ललित गर्ग
वर्तमान समय में पर्यावरण के समक्ष तरह-तरह की चुनौतियां गंभीर चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं। जिससे समुद्र किनारे बसे अनेक नगरों एवं महानगरों के डूबने का खतरा मंडराने लगा है। हिमालय में ग्लेशियर का पिघलना कोई नई बात नहीं है। सदियों से ग्लेशियर पिघलकर नदियों के रूप में लोगों को जीवन देते रहे हैं। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में पर्यावरण के बढ़ रहे दुष्परिणामों के कारण इनके पिघलने की गति में जो तेजी आई है, वह चिंताजनक है।
ग्लोबल वार्मिंग का खतरनाक प्रभाव अब साफतौर पर दिखने लगा है। देखा जा सकता है कि गर्मियां आग उगलने लगी हैं और सर्दियों में गर्मी का अहसास होने लगा है। इसकी वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं। ऐसे में मुंबई समेत दुनिया के कई हिस्सों एवं महानगरों-नगरों के डूबने की आशंका तेजी से बढ़ चुकी है। इसका खुलासा अमरीकन नेशनल अकादमी ऑफ साइंस ने किया है। उन्होंने अपने अध्ययन में दुनिया के 7 शहरों पर ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पड़ने वाले प्रभाव के बारे में विस्तार से बताया है। अकादमी ने तापमान में दो और चार डिग्री बढ़त के आधार पर अपना निष्कर्ष जारी किया है और दावा किया गया है कि तापमान के दो डिग्री बढ़ने पर गेटवे ऑफ इंडिया चारों तरफ से पानी से जलमग्न हो जाएगा। इसका यदि तापमान 4 डिग्री बढ़ा तो मुंबई अरब सागर में समा जाएगी।
पर्यावरण के निरंतर बदलते स्वरूप ने निःसंदेह बढ़ते दुष्परिणामों पर सोचने पर मजबूर किया है। औद्योगिक गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन और वन आवरण में तेजी से हो रही कमी के कारण ओजोन गैस की परत का क्षरण हो रहा है। इस अस्वाभाविक बदलाव का प्रभाव वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तनों के रूप में दिखलाई पड़ता है। सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि के कारण विश्व के ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगे हैं। ग्लेशियर के तेजी से पिघलने के कारण महासागर में जलस्तर में ऐसी ही बढ़ोतरी होती रही तो महासागरों का बढ़ता हुआ क्षेत्रफल और जलस्तर एक दिन तटवर्ती स्थल, भागों और द्वीपों को जलमग्न कर देगा। ये स्थितियां भारत में हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने से एक बड़े संकट का कारण बन रही है।
ग्लेशियर का पिघलना सदियों से जारी है, लेकिन पर्यावरण पर हो रहे विभिन्न हमलों के कारण इनका दायरा हर साल बढ़ रहा है। खूब बारिश और बर्फबारी से ग्लेशियर लगातार बर्फ से ढ़के रहते थे। मौसम ठंडा होने की वजह से ऊपरी इलाकों में बारिश की बजाय बर्फबारी होती थी। लेकिन 1930 के आते-आते मौसम बदला और बर्फबारी में कमी आने लगी। असर ग्लेशियर पर भी पड़ा। ये बढ़ने की बजाय पहले स्थिर हुए, फिर पिघलते ग्लेशियरों का दायरा बढ़ने लगा।
गंगोत्री ग्लेशियर पिछले दो दशक में हर साल पांच से बीस मीटर की गति से पिघल रहा है। उत्तराखंड के पांच अन्य प्रमुख ग्लेशियर सतोपंथ, मिलाम, नीति, नंदा देवी और चोराबाड़ी भी लगभग इसी गति से पिघल रहे हैं। भारतीय हिमालय में कुल 9,975 ग्लेशियर हैं। इनमें से 900 ग्लेशियर सिर्फ उत्तराखंड हिमालय में हैं। इन ग्लेशियरों से 150 से अधिक नदियां निकलती हैं, जो देश की 40 प्रतिशत आबादी को जीवन दे रही हैं। अब इसी बड़ी आबादी के आगे संकट है। हाल के दिनों में हिमालयी राज्यों में जंगलों में आग की जो घटनाएं घटीं, वे ग्लेशियरों के लिए नया खतरा हैं। वनों में आग तो पहले भी लगती रही हैं, पर ऐसी भयानक आग काफी खतरनाक है। आग के धुएं से ग्लेशियर के ऊपर जमी कच्ची बर्फ तेजी से पिघलने लगी हैं। इसके व्यापक दुष्परिणाम होंगे। काला धुआं कार्बन के रूप में ग्लेशियरों पर जम जाएगा, जो भविष्य में उस पर नई बर्फ को टिकने नहीं देगा।
