अपनी ही एक ग़ज़ल से कुछ यूँ ख़फ़ा हूँ मैं
ज़िक्र था जिस बेवफ़ा का, वही बेवफ़ा हूँ मैं।
महफ़िल ना सही तन्हाई तो मिलती है,
मिलें ना सही जुदाई तो मिलती है,
प्यार में कुछ नहीं मिलता..
वफ़ा न सही बेवफाई तो मिलती है।
हसीनो ने हसीन बनकर गुनाह किया,
औरों को तो क्या हमको भी तबाह किया,
पेश किया जब ग़ज़लों में हमने उनकी बेवफ़ाई को,
औरों ने तो क्या उन्होने भी वाह-वाह किया।
गा तो सकता में भी गीत मगर मेरी आवाज़ ही बेवफा है,
बजा तो सकता में भी साज मगर मेरी साज ही बेवफा है,
मत कर गुमान ए शाहजहां अपनी ताज पर,
बना तो सकता में भी ताज मगर मेरी मुमताज ही बेवफा है।
अब तो गम सहने की आदत सी हो गयी है
रात को छुप–छुप रोने की आदत सी हो गयी है
तू बेवफा है खेल मेरे दिल से जी भर के
हमें तो अब चोट खाने की आदत सी हो गयी है।
आंसूओ तले मेरे सारे अरमान बह गये
जिनसे उमीद लगाए थे वही बेवफा हो गये,
थी हमे जिन चिरागो से उजाले की चाह
वो चिराग ना जाने किन अंधेरो में खो गये।
वो मोहब्बत भी तेरी थी, वो नफ़रत भी तेरी थी,
वो अपनाने और ठुकराने की अदा भी तेरी थी,
मैं अपनी वफ़ा का इंसाफ़ किस से माँगता?
वो शहर भी तेरा था, वो अदालत भी तेरी थी।
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