-अलग-अलग धड़ों में बंटे हैं यूपी के कारोबारी नेता
– ‘ड्राइंग रूम पॉलीटिक्स’ से नहीं बनेगी बात, ठोस मुद्दों के दम पर मिलेगा सत्ता का ध्यानाकर्षण
रवि गुप्ता
लखनऊ। आगे पांच साल के लिए देश की राजनीतिक दशा-दिशा और उसके संचालन की बागडोर किस पार्टी या समूह के हाथों में होगी, यह बहुत जल्द पता चल जायेगा। ऐसे में नई सरकार के गठन के साथ ही केंद्र से लेकर राज्यों की मिनिस्ट्री से लेकर ब्यूरोक्रेसी में भी व्यापक बदलाव किये जाने के भी संकेत मिल रहे हैं। यानी लोकतांत्रिक व्यवस्था से जुड़ा हर राजनीतिक दल, व्यक्ति, संगठन सभी अपने-अपने हिसाब से जोर-शोर से तैयारी करने में लगे हुए हैं। मगर इसी बीच देश के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य यूपी की व्यापारी राजनीति को लेकर भी चर्चाओं का बाजार गर्म होता जा रहा है। यही सवाल उठ रहा है कि आखिर अब सूबे की व्यापारी राजनीति किस करवट बैठेगी…क्योंकि मोदी सरकार के सबसे अप्रत्याशित निर्णय नोटबंदी व जीएसटी को लेकर सबसे अधिक प्रभावित कारोबारी समुदाय ही हुआ। अब ये अलग बात है कि इसका विभिन्न श्रेणी के व्यापारियों को क्षणिक नुकसान हुआ या फिर दूरगामी लाभ आगे मिलने की संभावना है।
इसमें कोई संशय नहीं है कि जीएसटी व नोटबंदी जैसे दोनों मुद्दों को लेकर उत्तर प्रदेश के सभी छोटे-बडे व्यापारी नेताओं ने पहले तो खुले मंच से जमकर विरोध करना शुरू किया, मगर जैसे ही प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनी तो कारोबारी हितों की दुहाई देने वाले इन्हीं कारोबारी प्रतिनिधियों के तेवर ढीले पड़ते गये। जानकारों का तो यह भी कहना है कि पहले प्रदेश में जब कभी व्यापारी प्रतिनिधि किसी मुद्दे को लेकर अधिक आक्रामक होते थे या फिर सरकार को बड़ी चुनौती देने में सक्षम नजर आते थे तो सत्ताधारी दल ‘ड्राइंग रूम पॉलीटिक्स’ के जरिये उन्हें राजनीतिक या फिर व्यक्तिगत उपकृतों के सहारे साध लेती रही। मगर अब चूंकि टैक्स निर्धारण व क्रियान्वयन की बड़ी डोर केंद्र के हाथों में चली गई है, ऐसे में जब तक कोई व्यापारी नेता ठोस मुद्दों पर राजनीति नहीं करेगा तब तक उसकी बात का वजन नहीं बढेÞगा और न ही कारोबारियों के बीच उसकी लोकप्रियता ज्यादा दिनों तक टिक पायेगी।
व्यापारी राजनीति से जुडेÞ जानकारों की मानें तो जिस दिन मोदी सरकार ने उपरोक्त दो निर्णयों की उद्घोषणा की थी, उसके बाद से ही जैसे उत्तर प्रदेश की विखंडित व एक तरह से मृतप्राय हो चुकी व्यापारी राजनीति को जैसे जीवनदायिनी हवा मिल गई। इसी बहाने तमाम पुराने व नये व्यापारी नेताओं ने जमकर मोदी सरकार की मुखालफत की। हालांकि सोचने वाली बात यह भी है कि सभी व्यापारी नेताओं का मोदी को लेकर विरोध का कारण तो एक ही रहा, मगर ये कभी भी एक मंच पर नहीं आये क्योंकि सबके अपने-अपने तरीके से हित छुपे थे। किसी समय प्रदेश में दिग्गज कारोबारी नेता रहें एक वरिष्ठ व्यापारी प्रतिनिधि ने अपनी पीड़ा को कुछ इस तरह बयां किया कि…काश, 90 का वो दशक लौट आये जो सूबे की कारोबारी राजनीति का स्वर्णिम काल रहा। उन्होंने जोर देकर कहा कि अगर सभी छिटके व्यापारी अगर एक मंच पर आ जायें तो शासन-प्रशासन को व्यापारियों की ताकत का एहसास कराने से कोई नहीं रोक सकता।
उप्र युवा उद्योग व्यापार मंडल के प्रदेश अध्यक्ष रहें और डालीगंज के वरिष्ठ व्यवसायी अतुल जैन का कहना है कि अगर व्यापारी नेता केवल और केवल अपने हितों को अलग रखकर व्यापारिक संगठन से जुडेÞ कारोबारियों की समस्याओं को संबंधित अधिकारियों व मंत्रियों के समक्ष त्वरित ढंग से रखें तो इससे उनकी विश्वसनीयता भी बढेÞगी और जन-जन के बीच उनके प्रति भरोसा भी बढ़ेगा। वहीं ग्लोबस टैक्स पेयर्स ट्रस्ट के चेयरमैन मनीष खेमका का मत है कि अब समय आ गया है कि व्यापारी राजनीति निजी हितों से आगे बढ़कर नीतिगत व पारदर्शी राजनीति करे ताकि शासन-प्रशासन उसके सही मुद्दों व कहीं गई बातों को गंभीरता से ले। हालांकि व्यवसायी वर्ग को कम या ज्यादा साधने के मद्देनजर योगी सरकार ने आनन-फानन में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले व्यापारी कल्याण बोर्ड का तो गठन कर दिया, मगर शासन से जुडे विश्वस्त सूत्रों की मानें तो इसमें भी कुछ खास और सत्ता तथा दल के करीबी व्यापारियों को ही जगह दी गई है जिसको लेकर लखनऊ के ही कुछ प्रमुख कारोबारियों ने दबे जुबान से विरोध भी जाहिर किया।
No comments:
Post a Comment