पूरी दुनिया में ग्लेशियरों के पिघलने की घटनाओं पर व्यापक शोध एवं अनुसंधान हो रहे हैं, लेकिन भारतीय ग्लेशियरों के पिघलने की स्थितियों पर न अध्ययन हो रहा है, न ही उसको नियंत्रित करने के कोई उपाय होते हुए दिखाई दे रहे हैं। इन गंभीर होती स्थितियों पर काम करने वाले कुछ पर्यावरण संरक्षकों ने देश के लिए ग्लोबल वार्मिंग के खतरों के संकेत देने शुरू कर दिए हैं। साथ ही यह सवाल भी खड़ा किया है कि भारत इसका मुकाबला कैसे करेगा? भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान के उपग्रह इमेजरी से हुए एक ताजा अध्ययन में 466 ग्लेशियरों के आंकड़ें जमा किए हैं, जिनसे पता चलता है कि 1962 से 2001 तक इनका आकार बीस फीसदी तक कम हुआ है। कई बड़े ग्लेशियर छोटे टुकडों में टूट गए हैं और सब तेजी से पिघल रहे हैं। इस इलाके के सबसे बड़े ग्लेशियरों में से एक पार्वती के अध्ययन में पाया गया है कि हर साल 170 फीट की रफ्तार से पिघल रहे हैं।
हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से दुनिया खासी चिंतित हैं, खासतौर पर भारत और पड़ोसी देशों पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभाव को लेकर। हिमाचल में, जिन्हें दक्षिण एशिया की जल आपूर्ति का सेविंग अकाउंट माना जाता है। ये उन दर्जनों नदियों को जलमग्न बनाते हैं, जो करोड़ों लोगों का जीवन संवारती है, उनके जीने का आधार है। इसके तेजी से पिघलने का अर्थ है पीने के पानी की कमी और कृषि उत्पादन पर मंडराता खतरा, साथ ही बाढ़ और बीमारियांे जैसी समस्याएं हैं।
एक अरब तीस करोड़ की आबादी के साथ लगातार तरक्की कर रहा भारत जल्द ही ग्रीन हाउस गैसों का ज्यादा बड़ा उत्पादक बन जाएगा। जो भी हो मानव की दखल से हो रहे इस जलवायु बदलाव का भारत पर असर काफी भयानक होगा। वैज्ञानिक जानकारी का अभाव भी इस खतरे को और बढ़ा सकता है। नदियों के प्रवाह के आंकड़े इतने कम है कि हम समझ ही नहीं सकते कि ग्लेशियर के किस हद तक पिघलने का नदियों पर क्या असर होगा।
दुनिया भर में ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के बैरोमीटर माने जाते हैं। ग्रीन हाउस गैसों के असर से पूरी दुनिया के साथ ही हिमालय भी गरम हुआ है। हाल में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि उत्तर पश्चिमी हिमलाय के औसत तापमान में पिछले दो दशक में 2.2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। यह आंकड़ा उसके पहले के सौ साल में हुई बढ़ोतरी से कहीं ज्यादा है। अध्ययन में यह भी अनुमान लगाया गया है कि जैसे-जैसे ये ग्लेशियर पिघलेंगे, बाढ़ की विभीषका भी बढ़ेगी, प्राकृतिक आपदाएं घटित होंगी और उसके बाद नदियां सूखने लगेंगी। इसका दोष दुनिया के औद्योगिकीकरण एवं सुविधावादी जीवनशैली जिनमें बढ़ते वाहन एवं वातानुकूलित साधनों के विस्तार को ही दिया जा सकता है, जिनसे ऐसी गैसों का उत्सर्जन हो रहा है, जो ओजोन के साथ-साथ ग्लेशियरों के लिये खतरनाक है, उन पर पाबंदी लगाने में हम नाकाम हो रहे हंै।
ग्लोबल वार्मिंग को रोकना तो सीधे तौर पर हमारे बस में नहीं है, लेकिन हम ग्लेशियर क्षेत्र में तेजी से बढ़ती मानवीय गतिविधियों को रोककर ग्लेशियरों पर बढ़ते प्रदूषण के प्रभाव को कम कर सकते हैं। इस क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों को पूरी तरह प्रतिबंधित करने के अलावा कई ऐसी तकनीक है, जिनसे ग्लेशियर और बर्फ को लंबे समय तक बचाए रखा जा सकता है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले लोग पुराने समय में बरसात के समय छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर पानी को रोक देते थे।
तापमान शून्य से नीचे जाने पर यह पानी जमकर बर्फ बन जाता। इसके बाद स्थानीय लोग इस पानी के ऊपर नमक डालकर मलबे से ढक देते। लंबे समय तक यह बर्फ जमी रहती और गरमियों में लोग इसी से पानी की जरूरतें पूरी करते। इसी तरह, स्नो हार्वेस्टिंग का काम भी होना चाहिए। बर्फ की बड़ी सिल्लियों को मलबे में दबाकर रखा जा सकता है, जो लंबे समय तक बर्फ को जीवित रख सकती है। अब इन पुराने उपायों को फिर से अपनाने की जरूरत है साथ ही नवीन तकनीक विकसित किये जाने की जरूरत है ताकि इस बड़े संकट से बचा जा सके, मनुष्य जीवन पर मंडरा रहे खतरों को नियंत्रित किया जा सके।
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