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Tuesday 7 November 2017

‘मैं औरत हूँ, लिखती हूँ लेकिन लुप्त हो रही हूँ’- किरण सिंह

मैंने कहानियाँ लिखना क्यों शुरु किया? इसलिए क्योंकि मैं आत्मकथा नहीं लिखना चाहती थी. आत्मकथा की शर्त है-सत्य और मेरे जीवन के सत्य दुधारी तलवार जैसी है.

कहानियाँ लिखने की एक वजह यह भी थी कि मेरी ससुराल में सभी को थोड़ी बहुत कविता लिखनी आती थी. शिवमंगल सिंह सुमन और अदम गोंडवी मेरे ससुर के अच्छे परिचितों में से थे. मैं जो कविताएँ लिखती उसे बारी-बारी से, मेरे ससुराल में सभी सुधारते थे.

छन्द-लय के अलावा यह भी देखा जाता कि तथाकथित आपत्तिजनक शब्द या भाव तो नहीं है जिससे उनकी बहू को समाज में गलत समझ लिया जाए. जैसे मैने यह दोहा लिखा, “बरसे रस की चाँदनी/भीगे उन्मन अंग/श्याम पिया मैं श्वेत हूँ/रैन दिवस एक संग”

दोहा पढ़ने के बाद सासू-माँ दो दिन तक अनमनी रहीं. तीसरे दिन रहा न गया. पूछती हैं, “लेकिन मेरा बचवा (उनका बचवा यानी मेरा आदमी)… मेरा बचवा तो झक गोरा है… फिर ये पिया…साँवले?”
मेरा पहले से तैयार जवाब था, “अरे अम्माजी आप भी न! कृष्ण, भगवान कृष्ण!” “अच्छा आँ…हाँ !” वो अक्सर इत्मीनान की साँस लेती हैं. अम्मा-पिताजी यानी मेरे सास-ससुर मुझे कवि सम्मेलनों ले जाते. सबसे परिचय करवाते, सबसे कहते कि वे अपनी बहू को आगे बढ़ाना चाहते हैं.
मैं अम्मा-पिताजी से क्षमा माँगते हुए कहना चाहती हूँ. एक बार कुछ बच्चों ने देखा कि एक चिड़िया अपने अंडे से बाहर निकलने के लिए छटपटा रही है. उन्होंने अंडे को तोड़ा. चिड़िया को निकाला. उसके चिपचिपे पंखों को पोंछा और उसके नीचे एक मुलायम कपड़ा बिछा कर पानी-दाना रख दिया. अगले दिन बच्चे दौड़ते हुए चिड़िया के पास गए तो वह चिड़िया मर चुकी थी.

सामंती संस्कार

अंडे से बाहर निकलती हुई चिड़िया को जो संघर्ष करना पड़ता, उसमें उसके पंख मजबूत होते और वह बाहरी दुनिया के थपेड़ों का सामना कर पाती. रक्षा में हत्या हो गई. मेरी वे जड़ किस्म के भावबोध की कविताएँ कहीं नहीं छपती थीं. कविताएँ घर में पढ़ी जाएँगी यह सोचकर मैं अपने को सेंसर करते हुए डर-डर कर लिखती थी.

मैं कोई संतुलित राह निकालने में असफल रही और मेरे भीतर की कवयित्री की अकाल मृत्यु हो गई. मैंने कुछ भी लिखना इसलिए शुरु किया क्योंकि मेरी एक खिड़की थी. जो मुझसे छिन गई. उसके बाद मेरा रहना एक ऐसे कमरे में हुआ जिसमें अँधेरा रहता था. घोर सामंती परिवार में मेरा जन्म हुआ. मेरा नाम पड़ा इतवारी और मुझसे पाँच दिन पहले पैदा हुई बुआ का नाम पड़ा सोमवारी.

जब पाठशाला में नाम लिखाने की बारी आई तो मास्साब के कहने पर शहराती नाम रखा गया. मेरा नाम हुआ किरन क्योंकि मै इतवार की सुबह की किरन के साथ जन्मी थी और बुआ का तीजा क्योंकि वो तीसरी संतान थीं. साहित्यिक समाज से रिश्ता जुड़ा तो मेरा नाम छपने लगा किरण सिंह.

