अवधेश कुमार
जो लोग नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा विरोधी महागठबंधन के प्रयास में लगे नेताओं के 22 नवंबर को राजधानी दिल्ली में होने वाली बैठक की प्रतीक्षा कर रहे थे निश्चय ही उन्हें धक्का लगा होगा। इस समय महागठंधन के लिए सबसे ज्यादा कवायद करने वाले मुख्य नेता आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू ने कोलकाता में ममता बनर्जी से मुलाकात के बाद स्वयं इस बैठक को स्थगित करने की घोषणा कर दी। आखिर क्यों? अभी तो वे इस बैठक की तैयारी कर रहे थे।
राजधानी में राहुल गांधी, शरद पवार, फारुख अब्दुल्ला, शरद यादव ,मायावती, मुलायम सिंह यादव, बेेगलूरु में पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा, कुमारस्वामी, चेन्नई में एम. के. स्टालिन आदि से मुलाकात करके उन्होने एक साथ इकट्ठा होने का निमंत्रण दिया था। 11 नवंबर को राहुल गांधी का विशेष दूत बनकर अशोक गहलोत ने अमरावती जाकर नायडू से मुलाकात की थी। उसके बाद नायडू ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा था कि दिल्ली में हमारी बैठक प्रस्तावित है जिसमें भविष्य की कार्रवाई और रुपरेखा तय होगी। वे कोलकाता में ममता बनर्जी से भी भविष्य की रुपरेखा पर विचार करने तथा दिल्ली बैठक मे शामिल होने का अनुरोध करने गए थे। अगर वहां से उन्हें यह घोषणा करनी पड़ी कि यह बैठक अब जनवरी में आयोजित होगा तो इसके पीछे गंभीर कारण होंगे।
वास्तव में यह इस मायने में भारतीय राजनीति की एक बड़ी घटना है क्योंकि मोदी एवं भाजपा को पराजित करने के लिए एकजुट होने के लिए उत्साहित नेताओं ने दिल्ली सम्मेलन को एक बड़े अवसर के रुप में देखा था। उन्हें लगता था कि मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलांगना एवं मिजोरम चुनाव के पूर्व यह बैठक होती है तो इससे संदेश जाएगा कि विपक्षी एकता अब केवल बयानों और कल्पना तक सीमित नहीं है। यह साकार हो रहा है। विशेषकर कांग्रेस की नीति हर हाल में इस बैठक को सफल बनाने की थी। कई नेताओं ने इस बैठक में कुछ विशेष घोषणाओं की तैयारी की थी।
शरद पवार ने कहा था कि हमें एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करना है। वे इस बैठक में उसके लिए समिति का प्रस्ताव रख सकते थे। एक साथ इतने नेता इकट्ठा होते, नरेन्द्र मोदी और भाजपा के विरुद्ध एकजुट होकर लड़ने की घोषणायें करते तो इन सबका प्रभाव माहौल निर्माण के रुप में होता। हालांकि सब जानते हैं कि एक साथ इकट्ठा होकर भाजपा एवं मोदी को पराजित करने की बात करना तथा धरातल पर गठबंधन करने में जमीन आसमान का अंतर है। जिन पार्टियों के गठबंधन से 2019 का चुनाव प्रभावित हो सकता है उनके बीच मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में गठबंधन नहीं हो सका। यह आगे भी हो सकता है। बावजूद इसके ऐसे जमावड़े का राजनीतिक महत्व तो होता है। हो सकता था यहां से गठबंधन को कोई औपचारिक नाम मिलता तथा ऐसा हो जाने के बाद इसका औपचारिक स्वरुप ग्रहण करने की प्रक्रिया भी आरंभ हो जाती।
कहने का तात्पर्य यह कि विपक्षी दल एक बड़े अवसर से चूके हैं और भाजपा तथा राजग खेमे में इससे निश्चय ही खुशी का माहौल होगा। वास्तव में किसी सामान्य कारण से इतनी तैयारी के बाद बैठक को स्थगित या रद्द नहीं किया जा सकता था। जाहिर है, ममता बनर्जी ने कुछ ऐसी बातें रखीं हैं जिनके बाद नायडू को यह निर्णय करना पड़ा। हम न भूलें कि जो भूमिका अभी नायडू निभा रहे हैं कुछ महीने पूर्व वही भूमिका ममता बनर्जी निभा रहीं थीं। उन्हांेंने भी ज्यादातर नेताओं से मुलाकात की। सबसे मोदी विरोधी गठबंधन के लिए साथ आने का आग्रह किया। किंतु उनकी शुरुआत गैर भाजपा के साथ गैर कांग्रेस गठबंधन की अवधारणा से हुई थी।
पहले तेलांगना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव ने गैर भाजपा गैर कांग्रेस मोर्चे की बात की। उसके बाद वे कोलकाता आए और ममता के साथ मिलकर इसकी घोषणा की। वे कांग्रेस के साथ किसी सूरत में दिखना नहीं चाहते थे। इसलिए कुमारस्वामी के शपथग्रहण से पूर्व ही बेेगलूरु जाकर उनको बधाई दे आए लेकिन समारोह में शामिल नहीं हुए, क्योंकि उन्हें काग्रेस के साथ खड़ा होना पड़ता। तो ममता बनर्जी गठबंधन से कांग्रेस को बाहर रखने की सोच से काम कर रहीं थीं। इस उद्देश्य से की गई अपनी पहली दिल्ली यात्रा में उन्होंने कांग्रेस को नजरअंदाज किया। बाद में जब मीडिया में चर्चा हुई तो वो सोनिया गांधी से मिलने अवश्य गईं, लेकिन बाहर आकर बयान दिया कि उनके स्वास्थ्य का हालचाल पूछने आई। थी। राहुल गांधी से उन्होेंने मिलना गंवारा नहीं समझा।
