‘मेरी बेटी मैं रहूं न रहूं. आने वाला जमाना है तेरा.’ लिखने वाले पाकिस्तानी शायर हबीब जालिब ऐसे एक्टिविस्ट थे जिसे जिंदगी भर तमाम लोग समझाते रहे जिंदगी में थोड़ा सा समझौता कर लो जिंदगी आसान हो जाएगी पर उसने किसी की नहीं सुनी और अपने मन की करता रहा.
कभी जालिब ने अपनी इसी बेटी के लिए एक नज्म में लिखा था- ‘मेरी बेटी मैं रहूं न रहूं. आने वाला जमाना है तेरा.’ खैर जालिब ने हेमिंग्वे की लिखी ये बात सच साबित कर दी कि आदमी को मारा तो जा सकता है पर उसे हराया नहीं जा सकता.
हबीब जालिब ने 30 साल जेल में काटे पर गलत के साथ समझौता नहीं किया. हबीब जालिब को उनके समय के सभी पाकिस्तानी हुक्मरानों ने उसे बराबरी से बार-बार जेल भेजा. क्योंकि अगर वो जालिब को जेल न भेजते तो जालिब उनके काले चिट्ठे और स्वार्थी चरित्र को आवाम के सामने खोलकर बिखेर देता. और ऐसा करके हुक्मरानों को कहीं दूर अतीत में भेज देता.
जैसे कि उनकी ये नज़्म, पढ़िए-
कुछ होगा, कुछ होगा, कुछ होगा जब मैं बोलूंगा
टूटे, न टूटे, न टूटे तिलिस्म सत्ता का
मेरे भीतर का कायर तो टूटेगा
शायद ऐसी ही कोई प्रेरणा लेकर जालिब जीवन भर सत्ता के खिलाफ बोलते रहे जो कि आज भी प्रतिरोध के बारे में सोचने वालों की ताकत है.
24 मार्च 1928 को पैदा हुए जालिब का नाम पहले हबीब अहमद था. देश बंटवारे के वक्त हबीब जालिब मैट्रिक में पढ़ा करते थे. उनके वालिद खुद भी बिगड़े हुए थे, माने शायर थे. पर पंजाबी में लिखते थे.
जालिब मां-बाप के साथ विभाजन के वक्त पाकिस्तान आ गए और कराची से निकलने वाली एक पत्रिका डेली इमरोजद में प्रूफरीडिंग करने लगे. .
जालिब ने जब ये नौकरी छोड़ी तो बस एक ही काम किया, कविताएं लिखीं. मार्क्सवाद और लेनिनवाद के समर्थक जालिब पहले पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर हुआ करते थे. जब पार्टी पर बैन लगा तो इसने नेशनल आवामी पार्टी के नाम से काम करना शुरू कर दिया. जालिब इनके साथ जुड़े तो थे पर उनका काम पॉलिटिक्स के उलझे नियमों में उलझने के बजाय कविताएं लिखकर समाज में तरक्की लाना था.
1956 में उनका पहला दीवान छपा- ‘बुर्ज ए आवरा’. बाद के तीनों संग्रह अलग-अलग हुक्मरानों के दौर में जब्त कर लिए गए- ‘जिक्र बहते खून का’, ‘गुम्बद ए बेदर’ और ‘सर ए मक्तल’.
30 साल जेल में रखा
जालिब बार-बार ये काम करते रहे. इसलिए पाकिस्तान के सभी हुक्मरानों ने जालिब को एक ही नजर से देखा. सभी हुक्मरानों ने उन्हें जेल भेजा – 1954, 1964, 1966, 1976, 1984 और 1985. यानि कि जालिब जब तक जीते रहे जेल जाते रहे.
इस बात को एक किंवदंती की तरह लोग पाकिस्तान में सुनाया करते हैं कि जालिब साहब के शरीर पर पाकिस्तानी निजाम की लाठियां हमेशा ही छपी रहती थीं. उनकी बिटिया ने एक इंटरव्यू में उनके बारे में बताया था कि अब्बा तकरीबन तीस साल जेल में रहे. यानी आधी उमर जेल में और आधी अस्पताल में.
उनकी एक नज्म है –
हुक्मरां हो गए कमीने लोग
खाक में मिल गए नगीने लोग
हर मुहिब बेवतन जलील हुआ
रात का फासला तवील हुआ
आमिरों के जो गीत गाते रहे
वही नाम-ओ-दाद पाते रहे
रहजनों ने रहजनी की थी
रहबरों ने भी क्या कमी की थी
जब अयूब खान ने पाकिस्तान का नया फौजी संविधान बनाया और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने भी इसकी तारीफ की तो इस मौके पर जालिब ने ‘दस्तूर’ नज्म को लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया –
दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद लोगों की खुशियों को लेकर चले
वो जो साये में हर मसलहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
वैसे तो यह नज़्म पाकिस्तानी ज़म्हूरियत की जरूरत है. पर जन विरोधी कानून, जिनसे आज भी हिंदुस्तान-पाकिस्तान और बांग्लादेश, तीनों मुल्कों की अवाम जूझ रही है, उनके खिलाफ यह नज़्म आज भी उतनी ही मौजूं है.
