मजदूर दिवस पर विशेष- : हमारा कुछ नहीं बनता सियासी कारखानों में | Alienture हिन्दी

Breaking

Post Top Ad

X

Post Top Ad

Recommended Post Slide Out For Blogger

Wednesday 1 May 2019

मजदूर दिवस पर विशेष- : हमारा कुछ नहीं बनता सियासी कारखानों में

अशोक सिंह विद्रोही / कर्मवीर त्रिपाठी
विश्व में मनाए जाने वाले तमाम दिवसों में से एक दिवस मजदूर दिवस के नाम से हर साल 1 मई को मनाया जाता है इसे प्यार कहूं या मजदूरी के प्रति हमदर्दी लेकिन 1 मई को आखिरकार खून पसीना बहाने वाले मजदूरों को अधिकारिक छुट्टी मिल ही जाती है। दुनिया में मजदूर दिवस (लेबर डे) की शुरुआत 1 मई 1886 को अमेरिका के मजदूर संघ के द्वारा 8 घंटे से ज्यादा काम नहीं करने पर हड़ताल के रूप में प्रारंभ हुआ। इस हड़ताल के दौरान शिकागो की हे मार्केट में बम ब्लास्ट हुआ। जिससे निपटने के लिए पुलिस ने मजदूरों पर गोली चला दी जिसमें कुछ मजदूरो की असमय अकस्मात मौत हो गयी। इस घटना के बाद 1989 में अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में ऐलान किया गया की हे मार्केट की घटना की याद में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाएगा। इस दिन सभी कामगारों व श्रमिकों का अवकाश रहेगा।आज दुनिया भर के लगभग 80 देशों में इस दिन राष्ट्रीय अवकाश होता है।

बात अगर भारत सरकार के मजदूर दिवस के इतिहास पर की जाए तो यहां लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान में कामकाजी लोगों के सम्मान में 1 मई 1923 को मद्रास में इसकी शुरुआत की थी। हालांकि उस समय इसे मद्रास दिवस के रुप में मनाया जाता था। जहां एक तरफ समूची दुनिया मजदूर दिवस के नाम पर लगभग 133 वर्ष का सफर तय कर चुकी है। वही देश में लगभग 96 वर्ष का लंबा समय बीत गया किन्तु मजदूरों की दशा और दिशा में रत्ती भर भी सुधार न था।

किसी प्रभावी कार्य योजना को जमीनी धरातल पर उतारने में नाकाम ही साबित हुयी है । जाति पात और मंदिर-मस्जिद जैसे राजनीतिक मुद्दों पर तो सरकार से लेकर सामाजिक सरोकारों से जुड़े विभिन्न संगठन खूब हंगामा मचाते हैं लेकिन मजदूरों की दशा और दिशा जस की तस बनी हुयी है ।आजादी के 70 साल बाद भी सरकारी दफ्तरों में तो 8 घंटे काम का मानक तय किया गया है लेकिन निजी काल कारखाने व व्यवसायिक प्रतिष्ठान और टाइम का लालच देखकर मजदूरों कामगारों का शोषण करने से नहीं चूकते हैं ।भारत के संविधान तथा समय-समय पर विभिन्न आदेशों के बावजूद भी मजदूरों की मूलभूत आवश्यकता व समस्याओं पर ना तो केंद्र सरकार ना ही किसी राज्य सरकार ने ही कोई ठोस नीति अब तक बनाई है। खानापूर्ति के वास्ते सफेद हाथी साबित हो रहे श्रम विभाग व मजदूरों से जुड़े आयोगों व संगठनों की पहुंच कितने मजदूरों तक है इसका सही सही आंकड़ा किसी भी सरकारी दस्तावेज में खोजना दूभर है। मजदूरों के नाम पर सैकड़ों संगठन अपना राजनैतिक सरोकार सीधा करने के लिए चंदा धरना और आंदोलन के जरिए मजदूरों की भीड़ जुटाकर सत्ता के गलियारों तक अपनी पहुंच व पकड़ बनाते हैं। शायद ही कोई विभाग कार्यालय या व्यवसायिक प्रतिष्ठान हो जहां पर मजदूर यूनियन का दखल ना हो।

माननीय उच्चतम न्यायालय के विभिन्न आदेशों में भी मजदूरों के सामाजिक आर्थिक स्तर में सुधार के लिए कई आदेश दिए गए हैं। बावजूद इसके उन आदेशों की एक फाइल बनाकर किसी सरकारी दफ्तर के सरकारी अलमारी में दबा दिया गया है।

कुछ पंक्तिया अपने मजदूर साथीयो के लिए

*मैं मजदूर हूं, मजबूर नहीं*
*यह कहने में मुझे शर्म नहीं आती*
*अपने खून पसीने की खाता हूं*
*मैं मिट्टी को सोना बनाता हूं*

देश में आज भी ऐसे मजदूरों की एक बड़ी संख्या है जिन्हें उनके घर से ईंट भट्टे में काम करने के लिए ले जाया जाता है और फिर वे बिना मेहनताने के वहां भटकते रहते हैं।

भारतीय संविधान में श्रमिकों की सहूलियत के लिए कुछ ऐसे प्रावधान रखे गए हैं जिनका लाभ उन्हें मिला है । श्रमिकों से लिए जाने वाले काम के घंटे निर्धारित कर दिए गए हैं । उनसे अतिरिक्त श्रम लेने पर अतिरिक्त भुगतान भी करना पड़ता है । बंधुआ मजदूरी की प्रथा को कानूनी तौर पर समाप्त कर दिया गया है । श्रम से संबंधित मामलों के निबटारे के लिए श्रम-न्यायालय खोले गए हैं । बच्चों से काम लेने की प्रथा को कानूनी तौर पर समाप्त कर दिया गया है । श्रम संगठनों को अपने हित के लिए आन्दोलन चलाने का अधिकार प्रदान किया गया है ।

इन सबके बावजूद श्रमिकों के कल्याण की दिशा में अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है । खासकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए अभी अनेक कार्य करने हैं । उन्हें पेंशन तथा कुछ सामाजिक सुरक्षा देने की जरूरत है । मजदूरों के श्रम का सम्मान होना चाहिए । उनकी जीवन-दशा में सुधार की प्रक्रिया तेज की जानी चाहिए । ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि उन्हें बारहों महीने पर्याप्त काम मिले । राष्ट्र की प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले को प्रगति के लाभों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए ।

मजदूर अपना श्रम बेचता है । बदले में वह न्यूनतम मजदूरी प्राप्त करता है । उसका जीवन-यापन दैनिक मजदूरी के आधार पर होता है । जब तक वह काम कर पाने में सक्षम होता है तब तक उसका गुजारा होता रहता है । जिस दिन वह अशक्त होकर काम छोड़ देता है, उस दिन से वह दूसरों पर निर्भर हो जाता है । भारत में कम से कम असंगिठत क्षेत्र के मजदूरों की तो यही स्थिति है । असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की न केवल मजदूरी कम होती है, अपितु उन्हें किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा भी प्राप्त नहीं होती ।

मजदूर हमारे समाज का वह तबका है जिस पर समस्त आर्थिक उन्नति टिकी होती है ।
संगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति कुछ अच्छी है । उन्हें मासिक वेतन, महँगाई भत्ता, पेंशन एवं अन्य सुविधाएँ प्राप्त हैं । उनके काम करने की दशाएँ बेहतर होती हैं । कार्य के दौरान मृत्यु होने पर उन्हें विभाग की ओर से सुरक्षा प्रदान की जाती है ताकि उनका परिवार बेसहारा न हो ।

No comments:

Post a Comment

Post Top Ad