जाहिर है, ममता बनर्जी के लिए कांग्रेस को साथ लाने के लिए नए सिरे से विचार करना होगा। उन्होंने के. चन्द्रशेखर राव के साथ जो घोषण किया उससे पीछे हटना होगा। प्रदेश में भाजपा की तरह ही कांग्रेस भी उनका तीखा विरोध कर रही है। फिर माकपा सहित वामदलों को साथ लाने की भी समस्या है। वो एक बार घोषणा भी कर चुकी हैं कि प. बंगाल में कांग्रेस के साथ समझौता नहीं करेंगी। इस तरह भले उन्होंने नायडू के साथ बाहर आकर बयान दे दिया कि भाजपा को हराना हम सबका लक्ष्य है और इसमे हम साथ हैं, पर उनके लिए दिल्ली बैठक में शामिल होना आसान नहीं था। अगर वो साथ हैं तो एक बार सारे नतओं के साथ बैठने में क्या समस्या थी? वास्तव में ममता तो पहले यह उम्मीद कर रहीं थीं कि नायडू भी गैर कांग्रेसी मोर्चा में आ जाएंगे।
आखिर तेलुगू देशम की स्थापना का आधार ही कांग्रेस विरोध था। यह भी ध्यान रखिए कि ममता बनर्जी स्वयं कोलकाता में विपक्षी दलों की एक रैली की तैयारी कर रहीं हैं। उसके लिए उन्होंने शिवेसना तक को निमंत्रण दे दिया, पर कांग्रेस एवं वामदलों को नहीं। तो यह है उनकी नीति। अगर राजनीति के आम मानवीय व्यवहार की दृष्टि से देखें तो हो सकता है उन्हें इस बात से भी समस्या हो कि जिस गठबंधन की पहल वो कर रहीं थीं उसका सेहरा चन्द्रबाबू नायडू के सिर पर बंध जाए। उंचाई पर पहुंचने के बावजूद आम मानवीय कमजोरियों से सभी बाहर नहीं आ पाते। और राजनीति में अपना कद और प्रभाव विस्तार की ही तो सारी प्रतिस्पर्धा एवं कवायद है।
जाहिर है, जो लोग नायडू के प्रयासों से उत्साहित थे उन्हें अवश्य निराशा हुई होगी। पवार ने तो यहां तक कह दिया था कि नायडू ही गठबंधन एवं पार्टियों के सीट समझौते की मध्यस्थता करेंगे। 1996 में संयुक्त मोर्चा का संयोकतत्व नायडू के हाथों था। इससे भी कुछ नेताओं को समस्या होगी। हो सकता है कि कुछ ने ममता बनर्जी से बात भी की होगी। कम से कम के. चन्द्रशेखर राव ने तो अवश्य की होगी कि किस तरह तेलुगू देशम एवं कांग्रेस ने उनके खिलाफ मोर्चाबंदी की है। वैसे नायडू को मायावती ने भी सकारात्मक उत्तर नहीं दिया था। मायावती ने साफ कहा था कि कांग्रेस अपने प्रभाव वाले राज्यों में थोड़ी भी उदारता दिखाने के लिए तैयार नहीं है तो फिर गठबंधन हो कैसे सकता है। उन्होने कह दिया था कि जब कांग्रेस मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान मेें हमारे साथ गठबंधन करने को तैयार नहीं हुई तो उत्तर प्रदेश में हमें भी उनके बारे विचार करना होगा। जैसी भाषा अखिलेश यादव व मायावती कांग्रेस के खिलाफ विधानसभा चुनावों में इस्तेमाल कर रहे हैं उसमें उनके कांग्रेस की भागीदारी वाली बैठक में भाग लेने का कोई कारण नहीं था। ममता, मायावती और अखलेश शामिल नहीं होते तो महागठबंधन का नाम से आयोजित बैठक ही उपहास बन जाता।
कहने का तात्पर्य यह कि महागठबंधन की योजना वाले पूर्व निर्धारित दिल्ली बैठक का तत्काल रद्द होना यह साबित करता है कि कल्पना और वास्तविकता में काफी अंतर है। इसके रास्ते अनेक बाधायें हैं। भाजपा को हरायें इससे सब सहमत हैं, पर इसके लिए किसी पार्टी या नेता के प्रति आग्रह-दुराग्रह कुछ समय के लिए परे रखने और अपने राजनीतिक हित का थोड़ा भी परित्याग करने की मानसिकता किसी में नहीं है। वस्तुतः भाजपा को पराजित करके सत्ता का भागीदार बनने की आकांक्षा सबकी है और यह भी बिना शर्त एक साथ आने में बाधा है। अगर चुनाव परिणाम वैसा आता है तो अंततः अंकगणित ही मुख्य निर्धारक होगा तो कोई अपनी एक भी सीट कम करने के लिए आसानी से तैयार कैसे हो सकता है। बहरहाल, अब जैसी सूचना है यह बैठक जनवरी में आटोजित होगी। तो यह उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करेगी। देखेंगे उस बैठक का स्वरुप क्या होता है, उसमें शामिल कौन होते हैं और वहा से कुछ ठोस निकलता है या केवल बयानवाजी तक सीमित रहता है। वैसे अखिलेश यादव कह रहे हैं कि कांग्रेस से जो व्यवहार हमारे साथ किया है वैसा ही हम उत्तर प्रदेश में उनके साथ करें तो उनकी क्या हालत होगी।
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