उधर बुआ की शादी ऐसे परिवार में हुई जिनके परिवार के एकाध लोग शौकिया डकैत थे तो बुआ का ससुराल में नामकरण हुआ तिजा सिंह की जगह तेजा सिंह. मेरे पिता पढ़ने के लिए और नौकरी के लिए गाँव से बाहर निकले जरुर लेकिन परिवार से इस वादे के साथ कि वे शहर जाकर बिगड़ेंगे नहीं. इसलिए उन्होंने सांमती संस्कारों को और दृढ़ता से निभाया.
पिता की वकालत जमने लगी तो हम गाँव से कस्बे में आए. मेरे कस्बे के उस मकान में मुकदमा लड़ने वालों, जच्चा-बच्चा, पढ़ने और परीक्षा देने वालों की भीड़ लगी रहती. माँ मेरे कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर के अपना काम करती रहती थीं. मेरे कमरे में एक खिड़की थी जिसके बाहर पोखर था. मैं खिड़की के पास बैठी अपनी कोर्स की किताबें पढ़ती और बाहर देखती रहती.

एकांत और अँधेरा

उस खिड़की पर वह जाली लगी थी जिससे भीतर से बाहर तो देख सकते थे लेकिन बाहर से भीतर नहीं दिखाई देता था. संझा कहानी में यह खिड़की है. मेरे कस्बे का एकमात्र कॉलेज कई दिनों तक छात्रों फिर कर्मचारियो के हड़ताल में या हड़ताल के दौरान तोड़े गए फर्नीचर की मरम्मत में या फिर छात्रसंघ के चुनाव में बन्द ही रहता था.

कॉलेज खुलता तो कई दफा चाचा लोग आकर कह देते फलां गुरुजी नहीं आए हैं जाने का कोई काम नहीं है. बारहवीं के बाद कॉलेज जाना कभी-कभी हुआ. वह खिड़की मेरा सहारा थी. एक दिन उस खिडकी की जाली में छेद करके एक प्रेम पत्र खोंस दिया गया था. उस चिट्ठी में लिखा था ‘हँसी तो फँसी’. दरअसल एक लड़का हरे रंग की पैंट और लाल बुशर्ट पहनता था.

वह अपनी दबंगई के किस्से ऊँची आवाज में लड़कियों के कॅामन रूम के आगे सुनाया करता था. एक दिन मैंने उसकी ओर देख कर सहेलियों कहा, “तोता!” और हँस पड़ी. मेरी माँ जो मेरी सबसे अच्छी सहेली थी, अपनी उस गलती के लिए बहुत दिनों तक पछताती रही. दो-चार और चिट्ठियाँ हुईं तो माँ ने उस लडके के डर से चिट्ठियाँ पिताजी को दे दीं. मेरी कोठरी बदल दी गई.

अब मुझे बीच वाली कोठरी में रहना था जिसमें अँधेरा और सीलन रहता था जिसकी खिड़की रसोई में खुलती थी. रसोई का धुआँ कमरे में भर जाता था. एकांत और अँधेरे के उन कई सालों में मेरा व्यक्तित्व सामान्य नहीं रह गया. माँ मुझे काम नहीं करने देती और कहती कि तुम बस पढ़ो और निकलो इस जगह से.
कल्पना शक्ति

मेरे पास बहुत सारा खाली समय होता था जिसमें मैं देखे-सुने को सोचती रहती और एक काल्पनिक दुनिया की रचना करती. इस तरह मुझमें विचार की शक्ति आई और मेरी कल्पना शक्ति बहुत बढ़ गई. नुकसान यह हुआ कि उजाला मुझे चुभता है, समायोजन में कठिनाई होती है, सभा-सम्मेलनों मैं अनायास किनारे चली जाती हूँ और लोगों को ऐसे देखती हूँ जैसे वे…

बस इतना जान लीजिए कि मेरे लिए कहानी वह आग है जो जंगल की आग को बुझाने के लिए लगा दी जाती है. मैं अपने को और दूसरों को नष्ट करने वाला मानव बम नहीं बनना चाहती. मैंने अपने क्रोध को रचनात्मकता में तब्दील किया है. मेरी कहानियाँ सामंती सोच वाले समाज से मेरा रचनात्मक प्रतिशोध हैं. मेरा व्यक्तिगत मत है कि स्त्री की अधिकांश क्रिया प्रितिक्रिया होती है.

