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Tuesday 13 November 2018

गंभीर होती नक्सलवाद की चुनौती

राजेश माहेश्वरी

नक्सली हिंसा किसी भी स्तर पर आतंकवाद से कम नहीं है। साठ के दशक में आदिवासियों और भूमिहीन किसानों के लिए यह आंदोलन शुरू किया गया होगा, लेकिन वे खाली हाथ जमातें आज भी भूमि और जंगलात के अधिकारों के लिए दिल्ली की ओर देखती हैं। नक्सलवाद ने आदिवासियों को हथियारबंद हमलावर तो बना दिया, लेकिन गरीब आदमी की जिंदगी कमोबेश वैसी ही रही है। एक अध्ययन के अनुसार देश के 7000 गांवों के 30 करोड़ लोग इस समस्या से प्रभावित हैं।

देश में नक्सलवाद का सिलसिला पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में साठ के दशक में शुरू हुआ। प्रारम्भ में नक्सलवाद को इस तर्क के साथ आगे बढ़ाया गया कि अत्यंत पिछड़े इलाकों के गरीब-वंचित वर्ग और विशेषतः आदिवासी समाज को कथित सामन्तवादी शासन द्वारा उसके हक से वंचित किया जा रहा है। नक्सलवाद की सोच को आगे बढ़ाने वाले लोगों ने भारतीय संविधान को मानने से इंकार कर दिया। सब कुछ बंदूक के बल पर हासिल करने का इरादा रखने वाले नक्सलियों ने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए भोले भाले आदिवासियों को शासन-प्रशासन के खिलाफ भड़काना शुरू किया। धीरे-धीरे उन्होंने आधुनिक हथियारों और एक वर्ग के वैचारिक समर्थन के बल पर इस हद तक अपनी ताकत बढ़ा ली कि वे सुरक्षा बलों को गंभीर चुनौती देने लगे। आज नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। नक्सलवाद का उद्देश्य शासन के विरुद्ध जनयुद्ध की परिकल्पना थी। आज इसका अर्थ सिर्फ चंदा उगाही और पुलिसबलों पर हमला करके हथियार लूटना है। नक्सली चाहते हैं कि आदिवासी अनपढ़ ही रहें और तरक्की न करें। नक्सलवादियों के इन्हीं मंसूबों को स्थानीय आदिवासी समझने लगे हैं।

करीब हफ्ता भर पहले भी बारूदी सुरंग से विस्फोट कर सीआरपीएफ के एक वाहन को उड़ा दिया गया था। लंबे समय से दावा किया जाता रहा है कि छत्तीसगढ़ में तकनीकी मदद से नक्सलियों पर नजर रखी जायेगी, पर ऐसा कुछ देखने या सुनने को नहीं मिला। बीते दिनों दूरदर्शन के फोटोग्राफर अच्युतानंद साहू को नक्सलियों ने तब मारा, जब वह अपनी कवरेज करने बस्तर में आया था। उसके हाथ में कैमरा था, बंदूक नहीं। फोटोग्राफर के सहयोगी ने जमीन पर लेटकर अपनी जान बचाई और मां के नाम एक भावुक वीडियो तैयार किया। क्या बाहर से आने वालों को धमकाना और मारना ही ‘नक्सलवाद’ है? छतीसगढ़ में शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव कराने के लिए, खास कर वहां के नक्सल प्रभावित क्षेत्र में, भारी पैमाने पर सुरक्षा बल तैनात किये गये हैं। फिर भी दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने बारूदी सुरंग विस्फोट कर एक मिनी बस को उड़ा दिया, जिसमें सुरक्षाकर्मी सहित पांच लोग मारे गये। वो अलग बात है कि छत्तीसगढ़ में 70 फीसदी मतदान ने नक्सली हिंसा को मुंहतोड़ जवाब दिया है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज नक्सलियों में मोहभंग की भी स्थिति है, नक्सली ‘खूनी लड़ाई’ को छोड़कर देश की मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं, बीते दिनों छत्तीसगढ़ में ही 62 नक्सलियों ने पुलिस महानिरीक्षक के सामने आत्मसमर्पण किया था और 51 बंदूकें भी सौंपी थीं। अब तो उनकी पार्टी सीपीआई (माओवादी) का महासचिव भी बदल दिया गया है-गणपति की जगह एन केशव राव, लेकिन ‘लाल आतंक’ आज भी जारी है, लिहाजा जगदलपुर, बस्तर, दंडकारण्य से लेकर अबूझमाड़ तक जाना भी एक घातक चुनौती है। छत्तीसगढ़ के 16 जिलों में आज नक्सलवाद सक्रिय है। वे मौजूदा व्यवस्था को ‘बुर्जुआ’ करार देते हैं। मई, 2014 में जब भाजपा सत्ता में आई और मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे, तब 10 राज्यों के 126 जिले नक्सल प्रभावित थे। आज 2018 में सरकार का दावा है कि 32 जिले ऐसे हैं, जहां किसी भी किस्म की नक्सली गतिविधियां नहीं हैं और 30 जिलों में हल्की-फुल्की नक्सली घटनाएं जारी हैं। छत्तीसगढ़ चुनाव में भाजपा का यह मुख्य चुनावी मुद्दा है कि यदि इस बार भी सरकार बनी, तो नक्सलवाद का बिलकुल ही खात्मा कर दिया जाएगा।