जालिब लोकतंत्र के सवाल को बहुत ही जमीनी सच्चाइयों से जोड़ देते हैं. हबीब जब इस नज्म को जनता के बीच पढ़ते थे. तो लोगों के रोंगटे खडे़ हो जाते थे. कुछ ही दिनों में ये कविता सबकी जुबां पर थी.
साधारण लोगों से रिलेट करते उनके व्यंग्य जनता के बीच बहुत पॉपुलर थे. जैसे कि-
अगर मैं फिरंगी का दरबान होता
तो जीना किस कदर आसान होता
मेरे बच्चे भी अमरीका में पढ़ते
हर गर्मी में इंग्लिश्तान होता
मेरी इंग्लिश भी बला की चुस्त होती
बला से जो न मैं उर्दूदान होता
सर झुका के हो जाता सर मैं
तो लीडर भी अजीमुस्सान होता
जमीनें मेरी हर सूबे में होतीं
मैं वल्लाह सदरे पाकिस्तान होता
1965 के चुनावों में जिन्ना की बहन का साथ दिया
1965 के चुनाव पाकिस्तान के लिए बड़े इंपॉर्टेंट थे. जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना भी यह चुनाव लड़ने वाली थीं. हालांकि अयूब खान को अपनी जीत पर पूरा-पूरा यकीन था. कारण था कि चुनाव होने वाले थे अप्रत्यक्ष ढंग से. तो अयूब खान को धांधली करके चुनाव जीत लेने की बात पर यकीन था. चुनाव की बयार चल रही थी. फातिमा को मादर-ए-मिल्लत यानी राजमाता कहा जाने लगा था. अयूब खान की तानाशाही के जो खिलाफ जो लोग खड़े थे वो फातिमा का समर्थन कर रहे थे. इसलिए हबीब जालिब भी फातिमा के फेवर में थे. उन्होंने एक गीत भी लिखा- मां के पांव तले जन्नत है, इधर आ जाओ.
अयूब खान ने ये चुनाव जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. धर्मगुरुओं से सवाल किया जा रहा था कि क्या एक औरत देश की हुक्मरां हो सकती है. जालिब ने धर्मगुरुओं को भी बख्शा नहीं है.
स्टुडेंट्स और प्रेस से तमाम इनामों के वादे किए गए थे. जिसका अंदेशा था वही हुआ और अयूब खान भारी अंतर से 64 फीसदी वोट पाकर जीत गए. पर जल्दी ही 65 के भारत-पाक युद्ध में मिली हार और बढ़ती हुई महंगाई के चलते अयूब खान को सत्ता छोड़नी पड़ी.
अयूब खान के विरोध में लिखी ये नज्म –
बीस घराने
बीस घराने हैं आबाद
और करोड़ों हैं नाशाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
आज भी हम पर जारी है
काली सदियों की बेदाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
अयूब की जगह ली एक और सैनिक तानाशाह याह्या खान ने
अब अयूब की जगह ली एक और सैनिक तानाशाह याह्या खान ने. याह्या खान भी अयूब खान से कम न निकले. उन्होने भी देश पर मार्शल लॉ लागू कर दिया. पर यहां हबीब जालिब के विरोधियों को बड़ा निराश होना पड़ा क्योंकि वो समझते की जालिब अयूब विरोधी है. क्योंकि जालिब ने याह्या का भी जमकर विरोध किया. 10 साल के लिए अयूब ने जालिब पर पाबंदी लगा रखी थी पर जब इसके बाद जालिब को मुर्री में कविता पाठ का न्यौता मिला तो जालिब से ठीक पहले दिलावर फिगार का पाठ रख दिया गया.
दिलावर पाकिस्तान में हास्य की कविता का जाना-माना नाम हुआ करते थे और उन्हें अपने इस हुनर के कारण ही शहंशाह-ए-जराफात कहा जाता था. ऐसे में आयोजकों को लग रहा था कि इसके बाद जनता जालिब को सुनने में इंट्रेस्टेड नहीं रह जाएगी. पर जालिब कविता पाठ करने को जब मंच पर खड़े हुए और कविता पढ़नी शुरू की जो याह्या खान पर ही व्यंग थी-
तुमसे पहले वो जो शख्स यहां तख्त नशीं था
उसको भी अपना खुदा होने का इतना ही यकीं था
कोई ठहरा हो जो कि लोगों तो बताओ
वो कहां हैं, के जिन्हें नाज अपने तईं था
मुर्शरफ की सैनिक सत्ता का विरोध करने को भी ये कविता गाई गई थी. आगे भी काम आती रहेगी.
