बस्तर में रावण दहन की परंपरा नहीं है। बस्तर दशहरा पूरी तरह से मां दंतेश्वरी को समर्पित पर्व है इसलिए विजया दशमी पर विशाल रथ में मां दंतेश्वरी का छत्र विराजित किया जाता है।
बस्तर लंबे समय तक स्वतंत्र रियासत रही है और यहां के राजा अपनी विजय यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए विजया दशमी पर तंत्र-मंत्र के साथ देवी आराधना और शस्त्र पूजा कर देवी दशहरा मनाते रहे हैं।
दशहरा के दौरान यहां रावण दहन क्यों नहीं किया जाता?
बस्तरवासी विजयादशमी और देवी दशहरा मनाते हैं न कि रावण दहन वाला दशहरा। आदिम संस्कृति और रियासत व्यवस्था के बीच रच- बस गए यहां के रहवासियों की आराध्या मांई दंतेश्वरी है और उनके प्रति आदर भाव प्रकट करने ही यहां के रहवासी वर्षों से अपने राजाओं के बस्तर दशहरा मनाते आ रहे हैं।
शस्त्र पूजा पुरानी परंपरा
मां दंतेश्वरी मंदिर के प्रधान पुजारी कृष्णकुमार पाढ़ी ने बताया बस्तर में सैकड़ों साल तक रियासत रही है। अपनी विजय यात्रा के साथ वे हर साल विजयादशमी के दिन अपने परंपरागत शस्त्रों की पूजा करते रहे हैं। अपनी कुल देवी मां दंतेश्वरी की तांत्रिक विधान से पूजा अर्चना करते आए हैं। जैसे नवरात्र सप्तमी की मध्यरात्रि को निशाजात्रा में 11 बकरों की बलि। उपरोक्त परंपरा के चलते ही बस्तर में देवी आराधना का पर्व मनाया जाता है।
देवी आगमन का पर्व
शहर के वरिष्ठ नागरिक व दशहरा की विभिन्न रस्मों को लगातार निपटाते आ रहे सेवानिवृत्त पटवारी बनमाली पाणिग्राही बताते हैं कि मैदानी इलाके में रावण वध के बाद भगवान राम के अयोध्या वापसी पर दशहरा और दीपावली मनाई जाती है।
वैसे ही बस्तर दशहरा में शामिल होने दंतेवाड़ा से आई मां दंतेश्वरी के स्वागत में मावली परघाव और प्रतीक के रूप में उनके छत्र को विशाल रथ में स्थापित कर दो दिन रथ परिक्रमा किया जाता है जिसे भीतर और बाहर रैनी कहते हैं। बस्तर दशहरा का रावण दहन से कोई संबंध नहीं है इसलिए यहां रावण के पुतला दहन की परंपरा नहीं है।
देवी को समर्पित दशहरा
बारसूर के अर्जून मांझी, गढ़िया के बलराम मांझी और पंडरीपानी परगना के त्रिनाथ मांझी बताते हैं कि इन्द्रावती के उत्तर में आर्य और दक्षिण में द्रविण संस्कृति का प्रभाव रहा है। अधिकांश लोग अपने आवासों में आज भी राक्षस जैसी आकृति का मुखौटा टांगते हैं। जो द्रविण संस्कृति का परिचायक है।
बस्तर दशहरा में राज परिवार जहां शस्त्र पूजा कर विजयादशमी मनाता है वहीं करीब 450 गांवों के आमंत्रित ग्राम्य देवी-देवताओं के साथ 80 परगना के मांझी, 25 चालकी और 50 मेम्बर -मेम्बरीन के देखरेख विशाल रथ तैयार करवा कर बस्तरवासी देवी दशहरा मनाता है इसलिए यहां रावण दहन की पंरपरा नहीं है।
बस्तर संभाग अब विभिन्न जाति धर्म के लोगों का आश्रय स्थल भी बन गया है। गैर आदिवासी जन अपनी संस्कृति के अनुरूप किरंदूल, बचेली, कांकेर, कोंडागांव आदि स्थानों में कुछ वर्षों से रावण दहन करने लगे हैं।
-एजेंसी
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