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Monday, 13 May 2019

आर्थिक तंगी में आत्महत्याओं की त्रासदी

ललित गर्ग

आम आदमी के लिये इनदिनों परिवार का भरण-पोषण, शिक्षा, चिकित्सा, विवाह आदि मूलभूत जरूरतों का पूर्ति कर पाना जटिल होता जा रहा है। विशेषतः शहरी जीवन में ये जरूरतंे कुछ ज्यादा ही त्रासद रूप में सामने आ रही है, एक ऐसा अंधेरा जीवन में उतर रहा है, जहां लोगों के सामने आत्महत्या ही एकमात्र रास्ता बच रहा है। आर्थिक तंगी में देश के अनेक क्षेत्रों में अनेक लोग रोज अपनी इहलीला आत्महत्या करके समाप्त कर रहे हैं। आम जनजीवन के परिवारों में उठने वाला यह धुआं नहीं बल्कि ज्वालामुखी का रूप ले रहा है। जो न मालूम क्या कुछ स्वाह कर देगा। जो न मालूम राष्ट्र से कितनी कीमत मांगेगा। विडम्बनापूर्ण तो यह है कि इन स्थितियों का विकराल रूप सामने आने के बावजूद चुनाव में इनकी किसी भी राजनीतिक दल के द्वारा कोई सुध नहीं ली गयी है। लोकतंत्र के कर्णधारों! अपने ही आमजन से संवादहीनता लोकतंत्र के मिजाज के खिलाफ है। लिखित संविधान से ज्यादा महत्वपूर्ण अलिखित संवैधानिक परम्पराएं होती हैं। संविधान की लिखित धाराएं तो मार्गदर्शिका होती हैं। राह तो उन पर चलने वाले पदचिन्हों से बनती है, क्यों नहीं राजनीति के सिपहसलाहकार रोशनी बनकर इन त्रासद स्थितियों के नियंत्रण का माध्यम बनते।

आर्थिक तंगी, कर्ज का बोझ, पारिवारिक कलह, परीक्षा या प्रेम में विफलता आदि के चलते खुदकुशी की घटनाएं पिछले कुछ सालों में लगातार बढ़ती गई हैं। आईपीएल सट्टे में भारी नुकसान उठाने के बाद वाराणसी और मुरादाबाद में दो लोगों की खुदकुशी ने एक बार फिर इन सवालों को रेखांकित किया है। वाराणसी में जिस व्यक्ति ने आत्महत्या की, उसने अपनी तीन बेटियों को भी जहर खिला दिया। वह रेहड़ी पर कपड़े बेचने का काम करता था। मुरादाबाद के व्यक्ति ने खुद को फांसी लगा ली। आए दिन ऐसी त्रासद एवं खौफनाक खबरें मिल जाती हैं। इसके पीछे बड़ा कारण शहरी दबाव एवं जीवन निर्वाह के जरूर साधन न जुटा पाने की विफलता है।

बहुत सारे लोग गांवों, कस्बों, छोटी जगहों से पलायन कर बड़े शहरों में इस उम्मीद के साथ आते हैं कि वे वहां जीवनयापन के कुछ बेहतर साधन तलाश लेंगे, मगर जब विफल होते हैं तो निराशा में खुदकुशी जैसे कदम उठाते हैं। एक बड़ा प्रश्न है कि हम प्रतिकूल परिस्थितियों में घबराकर जीवन से पलायन क्यों करने लगे हैं? गहरी निराशा की चरम अवस्था ही आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है। अंग्रेजी में एक शब्द है- होपलेसनेस, यह गहरी निराशा से जन्म लेता है कि अब तो मेरा कुछ हो ही नहीं सकता, इसलिए मर जाना ही बेहतर है। देश का आमजन जब जीवन को समाप्त करने के लिए आमादा हो जाए और वह भी अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए, तो सचमुच पूरे राष्ट्र की आत्मा, स्वतंत्रता के सात दशकों की लम्बी यात्रा के बाद भी स्थिति की दयनीयता देखकर चीत्कार कर उठती है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2015 में पारिवारिक समस्याएं (27.6 प्रतिशत) और बीमारी (15.8 प्रतिशत) भारत में आत्महत्या करने के प्रमुख कारण रहे। वहीं इस वर्ष 4.8 प्रतिशत लोगों ने वैवाहिक जीवन से संबंधित मामले, 3.3 प्रतिशत ने दिवालियापन व इतने ही प्रतिशत ने प्रेम से जुड़े मामले, 2.7 प्रतिशत ने नशा व शराब की लत, 2.0 प्रतिशत परीक्षा में असफलता व इतने ही प्रतिशत ने बेरोजगारी, 1.9 प्रतिशत ने संपत्ति विवाद, 1.3 प्रतिशत ने गरीबी और 1.2 प्रतिशत लोगों ने पेशेवर- कैरियर संबंधी समस्याओं के कारण आत्महत्या कर ली थी। आत्महत्या! क्यों कर रहा है देश का आम आदमी? निराशा एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में पलायन करने की यह भारत की परम्परा नहीं रही। आत्महत्या का एक कारण हो सकता है, पर जीने के तो हजार कारण हैं। हमें अलविदा कहना होगा उन सब जड़ और चेतन की बदलती पर्यायों और परिणामों को जो हमें जीवन की शांति एवं जीवननिर्वाह से वंचित रखकर आत्महत्या के लिये विवश करते हैं। प्रभु ने हम सबको कुछ सांसें दी हैं, जीवन को प्राणवान बनाने के लिए, न कि निराशा में आत्महत्या करने के लिये।

बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं को लेकर अनेक समाज-मनोवैज्ञानिक अध्ययन हो चुके हैं। पर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि लोग मानसिक रूप से इतने कमजोर एवं कायर कैसे होते जा रहे हैं कि संघर्ष के बजाय मामूली विफलता के बाद आत्महत्या को आसान विकल्प के तौर पर चुन लेते हैं। आपसी संवादहीनता, दायित्व और कत्र्तव्य की सिमटती सीमाएं, सुविधावादी एवं भोगवादी जीवनशैली-ऐसे कारण हैं जो हमारे जीने के तौर-तरीकों पर प्रश्न-चिह्न टांग रहे हैं।

हमारा समाज भी इतना आत्मकेंद्रित कैसे होता गया है कि ऐसे परेशान लोगों को किसी तरह का संबल एवं सहारा नहीं दे पाता। आर्थिक तंगी की वजह से जितनी भी आत्महत्याएं होती हैं, उनमें आमतौर पर परिवार पालने के लिए संघर्ष कर रहे लोग होते हैं। उन्हें जीवन की जरूरी चीजें जुटाने के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ता है। वाराणसी के जिस व्यक्ति ने खुदकुशी की उसने अपनी तीन बेटियों को भी जहर दे दिया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस पर उनके पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई, विवाह आदि को लेकर कितना दबाव रहा होगा। इसी के चलते उसने आसानी से खूब सारा पैसा कमाने की ललक में सट्टेबाजी का रास्ता चुना होगा।

भौतिक सुख-सुविधाओं को उतना ही फैलाव दें जितना हमारा सामथ्र्य हो। शान-शौकत और झूठी प्रशंसा की भूख बिना बुनियाद मकान बनाने जैसी बात है, जो कभी भी मनुष्य को बेघर बना सकती है, या आत्महत्या के ताने-बाने बुन सकती है। आवश्यकताओं का संयम एवं भोग की सीमाकरण जरूरी है। मुरादाबाद वाला व्यक्ति महाराष्ट्र से चल कर किसी बड़े सपनों को लेकर मुरादाबाद आकर बस गया था। उससे भी इसी तरह पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह न कर पाने की वजह से सट्टेबाजी का रास्ता चुना फिर और फिर विफल होने पर खुदकुशी कर ली। इसी तरह अच्छे कैरियर और असफलता के भय के बढ़ते दबाव में आकर छात्र कई बार आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, देशभर में साल 2014 से 2016 के बीच 26,476 छात्रों ने आत्महत्या की। इनमें 7,462 छात्रों ने आत्महत्या विभिन्न परीक्षा में फेल होने के डर से की थी। बच्चों की बढ़ती आत्महत्या भारतीय शिक्षा व्यवस्था कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करती है।

आत्महत्या की घटनाओं ने देश के अधिकांश परिवारों को इतना अधिक उद्वेलित किया है जितना कि आज तक कोई भी अन्य मसला नहीं कर पाया था। समाज में आर्थिक असमानता और गलत तरीके से धन कमाने की प्रवृत्ति इस कदर बढ़ी है कि संपन्नता हासिल करने की गलाकाट प्रतियोगिता-सी शुरू हो गई है। फिर आर्थिक विषमता दूर करने की व्यवस्थागत चिंता भी अब दिखाई नहीं देती। ऐसे में सामान्य लोगों के लिए जीवन की दुश्वारियां लगातार बढ़ी हैं। गरीब और गरीब होते गए हैं।

यही वजह है कि खुदकुशी की ज्यादातर घटनाएं सीमित किसानों, छोटे और मझोले कारोबारियों में अधिक दिखाई देती हैं। जब किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी थीं, तब खेती में सुविधाएं बढ़ाने पर जोर दिया गया था, मगर शहरों में रोजमर्रा की जरूरतों के लिए संघर्ष करने वाले लोगों के लिए जीवन संबंधी सुरक्षा के किसी व्यावहारिक उपाय पर अभी तक गंभीरता से विचार नहीं हुआ है। आम आदमी के जटिल एवं त्रासद होते जीवन पर गंभीरता से चिन्तन करना नये भारत एवं सशक्त भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए।

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