पूर्वी पाकिस्तान में सेना के कामों का विरोध करने वाले चंद लोगों में शामिल
1970 में ये मार्शल लॉ हटा और आम चुनाव हुए पर इन चुनावों ने पाकिस्तान को और बड़ी प्रॉब्लम में डाल दिया. मुजीब-उर-रहमान की आवामी लीग ने 167 सीटें जीतीं और जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने 81. पर जुल्फिकार अली भुट्टो ने मुजीब की जीत को और उन्हें प्रधानमंत्री मानने से इंकार कर दिया. उन्होंने आवामी लीग की जीत का कारण बताया – मुजीब का घोषणापत्र. जिसमें मुजीब ने पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश को अधिक स्वायत्तता देने के साथ-साथ अलग करेंसी, अलग सेना और अलग पुलिस की बात भी कही थी.
इसलिए याह्या खान ने देश में दोबारा से मॉर्शल लॉ लगा दिया और आवामी लीग को प्रतिबंधित कर दिया. और साथ ही जनरल टिक्का खां को पूर्वी पाकिस्तान का सैन्य प्रशासक बना दिया गया. जिसने वहां ऑपरेशन सर्चलाइट चलाकर विरोधियों को पकड़ने और खत्म करने का काम शुरू कर दिया. पूर्वी पाकिस्तान में मानवाधिकारों का ताक पर रख दिया गया था और इस ऑपरेशन के दौरान करीब 3 लाख लोग मारे गए. पश्चिमी पाकिस्तान में बहुत कम ही लोग ऐसे थे जो पूर्वी पाकिस्तान में चल रही इस तरह की नृशंसता का विरोध कर रहे हों. हबीब जालिब भी उन्हीं में से एक थे. हबीब ने इस घटना पर लिखा –
मोहब्बत गोलियों से बो रहे हो
जमीन का चेहरा खून से धो रहे हो
गुमां तुमको कि रस्ता कट रहा है
यकीं मुझको कि मंजिल खो रहे हो
कश्मीर समस्या का हल जानते थे जालिब
तानाशाह तो तानाशाह यहां तक के भुट्टो जैसे दिखावटी जम्हूरियत पसंद लोग भी आसानी से जालिब को झेल नहीं सकते थे यही वजह थी कि जालिब बार- बार जेल जाते रहे. जालिब हमेशा आवाम की भलाई के बारे में सोचते रहे उन्हें कभी भी राजनीतिक सही-गलत का ख्याल नहीं रहता था. यही वजह थी कि कश्मीर के बारे में जो जालिब ने तब कह दिया था उतना आज भी लोगों के लिए कर पाना मुश्किल है –
ये जमीन तो हसीन है बेहद, हु्क्मरानों की नीयतें हैं बद
हिंदुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है
लेकिन इन दोनों मुल्कों में अमरीका का डेरा है
हिंदुस्तान और पाकिस्तान समस्या पर उनकी एक और नज्म देखिए –
ऐड की गंदम खाकर हमने कितने धोके खाए हैं
पूछ न हमने अमरीका के कितने नाज़ उठाए हैं
फिर भी अब तक वादी-ए-गुल को संगीनों ने घेरा है
हिंदुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है
खान बहादुर छोड़ना होगा अब तो साथ अंग्रेज़ों का
ता बह गरेबां आ पहुंचा है फिर से हाथ अंग्रेज़ों का
मैकमिलन तेरा न हुआ तो कैनेडी कब तेरा है
हिंदुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है
ये धरती है असल में प्यारे, मज़दूरों-दहक़ानों की
इस धरती पर चल न सकेगी मरज़ी चंद घरानों की
ज़ुल्म की रात रहेगी कब तक अब नज़दीक सवेरा है
हिंदुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है
जिया उल हक के वक्त हुए रेफरेंडम का मजाक उड़ाते हुए जालिब ने कहा था कि शहर में हू का आलम था जिन था या रेफरेंडम था.
