ललित गर्ग
दिल्ली के मुख्यमंत्री का गाय को लेकर दिया गया विवादित बयान अत्यन्त निराशाजनक, अमर्यादित एवं भड़काऊ है। दो दिन पूर्व उनकी ओर से लखनऊ में शुक्रवार को देर रात हुए विवेक तिवारी हत्याकांड को मजहबी रंग देने वाले बयान को भी उचित नहीं माना जा सकता, इस बयान में पुलिसकर्मियों की गोली के शिकार हुए एप्पल के एरिया मैंनेजर को हिन्दू बताते हुए उन्होंने धार्मिक बयानबाजी कर उसे राजनीतिक रंग देने की कोशिश की है। इस तरह आक्रामक भाषा का प्रयोग उनके लिये कोई नई बात नहीं हैं। लेकिन ऐसे भड़काऊ एवं अशिष्ट बयानों से देश में अराजकता का माहौल निर्मित होता है। धार्मिक भावनाएं भड़काकर किसी धर्म विशेष के लोगों को अपने पक्ष में करने की कोशिश की तीव्र भत्र्सना होनी चाहिए। बात केवल दिल्ली के मुख्यमंत्री की ही नहीं है, बल्कि जो भी ऐसे बयान देकर देश की एकता एवं अखण्डता को खण्डित करते हैं, उनकी आलोचना एवं निन्दा होना जरूरी है।
दिल्ली विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के गाय माफिया के खिलाफ कार्रवाई किये जाने की आवश्यकता व्यक्त करने वाले ट्वीट पर मुख्यमंत्री दिल्ली ने बयान दिया कि क्या पुलिस और निगम के कर्मी सुरक्षा एवं सफाई का काम छोड़कर गाय की देखभाल में लग जाएं। लगातार आए उनके ये दोनों बयान धार्मिक आधार पर राजनीतिक रोटियां सेंकने की कुचेष्टा ही कहीं जायेगी।
अरविन्द केजरीवाल अपने बड़बोलेपन, अशिष्ट एवं अशालीन भाषा के लिये चर्चित है। इस तरह के लोग राजनीति में जबरन जगह बनाने के लिये ऐसी अनुशासनहीनता एवं अशिष्टता करते हैं। यह पहला अवसर नहीं है जब उन्होंने इस तरह से धार्मिक बयानबाजी की हो। सत्ता के शीर्ष पर बैठकर यदि इस तरह जनतंत्र के आदर्शों को भुला दिया जाता है तो वहां लोकतंत्र के आदर्शों की रक्षा नहीं हो सकती। राजनैतिक लोगों से महात्मा बनने की आशा नहीं की जा सकती, पर वे अशालीनता एवं अमर्यादा पर उतर आये, यह ठीक नहीं है।
प्रश्न यह है कि यदि गाय-माफिया से गायों की सुरक्षा मुहैया कराने की नेता प्रतिपक्ष मांग करते हैं तो इसमें क्या गलत हैं। गाय की सुरक्षा हिन्दुओं की भावनाओं से जुड़ा मामला है, एक धर्म-विशेष के लोगों की आस्था से जुड़ा मामला भी है। इसलिये ऐसे संवेदनशील मामलों को और उनकी धार्मिक भावनाओं को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। लेकिन इस तरह की मांग का अर्थ यह कदापि नहीं है कि दैनंदिन सुरक्षा व्यवस्था को छोड़़कर सारे पुलिसकर्मी गायों की रक्षा में लग जाये या निगमकर्मी सफाई के काम से मुंह मोड़कर केवल गायों पर केन्द्रित हो जाये। पूरा भरोसा है कि दिल्ली की जनता ऐसे लोगों को मंजूर नहीं करेंगी जो इस तरह जहर का बीज बोते हैं, धार्मिकता भड़काते हैं। बात केवल दिल्ली के मुख्यमंत्री की नहीं है, भाजपा में भी अनेक नेता हैं और अन्य दल के नेताओं ने भी ऐसे बयानों से लोगोें को गुमराह करने की कोशिशें की हैं। आज यदि नेताओं से यही प्रश्न पूछा जाये कि वे ऐसे बिखरावमूलक बयान क्यों देते हैं तो संभवतः उनका उत्तर मिलेगा कि हमारा ईश्वर कुर्सी में रहता है, सत्ता में रहता है। तभी उनमें अच्छाई-बुराई न दिखाई देकर केवल सत्तालोलुपता दिखती है। ऐसे बयानों से इन नेताओें की न केवल फजीहत हो रही है, बल्कि उसकी बौखलाहट भी सामने आ रही है। जनता को बेवकूफ एवं नासमझ समझने की भूल ये तथाकथित नेता बार-बार करते रहे है और बार-बार मात भी खाते रहे हैं। फिर भी उनमें अक्ल नहीं आती।
बात केवल गाय या किसी एप्पलकर्मी की नहीं है, दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो यह है कि देश के प्रधानमंत्री को ऐसे ही बयानों से तार-तार करने की नाकाम कोशिश होती है। स्वस्थ एवं आदर्श लोकतंत्र के लिये देश के प्रधानमंत्री के लिये निम्न, स्तरहीन एवं अमर्यादित शब्दों का प्रयोग होना, एक विडम्बना है, एक त्रासदी है, एक शर्मनाक स्थिति है। केवल आम आदमी पार्टी ही नहीं, कांग्रेस ही नहीं, अन्य राजनीतिक दल के नेता भी ऐसी अपरिपक्वता एवं अशालीनता का परिचय देते रहे हैं। बात 6 अक्टूबर, 2016 की है जब देश सर्जिकल स्ट्राइक पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जय-जयकार कर रहा था। विरोधी भी चुप रहने को मजबूर थे। हां, केजरीवालजी जरूर सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांग रहे थे।
