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Friday 3 November 2017

लेखिका कृष्णा सोबती को दिया जाएगा साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार

नई दिल्ली। लेखिका कृष्णा सोबती को साहित्य के क्षेत्र में दिया जाने देश का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार वर्ष 2017 के लिए हिन्दी की प्रदान किया जायेगा. पुरस्कारस्वरूप लब्धप्रतिष्ठित लेखिका कृष्णा सोबती को 11 लाख रुपये, प्रशस्ति पत्र और प्रतीक चिह्न प्रदान किया जायेगा.

ज्ञानपीठ के निदेशक लीलाधर मंडलोई ने बताया कि वर्ष 2017 के लिए दिया जाने वाला 53वां ज्ञानपीठ पुरस्कार हिन्दी साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर कृष्णा सोबती को साहित्य के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट कार्य के लिए प्रदान किया जायेगा.

 

मंडलोई ने बताया कि पुरस्कार चयन समिति की बैठक में कृष्णा सोबती को वर्ष 2017 का ज्ञानपीठ पुरस्कार देने का निर्णय किया गया. पुरस्कारस्वरूप कृष्णा सोबती को 11 लाख रुपये, प्रशस्ति पत्र और प्रतीक चिह्न प्रदान किया जायेगा.

कृष्णा सोबती को उनके उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ के लिए वर्ष 1980 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था. उन्हें 1996 में अकादमी के उच्चतम सम्मान साहित्य अकादमी फैलोशिप से नवाजा गया था.

कृष्णा सोबती के प्रमुख रचनाकर्म में ज़िन्दगीनामा, ऐ लड़की, मित्रो मरजानी और जैनी मेहरबान सिंह शामिल है.

 

कृष्णा सोबती का नया उपन्यास गुजरात पाकिस्तान से, गुजरात हिंदुस्तान

बंटवारे के दौरान अपने जन्म स्थान गुजरात और लाहौर को छोड़ते हुए कृष्णा सोबती कहती हैं, ‘याद रखना, हम यहां रह गए हैं.’ ये याद रखना ही रूलाने के लिए काफी है. इसी अंतिम विदाई के साथ कृष्णा सोबती किस प्रकार दिल्ली पहुंचती हैं और कैसे हिंदुस्तान का गुजरात उन्हें आवाज देता है और वे पाकिस्तान के गुजरात की अपनी स्मृतियों की पोटली बांधकर पहली नौकरी के लिए सिरोही पहुंचती हैं…इसी सब की दास्तां है राजकमल द्वारा प्रकाशित उनका नया उपन्यास.

घर को तकसीम किए जाने पर उठने वाली दीवारों से किस कदर अपनी ही आवाज बेगानी होकर लौटती है़….कैसे पराये हो गए अपने ही आंगन के हिस्से में, वजूद का एक हिस्सा किरच किरच टूटकर बिखर जाता है… और कैसे कोई अपना पराया हो जाता है.. इन सवालों के ही जवाब देता है ‘‘गुजरात पाकिस्तान से, गुजरात हिंदुस्तान.’’ हिंदुस्तान के बंटवारे को लेकर अब तक काफी कुछ लिखा जा चुका है लेकिन प्रख्यात लेखिका कृष्णा सोबती का नया उपन्यास ‘‘गुजरात पाकिस्तान से, गुजरात हिंदुस्तान’’ बंटवारे के इस दर्द को कुछ ऐसे बयान करता है जैसे हम अपने वजूद को खरोंचते जाते हों… और रोते जाते हों . बंटवारे का दर्द इधर भी था और उधर भी . ना कोई यहां था आंसू पोंछने के लिए और न ही कोई वहां था कंधा देने के लिए .

ये उपन्यास, उपन्यास कम होकर कृष्णा सोबती की आत्मकथा भी कहा जा सकता है क्योंकि ये उनके अपने जीवन की घटनाओं को पिरोये हुये है .

बंटवारे के दौरान अपने जन्म स्थान गुजरात और लाहौर को छोड़ते हुए कृष्णा सोबती कहती हैं, ‘याद रखना, हम यहां रह गए हैं.’ ये याद रखना ही रूलाने के लिए काफी है. इसी अंतिम विदाई के साथ कृष्णा सोबती किस प्रकार दिल्ली पहुंचती हैं और कैसे हिंदुस्तान का गुजरात उन्हें आवाज देता है और वे पाकिस्तान के गुजरात की अपनी स्मृतियों की पोटली बांधकर पहली नौकरी के लिए सिरोही पहुंचती हैं…इसी सब की दास्तां है राजकमल द्वारा प्रकाशित उनका नया उपन्यास.

बंटवारे के बाद बना पाकिस्तान उस त्रासदी से पहले जिनके लिए अपना प्यारा हिंदुस्तान था, वे लोग अपने ही आजाद मुल्क में विस्थापित शरणार्थियों की तरह अपने कंधों पर अपने दुख आंसुओं को ढोते हुए पहुंचे थे . यह उपन्यास उन उखड़े और दर बदर लोगों की रूहों का अक्स है. ‘जिंदगीनामा,’ ‘दिलो दानिश’ और ‘ऐ लड़की’ जैसे उपन्यासों की लेखिका की बंटवारे के वक्त की जिंदगी का लेखाजोखा पेश करता यह उपन्यास. उपन्यास के शुरूआती हिस्से में अपने जन्म स्थान गुजरात और लाहौर को छोड़ते हुए कृष्णा सोबती लिखती हैं, ‘पलटकर एक बार फिर डबडबाई आंखों से एक बार फिर अपने कमरे की ओर देखा और मन ही मन दोहराया था, ‘बहती हवाओं, याद रखना हम यहां पर रह चुके हैं.’ उपन्यास में आजादी के बाद सामंती समाज में आते बदलावों को भी करीने से पेश किया गया है जो तमाम अंतर्विरोधों से जूझता हुआ अपनी एक नयी पहचान गढ़ने की कोशिश में लगा है .

उपन्यास कदम दर कदम इस सवाल से जूझता चलता है, ‘बेदखल होने का मतलब क्या होता है?’ यही सवाल सिरोही रियासत के दत्तक पुत्र महाराज तेज सिंह अपनी शिक्षिका से पूछते हैं, ‘मैम, बेदखल क्या होता है?’ कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पुरस्कारों से सम्मानित होने की सीमा को लांघ कर पुरस्कारों के लिए सम्मान का नाम बनीं लेखिका कृष्णा सोबती का यह उपन्यास उनकी जिंदगी के एक और खूबसूरत तथा संवेदनशील पहलू से हमें रूबरू कराता है.

-Agency

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