हिंदुस्तान की तरह से ही पाकिस्तान में भी धर्म को पॉलिटिकल औजार की इस्तेमाल होता है, इस पर जालिब का व्यंग देखें –
ख़तरे में इस्लाम नहीं
ख़तरा है जरदारों को
गिरती हुई दीवारों को
सदियों के बीमारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
सारी जमीं को घेरे हुए हैं आख़िर चंद घराने क्यों
नाम नबी का लेने वाले उल्फ़त से बेगाने क्यों
ख़तरा है खूंखारों को
रंग बिरंगी कारों को
अमरीका के प्यारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
आज हमारे नारों से लज़ी है बया ऐवानों में
बिक न सकेंगे हसरतों अमों ऊँची सजी दुकानों में
ख़तरा है बटमारों को
मग़रिब के बाज़ारों को
चोरों को मक्कारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
अम्न का परचम लेकर उठो हर इंसाँ से प्यार करो
अपना तो मंशूर1 है ‘जालिब’ सारे जहाँ से प्यार करो
ख़तरा है दरबारों को
शाहों के ग़मख़ारों को
नव्वाबों ग़द्दारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
1. घोषणा पत्र
मरने के बाद की पॉलिटिक्स
12 मई 1993 को सारी दुनिया में आवाम के सबसे करीब रहने वाले इस शायर का इंतकाल हो गया. और पाकिस्तान की सरकारों ने चैन की सांस ली. मरने के बाद 1996 में निशान ए इम्तियाज और 2009 में निशान ए हिलाल अवॉर्ड देकर जालिब की कविता को आर्काइव में भेज देने की कोशिश सरकारी मुलाजिमों ने की. ताकि जालिब की विरासत से आखिर उनका पीछा छूटे. आवाम को लगता था कि उनके प्यारे शायर के साथ जिंदगी भर नाइंसाफी हुई तो इसके लिए नवाज शरीफ ने उनकी बेगम को 25 लाख रुपयों की पेशकश की. पर चूंकि बेगम साहिबा को भी उसूल ज्यादा प्यारे थे इसलिए उन्होंने नवाज की ये खैरात लेने से मना कर दिया.
जालिब की कविताएं आज भी पाकिस्तान में कमीने हु्क्मरानों के विरोध की थाती हैं. मुर्शरफ का विरोध करने के लिए पाकिस्तानी आवाम ने जालिब की नज्मों और शायरियों को ही चुना था. जालिब की कविताएं पाकिस्तानी ही नहीं सारे हुक्मरानों की जाति को चुभती रहेंगीं. सरकारों का जालिब को पचा जाने की सारी कोशिशें नाकाम होंगीं. ऐसे ही जब भी पाकिस्तानी आवाम अमन और जम्हूरियत के लिए अपने शासकों के खिलाफ बगावत का परचम उठाएगी, जालिब की नज्में उसकी संगी होंगी.
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने इस बात को कुछ यूं कहा था-
‘वली दकनी से लगाय आज तलक, सुनने वालों की इतनी बड़ी ज़मात का शायर पैदा नहीं हुआ. वे हकीकतन अवाम के शायर हैं.’
ये उसकी कविता और डेडिकेशन के प्रति उसके साथी शायरों की मुहब्बत और इज्जत ही थी कि मुल्क के इस हिरावल शायर को कतील शिफई ने उसकी मौत के बाद इस तरह याद किया –
‘अपने सारे दर्द भुलाकर औरों के दुख सहता था
हम जब गजलें कहते थे वो अक्सर जेल में रहता था
आखिरकार चला ही गया वो रूठ के हम फरजानों से
वो दीवाना जिसको जमाना जालिब जालिब कहता था’
जालिब बस पाकिस्तान का ही नहीं वो सारी उस आवाम का शायर था जो कि स्वार्थी और धोखेबाज पॉलिटीशियंस के जरिए ठगी जा रही है. जालिब की ये कविता पढ़िए और खुद भी इस बात को महसूस किजिए-
भए कबीर उदास
इक पटरी पर सर्दी में अपनी तक़दीर को रोए
दूजा जुल्फ़ों की छाओं में सुख की सेज पे सोए
राज सिंहासन पर इक बैठा और इक उसका दास
भए कबीर उदास
ऊंचे ऊंचे ऐवानों में मूरख हुकम चलाएं
क़दम-क़दम पर इस नगरी में पंडित धक्के खाएं
धरती पर भगवान बने हैं धन है जिनके पास
भए कबीर उदास
गीत लिखाएं पैसे ना दे फिल्म नगर के लोग
उनके घर बाजे शहनाई लेखक के घर सोग
गायक सुर में क्यों कर गाए क्यों ना काटे घास
भए कबीर उदास
कल तक जो था हाल हमारा, हाल वही हैं आज
‘जालिब’ अपने देस में सुख का काल वही है आज
फिर भी मोची गेट पे लीडर रोज़ करे बकवास
भए कबीर उदास.
– Legend News
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