चुनावी नियम-कायदों का सरेआम उल्लंघन के मामले में दिग्गज राजनेता भी पीछे नहीं रहें
एकदूसरे की हमेशा मुखालफत करने वाले दल इस चुनाव में ‘गलबहियां’ करते दिखें
नेतागण सबकुछ भुलाकर जनता के बीच यही संदेश देने की फिराक में लगे रहें कि…बुरा न मानो चुनावी होली है
रवि गुप्ता
तरुणमित्र। 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के साथ ही देश-प्रदेश में तकरीबन दो माह से चल रही चुनावी आपाधापी अपने समापन की ओर है। जनता-जनार्दन को जिसको जनादेश देना था, उसे पूरी तरीके से दे दिया और अब अगला पांच बरस उसी दल के सत्ता-शासन के हवाले रहेगा। ऐसे में देखा जाये तो लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही पक्ष-विपक्ष सहित अन्य प्रादेशिक व क्षेत्रीय दलों के बीच चुनावी प्रतिद्वंद्विता धीरे-धीरे करके अपने चरम तक पहुंची। आलम यह रहा कि क्या पार्टी, क्या दल और क्या उम्मीदवार…एकदूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से लेकर कभी-कभार बदजुबानी का ऐसा दौर चला कि खुद मतदाता भी यह सोचने को मजबूर हो गये कि आखिर इन्हीं जनप्रतिनिधियों के हाथों में हमारे देश की बागडोर होगी। बहरहाल, जनता ने जिसके लिये मन बनाया उसके राजतिलक का मार्ग दोबारा से प्रशस्त कर दिया।
मगर ध्यान से देखा जाये तो देश के इस सबसे बड़े चुनावी महाभारत में साम-दाम-दंड-भेद…इन चारों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कहीं न कहीं इस्तेमाल किया गया। कहने को तो पूरे चुनावी माहौल व उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया पर केंद्रीय चुनाव आयोग की पैनी निगाहें रहीं, पर चुनावी नियम-कायदों का सरेआम उल्लंघन या इसकी धज्जियां उड़ाने के मामले में लगभग सभी दलों के दिग्गज और कद्दावर राजनेता व प्रतिनिधि भी पीछे नहीं रहें। वहीं चुनाव के दौरान एक तय सीमा से अधिक नकदी ले जाने को कड़ाई के साथ प्रतिबंध तो लगाया गया था, मगर इसकी मॉनीटरिंग से जुडेÞ प्रशासन व पुलिस के आला अधिकारियों के पास इसका स्पष्ट जवाब नहीं था कि इतनी सख्ती के बावजूद कैसे कई सौ करोड़ रुपये की धरपकड़ की गई जिसका संबंधित व्यक्ति के पास कोई लेखाजोखा नहीं था। ऐसा नहीं है कि चुनाव आयोग ने इलेक्शन के दौरान धनबल व बाहुबल पर अधिकाधिक अंकुश लगाने के मद्देनजर कई कार्रवाइयां नहीं की। यूपी में ही आयोग की टीम ने कई प्रमुख व वीआईपी नेताओं तथा मंत्रियों के चुनावी दौरे को लेकर प्रतिबंध लगाने का साहस दिखाया। वहीं चुनावी भेद की बात करें तो संभवत: यह राजनीतिक दलों के लिए ऐसा मूल तत्व है जिसके बिना काम चल ही नहीं सकता। चुनावों के दौरान कई बार ऐसी अजीबो-गरीब स्थितियां देखने को मिली, जब एकदूसरे की हमेशा मुखालफत करने वाले दल इस चुनाव में ‘गलबहियां’ करते दिखें। यानी होली जैसे त्यौहार के तर्ज पर चुनावी माहौल में भी नेतागण सबकुछ भुलाकर जनता के बीच यही संदेश देने की फिराक में लगे रहें कि…बुरा न मानो चुनावी होली है।
रवि गुप्ता
तरुणमित्र, 24 मई (लखनऊ)। 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के साथ ही देश-प्रदेश में तकरीबन दो माह से चल रही चुनावी आपाधापी अपने समापन की ओर है। जनता-जनार्दन को जिसको जनादेश देना था, उसे पूरी तरीके से दे दिया और अब अगला पांच बरस उसी दल के सत्ता-शासन के हवाले रहेगा। ऐसे में देखा जाये तो लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही पक्ष-विपक्ष सहित अन्य प्रादेशिक व क्षेत्रीय दलों के बीच चुनावी प्रतिद्वंद्विता धीरे-धीरे करके अपने चरम तक पहुंची। आलम यह रहा कि क्या पार्टी, क्या दल और क्या उम्मीदवार…एकदूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से लेकर कभी-कभार बदजुबानी का ऐसा दौर चला कि खुद मतदाता भी यह सोचने को मजबूर हो गये कि आखिर इन्हीं जनप्रतिनिधियों के हाथों में हमारे देश की बागडोर होगी। बहरहाल, जनता ने जिसके लिये मन बनाया उसके राजतिलक का मार्ग दोबारा से प्रशस्त कर दिया। मगर ध्यान से देखा जाये तो देश के इस सबसे बड़े चुनावी महाभारत में साम-दाम-दंड-भेद…इन चारों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कहीं न कहीं इस्तेमाल किया गया।
कहने को तो पूरे चुनावी माहौल व उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया पर केंद्रीय चुनाव आयोग की पैनी निगाहें रहीं, पर चुनावी नियम-कायदों का सरेआम उल्लंघन या इसकी धज्जियां उड़ाने के मामले में लगभग सभी दलों के दिग्गज और कद्दावर राजनेता व प्रतिनिधि भी पीछे नहीं रहें। वहीं चुनाव के दौरान एक तय सीमा से अधिक नकदी ले जाने को कड़ाई के साथ प्रतिबंध तो लगाया गया था, मगर इसकी मॉनीटरिंग से जुडेÞ प्रशासन व पुलिस के आला अधिकारियों के पास इसका स्पष्ट जवाब नहीं था कि इतनी सख्ती के बावजूद कैसे कई सौ करोड़ रुपये की धरपकड़ की गई जिसका संबंधित व्यक्ति के पास कोई लेखाजोखा नहीं था। ऐसा नहीं है कि चुनाव आयोग ने इलेक्शन के दौरान धनबल व बाहुबल पर अधिकाधिक अंकुश लगाने के मद्देनजर कई कार्रवाइयां नहीं की। यूपी में ही आयोग की टीम ने कई प्रमुख व वीआईपी नेताओं तथा मंत्रियों के चुनावी दौरे को लेकर प्रतिबंध लगाने का साहस दिखाया। वहीं चुनावी भेद की बात करें तो संभवत: यह राजनीतिक दलों के लिए ऐसा मूल तत्व है जिसके बिना काम चल ही नहीं सकता। चुनावों के दौरान कई बार ऐसी अजीबो-गरीब स्थितियां देखने को मिली, जब एकदूसरे की हमेशा मुखालफत करने वाले दल इस चुनाव में ‘गलबहियां’ करते दिखें। यानी होली जैसे त्यौहार के तर्ज पर चुनावी माहौल में भी नेतागण सबकुछ भुलाकर जनता के बीच यही संदेश देने की फिराक में लगे रहें कि…बुरा न मानो चुनावी होली है।

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