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Wednesday 29 August 2018

बेकाबू होती पेट्रोल-डीजल की कीमतें

राजेश माहेश्वरी

पिछले चार साल में मोदी सरकार ने पेट्रोल और डीजल को दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल किया है। कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के बावजूद टैक्स बढ़ता रहा और इस वजह से पेट्रोलियम सेक्टर से सरकार का राजस्व चार साल में दोगुना हो गया। पेट्रोल-डीजल को केंद्र और राज्य सरकारें उसी तरह से टैक्स लगाकर भारी कमाई करने का साधन मानती रहीं, जैसा कि शराब में होता है। फिलवक्त पेट्रोल-डीजल की कीमतें रिकार्ड तोड़ रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां इसके लिए बेशक उत्तरदायी हैं किंतु भारत सरीखे देश के लिए कच्चे तेल की कीमतों में उछाल बहुत मायने रखता है क्योंकि ये अपनी जरूरतों का 85 प्रतिशत आयात करता है।

मोदी सरकार के सत्ता में आने बाद से लम्बे समय तक कच्चे तेल के दाम घटते गए या स्थिर रहे। बावजूद उसके पेट्रोल-डीजल की कीमतों में उसी अनुपात से कमी नहीं की गई जबकि वृद्धि होने पर कीमतें उछलते देर नहीं लगी। इस बारे में केंद्र सरकार ने जो आश्वासन अतीत में दिए उनके आधार पर जनअपेक्षा है कि कम कीमतें रहने के समय की गई मुनाफाखोरी के एवज में अब उसे राहत मिले जो न्यायोचित है। मोदी सरकार की तरफ से कई मंत्री इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधी विकास कार्यों के लिए पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि का औचित्य साबित करते रहते हैं किंतु इससे अर्थव्यव्यस्था के बाकी क्षेत्र कितने प्रभावित होते हैं ये देखा जाना भी जरूरी है।

उससे भी बड़ी बात ये है कि पेट्रोल-डीजल की आसमान छूती कीमतों के बावजूद भी भारत में इनकी खफत दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। एक जमाने में तो स्कूटर ही प्रतिष्ठा का सूचक होता था लेकिन अब तो चैपहिया वाहन भी किसी की रईसी नहीं दिखाता क्योंकि छोटे और मझोले किस्म की कार मध्यमवर्गीय स्तर की मानी जाने लगी है। एसयूवी और उससे भी आगे विलासिता की प्रतीक कारें धड़ाधड़ बिक रही हैं। पहले केवल महानगरों में नजर आने वाली लम्बी-लम्बी कारें अब बी श्रेणी के शहरों में भी दिखाई देने लगी हैं। यहां तक कि ग्रामीण क्षत्रों में भी साधारण जीप से ऊपर उठकर 15-20 लाख वाले वाहन जमकर बिक रहे हैं। मोटर सायकिल तो निम्न मध्यम वर्ग तक की प्राथमिकता बन चुकी है। महानगरों को छोड़कर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का चूंकि सर्वत्र अभाव है इसलिए निजी वाहनों का उपयोग लोगों की मजबूरी है। इस वजह से पेट्रोल-डीजल भी दूध और पानी की तरह दैनिक जिन्दगी की जरूरत बन गई है। इस कारण कच्चे तेल का आयात बढ़ता ही जा रहा है।

हाल ही के कुछ महीनों में देश का व्यापार घाटा जिस तरह बढ़ा है उसमें अन्य बातों के अलावा कच्चे तेल का आयात भी एक बड़ा कारण माना जा रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों ने भी भारत की मुसीबतें बढ़ा दी हैं क्योंकि ईरान से उसे सस्ता तेल मिल जाया करता था। वैश्विक परिस्थितियां जिस तरह बदल रही हैं उनके मद्देनजर भारत में पेट्रोल-डीजल क्रमशरू 100 और 90 रुपये प्रति लीटर तक पहुंचने की आशंका निर्मूल नहीं है। लेकिन हाथ पर हाथ धरे बैठने रहने से भी इसका हल नहीं निकलने वाला। सरकार की मजबूरी ये है कि वह पेट्रोलियम पदार्थों की राशनिंग करने जैसा अलोकप्रिय कदम भी नहीं उठा सकती। ऐसे में केवल एक ही बात जो आसानी से की जा सकती है और वह है उक्त वस्तुओं पर लगाया जा रहा कर घटाकर जनता को राहत देना।

बिन पानी सब सून की तरह अब बिन पेट्रोल-डीजल सब सून वाला दौर आ गया है। लेकिन भारत के इर्द-गिर्द स्थित छोटे-छोटे देशों तक में इनके दाम भारत की तुलना में काफी कम होना ये दर्शाता है कि हमारे देश में सरकार चाहे केंद्र की हो या फिर राज्यों की वह पेट्रोल-डीजल पर भारी-भरकम कर लगाकर आम जनता का तेल निकाल रही हैं। जीएसटी लागू होने के पहले उम्मीद थी कि सरकार पेट्रोलियम पदार्थो को उसके अन्तर्गत लाकर लोगों को राहत प्रदान करेगी किन्तु केंद्र सरकार की ढिलाई और राज्यों की रुखाई ने वह उम्मीद तोड़ दी जिससे सरकारी मुनाफाखोरी पूर्ववत जारी रही। अब जबकि पानी गर्दन से ऊपर आने को है तब एक बार फिर ये मांग उठना स्वाभाविक कि सैकड़ों अन्य वस्तुओं के साथ पेट्रोल-डीजल को भी जीएसटी के दायरे में लाकर उनकी कीमतों को युक्तियुक्त किया जाए। यद्यपि जीएसटी काउंसिल में शामिल राज्य इसके लिए कितने राजी होंगे ये कहना मुश्किल है लेकिन भाजपा और उसके सहयोगियों की अधिकतर राज्यों में सत्ता होने से ऐसा करना कठिन भी नहीं लगता।

