीं आया
मुझे मालूम था, तुम मर नहीं सकते.
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर, जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे? कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था…
पूरी नज्म पढ़ते हुए जैसे पलकों की कोर भीग उठती है-
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिए जब भी कागज कलम उठाता हूं,
तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं…
1969 में उनकी शायरी का पहला संकलन छपा. उसके बाद मोर नाच, खोया हुआ सा कुछ, आंखों भर आकाश, सफर में धूप तो होगी आदि संग्रह छपे. देवनागरी में आने के बाद से वे बेहद लोकप्रिय हुए. लोगों के होठों पर उनकी शायरी खेलने लगी. अपनी आत्मकथा उन्होंने दीवारों के बीच और दीवारों के बाहर नाम से लिखी और संस्मरण की तीन खूबसूरत कृतियां- मुलाकातें, सफर में धूप तो होगी और तमाशा मेरे आगे उन्होंने साहित्य जगत को सौंपी. खोया हुआ सा कुछ पर उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार से नवाज़ा गया.
निदा फाजली हिंदी उर्दू की अदबी दुनिया के सितारे थे. उन्होंने बेशक तमाम फिल्मों में गाने लिखे पर उनकी शायरी इससे मटमैली नहीं हुई. उसमें इंसानियत की खुशबू दिनोदिन परवान चढ़ती रही. उनके लफजों में ऐसा मीठापन था कि सुनने वाला किसी धुन में खो जाए. वे एक तजुर्बेकार इंसान थे. बहुत हिसाबी किताबी वे न थे इसलिए वे किताबी दुनिया से बाहर आने का आहवान करते थे और अपना पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे के फलसफे में यकीन करते हुए इस बात के हामी थे कि इंसान को खुद आगे बढ़ कर हाथ मिलाने को तैयार रहना चाहिए.
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो
फ़ासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढ़ा कर देखो…
साभार: डा. ओम निश्चल (हिंदी के सुपरिचित गीतकार और आलोचक)
The post तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं…निदा फाज़ली appeared first on Legend News: Hindi News, News in Hindi , Hindi News Website,हिन्दी समाचार , Politics News - Bollywood News, Cover Story hindi headlines,entertainment news.
No comments:
Post a Comment