तभी यूपी चुनाव की तैयारी कर रहे राहुल गांधी किसान यात्रा से लौटने के बाद आत्मघाती हमला कर बैठे उस सर्जिकल स्ट्राइक पर, जिसमें पहली बार पाकिस्तान में घुसकर हिन्दुस्तान ने आतंकी ठिकानों को नष्ट किया था, जिसकी दुनिया में सबने सराहना की, पाकिस्तान उफ तक नहीं कर पाया। राहुल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर ‘खून की दलाली’ करने का आरोप लगा डाला। असमय दिये गये इस तरह के बयानों के कारण ही लोगों ने राहुल को पप्पू कहना शुरु कर दिया। ये तथाकथित नेता गाली ही नहीं देते रहे, बल्कि गोली तक की भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं। कांग्रेस नेता राशिद अल्वी ने एक निजी समाचार चैनल इंडिया टीवी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर अपमानजनक बात कह दी थी। 16 मई, 2016 को टीवी कार्यक्रम में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मोस्ट स्टूपिड प्राइम मिनिस्टर बता दिया। अल्वी के इस विवादित कमेंट के बाद वहां मौजूद लोग बुरी तरह भड़क गए। कांग्रेस नेता के खिलाफ लोगों ने ‘शर्म करो’, ‘शर्म करो’ के नारे लगाए। किसी ने मोदी को रैबिज से पीड़ित बताया तो किसी ने उन्हें केवल चूहे मात्र माना। चायवाले से तो वे चर्चित हैं। लेकिन मोदी के व्यक्तित्व की ऊंचाई एवं गहराई है कि उन्होंने अपने विरोध को सदैव विनोद माना।
क्या नेताओं की जुबान अनजाने में फिसलती है या फिर जानबूझ कर जुबान फिसलाई जाती है। मानना है नेताओं की जुबान फिसलना जिसे हम लोग विवादित बयान भी कहते हैं, वह जुबान जानबूझ कर चर्चा में रहने और लोगों का ध्यान आकर्षित कर खुद की टीआरपी बढ़ाने का खेल होता है। यहां यह भी देखना जरूरी है कि वह जुबान किस नेता की फिसली है और किस नेता के लिए फिसली है। इस फिसली जुबान का परिणाम चैतरफा विरोध प्रदर्शन के रूप में देखने को मिलता है। लेकिन राजनीति की यह एक बड़ी विसंगति एवं विडम्बना है कि इस तरह की बयानवाजी से देश टूटता है तो भले ही टूटे, लेकिन नेताजी देशभर में मशहूर हो जाते हैं अपनी उसी फिसलाई हुई जुबान के कारण। बयान को ब्रेकिंग न्यूज बना कर पेश कर रातों रात उस अनजाने से नेता को भी देश की जनता जान जाती है। या जाने-पहचाने नेता का कद और बढ़ जाता है। लंबे समय से देखा जाता रहा है नेताओं और पार्टियों के नारे भी कम विवादित नहीं रहे हैं अब वे चाहें तिलक तराजू हो या फिर मंदिर वहीं बनाएंगे या फिर हवा हवाई अच्छे दिन के नारे या जुमले हों।
पूर्व के हमारे नेताओं या आजादी के मतवाले हमारे क्रांतिकारियों के नारे युवाओं में एक जोश और उनके बाजुओं को फड़काने का काम करते थे जैसे ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ ‘जय जवान जय किसान’ आदि जो देश की जनता को एक प्रेरणा देने का कार्य करते थे, समाज और देश को जोड़ने का काम करते थे। अब बात श्मशाम से लेकर कब्रिस्तान पर आ गई है। हिंदुस्तान की बात की बात नहीं होती, राष्ट्रीयता की बात नहीं होती, ईमान, इंसानियत और इंसान की बात नहीं होती। चाहे गाय हो या राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान हो या राष्ट्र-चरित्र-ये देश को जोड़ने के माध्यम हैं, इन्हें हिन्दुस्तान को बाँटने का जरिया न बनाये।
ये अरविन्द केजरीवाल, मणिशंकर, राहुल गांधी, सोनिया गांधी, राशिद अल्वी, दिग्विजय सिंह, इमरान मसूद, प्रमोद तिवारी सभी राजनीति कर सकते हैं और उसके लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। उनका लक्ष्य ”वोट“ है। सस्ती लोकप्रियता है। मोदी को गाली देने की जो परिपार्टी बड़े नेताओं ने शुरू की है, उसका असर यह है कि छोटे स्तर पर भी मर्यादा टूट रही है।
केजरीवाल अंतिम नहीं है। यह चलता रहेगा। चलना चाहिए भी। कभी-कभी प्रशंसा नहीं गालियां मोदी को ज्यादा प्रतिष्ठा देती हैं, ज्यादा जनप्रिय बनाती है, जनता का समर्थन देती है। पर केजरीवाल भी जाने कि बिना श्रद्धा, प्रेम, सत्य, त्याग, राष्ट्रीयता के कोई विचार, आन्दोलन या पार्टी नहीं चल सकती। चुनावी बिसात बिछते ही या फिर वर्तमान राजनीति में जिस प्रकार से भाषा की मर्यादाएं टूट रही हैं और हमारे राजनेताओं का जो आचरण सामने आ रहा है, उसे कहीं से भी हमारे सभ्य समाज या हमारी युवा पीढ़ी के लिए आदर्श स्थिति नहीं कहा जा सकता ।
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