मनमोहन सरकार के समय कच्चे तेल की कीमत 110 डॉलर प्रति बैरल थी और उस समय पेट्रोल पर कुल 43 फीसदी टैक्स लगता था। मोदी सरकार के कार्यकाल में तो ज्यादातर समय कच्चे तेल की कीमत नरम ही रही है। बीते मई से यह ऊपर की ओर बढ़ रही है। मोदी सरकार के दौर में जनवरी, 2016 में तो कच्चे तेल की कीमत 28 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई थी। जाहिर है सरकार ने उस दौर में बहुत अच्छी कमाई की और चाहती तो वह इस गिरावट का लाभ जनता को दे सकती थी। इसके उलट सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दी ताकि कमाई ज्यादा से ज्यादा हो सके। सरकार ने पिछले चार साल में नौ बार पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी यानी उत्पाद शुल्क बढ़ाए और सिर्फ एक बार इसमें कटौती की।

सत्ता में आने पर साल 2014-15 में मोदी सरकार को पेट्रोलियम सेक्टर से मिलने वाला राजस्व 3,32,620 करोड़ रुपये था, 2016-17 में यह बढ़कर 5,24,304 करोड़ रुपये पहुंच गया। वित्त वर्ष 2017-18 के पहले छह महीनों में ही सरकार को पेट्रोलियम सेक्टर से मिलने वाला राजस्व 3,81,803 करोड़ रुपये पहुंच गया, जो कि 2014-15 के पूरे साल से ज्यादा है। जानकारों की माने तो सरकार ने पेट्रोलियम को शराब की तरह ही मोटी कमाई का स्रोत मान लिया है। दोनों को जीएसटी से बाहर रखा गया है. अच्छे राजस्व के लिए सरकारें इन सेक्टर का जमकर दोहन करना चाहती हैं। शराब के मामले में तो सरकारें असल में इसकी संवदेनशीलता का फायदा उठा रही हैं। संविधान के अनुच्छेद 47 में इसे एक संवदेनशील और राज्य का विषय मानते हुए कुछ अपवादों के साथ प्रतिबंधित लगाने की बात कही गई है। इस अनुच्छेद के बहाने सरकारें शराब पर जमकर टैक्स लगाती हैं। दूसरी तरफ, पेट्रोलियम और पेट्रो उत्पादों को 1955 के एक्ट की धारा 2 के तहत आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल किया गया है। दिल्ली में पेट्रोल की रिफाइनरी लागत पर करीब 100 फीसदी तक और डीजल पर करीब 50 फीसदी तक टैक्स लिया जाता है।

बीती 22 मई का उदाहरण लें, तो पेट्रोल की कीमत प्रति लीटर 76.24 रुपये थी, जबकि रिफाइनरी लागत महज 36.93 रुपये प्रति लीटर थी। इसमें एंट्री टैक्स ओर तेल कंपनियों का मार्जिन भी शामिल है। इस तरह सरकार (केंद्र और राज्य) को पेट्रोल की बिक्री पर प्रति लीटर 39.31 रुपये का राजस्व हासिल हुआ। इसी तरह दिल्ली में डीजल की प्रति लीटर बिक्री पर सरकारों को 19.85 रुपये का राजस्व हासिल हुआ।
निकट भविष्य में कुछ राज्यों के साथ ही लोकसभा चुनाव भी सन्निकट हैं तब भाजपा के रणनीतिकार इस मामले में उदासीन क्यों हैं ये समझ से परे है।

मोदी सरकार ने विभिन्न मोर्चों पर जो उपलब्धियां हासिल की हैं वे पेट्रोल-डीजल की कीमतों के आगे बेअसर होकर रह जाती हैं। चूंकि ये आम जनता से जुड़ा विषय है इसलिए चुनाव पर असर डाले बिना नहीं रहेगा। यदि अभी भी सरकार नहीं चेती तो फिर ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि भाजपा का हश्र 2004 की तरह हो सकता है जब स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की उज्ज्वल छवि और इंडिया शाइनिंग के धुआंधार प्रचार अभियान के बावजूद सत्ता उसके हाथ से खिसक गई थी। मौजूदा संदर्भ में नरेंद्र मोदी को लेकर भी वही स्थिति है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने यदि बुद्धिमत्ता नहीं दिखाई तो चुनाव में सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबन्दी, जीएसटी और तीन तलाक जैसे मुद्दे काम नहीं आएंगे। भाजपा को अर्थशास्त्र की ये युक्ति नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य की प्रत्येक क्रिया आर्थिक परिस्थितियों से प्रभावित होती है। 2014 में बीजेपी ने कांग्रेस के खिलाफ बढ़ती तेल कीमतों को मुद्दा बनाया था, भाजपा को यह तथ्य भूलना नहीं चाहिए।

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