पिछले तीन दशकों से आंध्र प्रदेश इस समस्या से प्रभावी रूप से निपटने में सफल रहा है। इस समस्या से निपटने के लिए महज सुरक्षा अभियान काफी नहीं होंगे और ऐसा हो भी नहीं सकता। लोगों की दिनप्रतिदिन की समस्याओं के समाधान और विकास कायरें के माध्यम से ही हम इसका स्थायी समाधान खोज सकते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनके अभाव में यहां के लोग खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं। वन प्रशासन अथवा प्रबंधन में व्यापक सुधार करके जनजातीय परिवारों के समक्ष आने वाली दिनप्रतिदिन की समस्याओं का समाधान आज वक्त की मांग है। वन नौकरशाही इन जनजातीय लोगों को अनावश्यक रूप से परेशान करती है, क्योंकि राज्य दर राज्य यह लोग भटकते रहते हैं अथवा आते-जाते रहते हैं। पिछले पांच दशकों में खनन और सिंचाई परियोजनाओं के कारण बड़े पैमाने पर इन्हें विस्थापित होना पड़ा है। बड़े पैमाने पर विस्थापित इन लोगों को पुनर्वास और पुनस्र्थापना के माध्यम से अभी भी संतुष्ट करना शेष है। सबसे खराब बात यह है कि इन जनजातीय वगरें को बार-बार विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है। संसद द्वारा 2013 में पारित किए गए नए भूमि अधिग्रहण कानून के माध्यम से चीजों को दीर्घकालिक दृष्टि से सही रूप में हल करने की कोशिश की गई, लेकिन बाद में इसे कमजोर करने का काम किया गया।

यह संभव है कि चरमपंथी समूहों को विदेशों से वित्तीय और हथियारों की मदद मिल रही हो, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि उनके विस्तार अथवा प्रभाव वृद्धि में घरेलू वजहें कहीं अधिक जिम्मेदार हैं और इसमें जनजातियों में व्याप्त असंतोष, उनके साथ भेदभाव और विस्थापन की समस्या मुख्य हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकारें गरीबों की मानवीय गरिमा और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा कर पाने में विफल रही हैं और इसी के परिणामस्वरूप हिंसा के फैलाव के लिए अनुकूल जमीन तैयार हुई, जिसने सामाजिक कल्याण के नाम पर नक्सलियों को मुखर होने का मौका दिया। इसी का जामा पहनकर नक्सलियों ने गुरिल्ला लड़ाई का आधार तैयार किया और लोगों की भर्तियां कीं। सबसे दुखद बात यह है कि इसमें महिलाओं और बच्चों को भी शामिल किया गया।

आज भी आदिवासी सड़क पर आंदोलित हैं और दिल्ली आते रहते हैं। बहरहाल नक्सलवाद आज भी छत्तीसगढ़ और झारखंड राज्यों में सर्वाधिक है। करीब 70 फीसदी घटनाएं इन्हीं राज्यों में होती रही हैं। हत्या के जरिए किसी मकसद को पाना मानवीय नहीं है। कई मामलों में नक्सलियों का जुड़ाव आतंकियों से भी देखा गया है, नक्सलवाद की सोच आतंकवादी है, लिहाजा इसे एक गंभीर चुनौती समझ कर इसका खात्मा किया जाना चाहिए। नोटबंदी के बाद गृह मंत्री ने दावा भी किया था कि नोटबंदी से नक्सलियों और आतंकवादियों की कमर टूट गयी है, पर इन हमलों से यही साबित होता है कि सुरक्षा बल की तैयारी जैसी होनी चाहिए, वैसी नहीं है. सच तो यह है कि नक्सली आंदोलन पर काबू पाने के लिए स्थानीय लोगों का विश्वास जीतना जरूरी है। सरकार को ऐसी ही कोशिश करनी चाहिए।

यह भी समझने की जरूरत है कि नक्सलियों द्वारा बार-बार किये जा रहे हमले और उनमें सुरक्षा बलों के जवानों की क्षति आंतरिक सुरक्षा की रीढ़ को कमजोर करने के साथ ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को प्रभावित करती है। नक्सली गतिविधियों और खासतौर पर सुरक्षा बलों पर उनके हमलों को तत्काल प्रभाव से रोकने की जरूरत है। इसके लिए केंद्र और नक्सलवाद प्रभावित राज्यों को ठोस पहल करनी होगी। नक्सलवाद से निपटने के लिए सुरक्षा के मोर्चे को दुरुस्त करने के साथ ही राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर भी जो प्रयास अपेक्षित हैं उनसे भी पीछे नहीं हटना चाहिए। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था को ईमानदारी से कार्य करने की आवश्यकता है। साथ ही जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों की भी नक्सल उन्मूलन में अहम भूमिका होनी चाहिए। आखिर हम कब तक इस भटकी हुई खूनी जंग को जारी रहने देंगे?

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