बंद ट्यूब को खोलकर न्यू आईयूआई तकनीक से कृत्रिम गर्भाधान संभव
लखनऊ। आज देश में भी कृत्रिम गर्भाधन विधियों से बच्चा प्राप्त करना एक आम बात है। इसके लिए आमतौर पर आई.वी.एफ (इनविट्रोफर्टलाइजेशन) तकनीक का सहारा लिया जाता है। यह तकनीक उन महिलाओं के इस्तेमाल में लाई जाती है,जिनके ट्यूब बंद होते हैं। इस तकनीक के प्रथम प्रयास की सफलता दर 18 से 20 प्रतिशत है। लेकिन न्यूटेक मैडीवर्ल्ड की निदेशक डा.गीता शरार्फ ने ऐसी महिलाओं जिनके ट्यूब बंद होते हैं, उनमें ट्यूब खोलकर एक अन्य दूसरी तकनीक न्यू आई.यू.आई. का इस्तेमाल कर कृत्रिम गर्भाधान की सफलता हासिल की है।. डा. गीता शरार्फ ने 300 महिलाओं को इस तकनीक के द्वारा कृत्रिम गर्भाधरण कराया है। इस न्यू.आई.यू.आई. विषय पर उन्होंने अमरीका के फिगो कांग्रेस में एक अनुसंधान पत्र भी प्रस्तुत किया है।
सफलता दर 70 से 75 प्रतिशत
इस न्यू आई.यू.आई. तकनीक का विकास डा. गीता शर्राफ ने किया है। आई.यू.आई तकनीक का इस्तेमाल उन महिलाओं में करते हैं, जिनके ट्यूब ओपन होते हैं। नई दिल्ली के गौतम नगर में स्थित न्यूटैक मेडी वर्ल्ड और देश की जानी-मानी कृत्रिम प्रजनन विशेषज्ञ डा. गीता शरार्फ ने आई.यू.आई. तकनीक को ही और अधिक विकसित करके अब उसे पहले से ज्यादा सस्ता और सफल बनाया है। जहां विश्व में आई.यू.आई. के प्रयास की सफलता दर 10 से 15 प्रतिशत है, वहीं डा. गीता शर्राफ द्वारा विकसित इस न्यू आई.यू.आई. तकनीक की सफलता दर 70 से 75 प्रतिशत है। न्यू आई.यू.आई. तकनीक अधिक सफल होते हुए भी पुरानी तकनीक के मुकाबले सस्ती है।
टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक के आविष्कार का श्रेय ब्रिटेन को— डा. गीता
बदली जीवन शैली के कारण ही महिलाओं में बांझपन की समस्या बढ़ती जा रही है। लेकिन सबसे बड़ा दुख का कारण यह भी है कि अधिकांश मामलों में शादी के बाद बच्चा पैदा न होने की जिम्मेदारी औरत पर डाल दी जाती है, भले ही कमी आदमी में हो। डा. गीता शरार्फ के मुताबिक इस तकनीक आई. यू. आई. में पति या दानकर्त्ता के शुक्राणु को सीधे महिला के गर्भ में स्थापित कर दिया जाता है, जबकि परखनली शिशु तकनीक में भ्रूण को सामान्यतया अण्डाणु निकलने के 2 दिन या 4 घंटे बाद वापस गर्भ में रखा जाता है। इसके लिए इन्क्युबटेर्स का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी पहले प्रयास की सफलता की दर 18 से 22 प्रतिशत के बीच होती है। इस आई वी एफ (इनविट्रोफर्टिलाइजेशन) यानी टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक के आविष्कार का श्रेय ब्रिटेन को जाता है. आज से 23 वर्ष पूर्व पहली परखनली शिशु लुइस ब्राउन का जन्म हुआ था। तब से आज तक कृत्रिम विधि से बच्चा पाने की तकनीक और चाहत दोनों बढ़ी हैं।
बांझपन के उपचार में जबरदस्त तकनीकी विकास
आज कृत्रिम प्रजनन के लिए कई हाईटैक तकनीकें मौजूद हैं। दरअसल विगत पांच-दस वर्षों में बांझपन के उपचार में जबरदस्त तकनीकी विकास हुआ है। हार्मोन ट्रीटमेंट, मार्गदर्शन देती क्लीनिक्स, शल्यक्रिया तथा अत्याधुनिक तकनीकें जैसे इक्सी व टीसा-इक्सी अब सहजता से उपलब्ध हैं। कई बार स्त्री-पुरुष का भावनात्मकता दोष व अति फिक्रमंदी के कारण भी प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है, इसके लिए काउंसलिंग दी जाती है, जो काफी लाभदायक होती है। बांझपन को आमतौर पर दूर किया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है सही पड़ताल, कारणों की जांच व उचित उपचार।
बहरहाल तकनीक चाहे कोई भी हो मगर आज के बदलते परिवेश में इन कृत्रिम विधियों के विशेष महत्व को अनदेखा नहीं दिया जा सकता। आज भले ही देश में जनसंख्या काबू से बाहर होती जा रही हो लेकिन आज भी लाखों लोग ऐसे मिलेंगे, जो बच्चा न होने से परेशान है, लेकिन हताशा और निराशा से ग्रस्त लोगों में अगर एक बच्चा जीवन की खुशियां लौटा दें और इसके लिये कृत्रिम विधियां ही सबसे ज्यादा उपयोगी हो सकती हैं। बस आवश्यकता है सही कदम उठाने की और किसी योग्य चिकित्सक तक पहुंचने की।
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