स्त्री या तो रक्षात्मक रहती है या आक्रामक. वह सहज मनुष्य नहीं रहती. मेरे लिए कहानी, विकटतम स्थितियों में भी जिन्दगी जीने का लालच है. मैं अपनी कहानियों की शुरुआत नहीं जानती लेकिन अंत जानती हूँ. विकटतम स्थितियों में भी मेरी नायिकाएँ न हारेंगी न मरेगी. वह डरेगी लेकिन वह लड़ेगी. न दैन्यं न पलायनम्. मनुष्य से इतर किसी भी शक्ति में मेरा विश्वास नहीं.

नहि मानुषात हि श्रेष्ठतरं किंचिंत्. नियति यदि बदनियति पर उतरी तो उसे मनुष्य के इस्पाती इरादों से टकराना होगा. माघ में जब पाला पड़ता था और आषाढ़ मे सूखा या बाढ़ तब परदादी हमें इस तरह कहानियाँ सुनाती थीं कि हमें पता ही नहीं चलता था कि हम भात के बिना, खेत और तालाब में अपने आप उगा, बथुआ और कुरमी का साग, थोड़ा बहुत खाकर कब सो गए.

मुझे मालूम न था कि यह रिश्ता रास्ता बनेगा. मैं पुरुषों से कहना चाहती हूँ कि मेरे लिए मेरे उन चाचाओं जैसे मत बनिएगा जो मेरी चैकीदारी करते हुए अगल-बगल चलते थे और कहते थे कि तुम्हें रास्ता दिखाने के लिए तुम्हारे साथ चल रहे हैं. बल्कि मेरे उस फुफेरे भाई जैसे बनिएगा जिसने मुझे बताया कि जब सारा गाँव सो जाता है.

भीतर का डर
उस समय निर्जन दूर परती खेतों के पार जो नीबू की झाडि़याँ हैं, उसकी बीच की डाल का नीबू तोड़ लिया जाए तो जिन्न वश में हो जाता है. मुझे उस रात का डर आज भी ठीक उसी तरह याद है. भीतर से काँपते हुए भी मैं यह दिखा रही थी कि मैं डर नहीं रही हूँ. इसलिए मैने नीबू तोड़ने के बाद मैं आराम से कदम बढ़ाती हुई भईया के पास गई थी.

मैंने बाद में समझा कि उस रात जिस जिन्न पर मुझे काबू पाना था वह मेरे भीतर के डर का जिन्न था.

मैं स्त्रियों से कहना चाहती हूँ मेरे लिए मेरी उस दीदी जैसी न बनिएगा जो रोज हम लोगों को अपना चाल चलन ठीक रखने के लिए समझाती हुई यह बात फुसफसाते हुए जरुर बताती थीं कि कैसे परिवार की एक सुन्दर लड़की को एक गोड़ से सम्बन्ध रखने के लिए जात पर लिटा कर फरसे से काट डाला गया. आप मेरे लिए मेरी उस सहेली की तरह बनिएगा जिसके बाराती दुआर पर सोए थे.

जो अपने प्रेमी से आखिर बार मिलने गई थी कि ठाकुरबाड़ी और मिसरौली के लड़कों ने घेर लिया. कहने लगे हमको भी हिस्सा दो सुभावती नही तो अभी हल्ला कर देंगे. जिन्दगी भर कुँवारी बैठोगी. सुभावती ने वह छोटा चक्कू निकाल लिया जो दुल्हनों को नजर-टोना से बचाने के लिए कमर में खोंस दिया जाता है. सुभावती आज पुलिस में सिपाही है.

आप ये नहीं कह सकते कि मुझसे आपका कोई रिश्ता नहीं. मै स्त्री हूं और हिन्दी में लिखती हूँ. मैं एक लुप्त होती प्रजाति हूँ. मुझे सँभाल कर रखिए.

-किरण सिंह

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