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Saturday 11 August 2018

स्वतन्त्र भारत के 70 साल: सफल मंगलयान मिशन बनाम भूख से होती मौतें!

आनन्द उपाध्याय ‘सरस’

नाम-अनाम अनगिनत राष्ट्रप्रेमी पुरोधाओं, असंख्य स्वतन्त्रता सेनानियों, गांधीवादियों और क्रान्तिकारियों के सम्मिलित बलिदान के बूते आजादी हासिल कर भारत ने विश्व मानचित्र पर सम्प्रभु राष्ट्र के रूप में 15 अगस्त 1947 को अपनी ऐतिहासिक पहचान दर्ज करवाई। वर्षों की गुलामी के बाद स्वतन्त्र भारत ने अपने ‘परों‘ से विश्व पटल पर विकास की उड़ान शुरू कर प्रगति के सोपानों को क्रमशः अंगीकृत करना शुरू किया। मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति को अख्तियार करते हुए जहाॅं पं0 जवाहर लाल नेहरू ने दूरगामी सोच के चलते भारत हैवी इलेक्ट्रिकल, हिन्दुस्तान एअरोनाॅटिक्स, भाखड़ा नांगल डैम जैसी अनेक परियोजनाओं को अमली जामा पहनाया वहीं दूसरी ओर कुटीर उद्योग और ग्रामीण उद्योगों को भी बराबरी से प्रोत्साहित करने का जतन किया।

पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से राष्ट्र की तात्कालिक आवश्यकताओं के आकलन के साथ ही भविष्य की योजनाओं को भी मूर्तरूप देने का खाका तैयार कर ठोस प्रयास प्रारम्भ किया गया। आजादी के पूर्व और स्वतन्त्रता मिलने के प्रारम्भिक वर्षों में देश अकाल, सूखे, अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण तथा गैर वैज्ञानिक खेती और बागबानी की पद्धति के चलते खाद्यान्न और दूध के उत्पादन की भारी किल्लत से जूझ रहा था।

कृषि वैज्ञानिक के रूप में हरित क्रान्ति के जनक बनकर डा0 एम0एस0 स्वामीनाथन ने देश के प्रत्येक राज्य में कृषि, बागबानी, मत्स्य पालन, पशुपालन इत्यादि क्षेत्रों में विश्वविद्यालयों की श्रृंखला प्रारम्भ कराकर इन कृषि विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाओं और वैज्ञानिकों को पारंपरिक खेती के तरीकों को वैज्ञानिक और उन्नतिशील विकल्प प्रदान कर पूरे देश में ‘ग्रीन रिवोल्यूशन‘ की जो अलख जगाई, उससे शनैः-शनैः भारत कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर ही नहीं बना अपितु भारी मात्रा में खाद्यान्न उत्पादों का निर्यातक भी बन गया है। इसी कड़ी में डा0 डी0 वर्गीज कुरियन ने गुजरात और महाराष्ट्र में दुग्ध उत्पादकों को को-आपरेटिव संजाल से जोड़कर पूरे देश को नया संदेश दिया और उनकी मौलिक और वैज्ञानिक पहल के कारण इस मिल्कमैन ने अधीन पूरा देश दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में अग्रणी होकर सामने आया।

बीते दिनों राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया में प्रकाशित खबरों के मुताबिक फ्रांस को पीछे छोड़ते हुए भारत का विश्व की छठीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाना निश्चय ही एक बड़ी उपलब्धि है। विश्व बैंक की जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में भारत की जी0डी0पी0 2.597 खरब डाॅलर तक जा पहुॅंची है।

भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए यह महत्वपूर्ण घटना है। अर्थशास्त्रियों को उम्मीद है कि इसी वर्ष ब्रिटेन को पीछे छोड़ते हुए भारत के पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की प्रबल संभावना विद्यमान है। लंदन स्थित कंसल्टेंसी फर्म सेन्टर फाॅर इकोनामिक्स एण्ड बिजनेस रिसर्च का अनुमान है कि भारत जल्द ही जी0डी0पी0 के मामले में कई विकसित राष्ट्रों को पीछे छोड़ देगा। भारत दुनिया की चैथी बड़ी सैन्य ताकत बनकर उभरा है। दुनिया के प्रमुख 136 देशों की सैन्य शक्तियों का आकलन करने वाली संस्था ’ग्लोबल फायर पावर’ के अनुसार इस रैंकिंग में पहले नम्बर पर रूस जबकि पांचवे पायदान पर फ्रांस मौजूद है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आई.एम.एफ.) ने विगत चार वर्षों में अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए उठाए गये कदमों की प्रशंसा करते हुए भारत की मौजूदा आर्थिक विकास दर 7.3 को अगले साल तक 7.5 प्रतिशत हो जाने की आशा जताई गई है।

वैश्विक अंतरिक्ष कार्यक्रम में न्यूनतम खर्च पर मंगलयान का प्रक्षेपण कर भारत ने विश्व में अपनी गौरवशाली वैज्ञानिक उपलब्धि का परचम लहराया है। उपग्रह निर्माण और प्रक्षेपण की ऐतिहासिक क्षमता हासिल की है। चन्द्रयान अभियान की भी तैयारी की चर्चा है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत को शीर्षता प्राप्त है। चिकित्सकीय अनुसंधान और उपचार के क्षेत्र में भी भारतीय फिजिशियन और सर्जन यूरोप सहित पूरे विश्व में अपनी कीर्ति पताका फहरा रहे हैं। आजादी प्राप्ति के सात दशक के बाद भी विद्युतीकरण से वंचित रह गये 18 हजार गांव में मौजूदा केन्द्र सरकार के अथक प्रयासों के तहत बिजली कनेक्शन देकर एक कीर्तिमान स्थापित किया गया है।

इतने उजले सोपानों के होने के बावजूद आजादी की 71वीं वर्षगांठ मना रहा भारत अनेक क्षेत्रों में गंभीर विसंगतियों से आज भी पूर्ववत जूझने को विवश है। विश्व स्तर के सूचित मानव संसाधन इंडेक्स में भारत की स्थिति आज भी असंतोषजनक ही नहीं अपितु लज्जाजनक दृष्टिगत होती है। आजादी के 71 साल बाद भी देश के समक्ष अनेक भयावह समस्याएॅं विकास के सोपानों को मुॅंह चिढ़ाती नजर आती हैं। हिन्दुस्तान के गरीब खेतिहर किसान, मजदूर, आम आदमी को जिस प्रकार बुनियादी सुविधाओं का टोटा विद्यमान है वह हमारे मौजूदा विकास के ढांचे को कदाचित मुॅंह चिढ़ाता हुआ नजर आता है।

एक ओर अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक जनरल्स और ग्रेडिंग संस्थानों की रिपोर्ट्स में भारत में करोड़पतियों और अरबपतियों की बढ़ती संख्या का गौरवगान प्रकाशित होता है वहीं दूसरी ओर कालाहांडी, सुकमा, हजारीबाग, पूर्वी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में आत्महत्या करते सैकड़ों किसानों की अप्रत्याशित आत्महत्याओं की खबरों से देश शर्मसार होता है। छोटे-छोटे कर्जों की भरपाई न कर पाने या फसल बर्बाद हो जाने के कारण आज भी सीमान्त और छोटा किसान लाचार नजर आता है।

देश में लाखों की संख्या में असंगठित मजदूरों की हालत का कोई पुरसाहाल नहीं है। आतंकवाद का चैतरफा खतरा, बढ़ती आर्थिक असमानता, भीषण बेरोजगारी, गंभीर भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद, जातीय उन्माद, धर्मान्धता, सामाजिक असुरक्षा, महिला उत्पीड़न, बालश्रम, सांस्कृतिक व जीवन मूल्यों का गंभीर क्षरण, बढ़ती नशाखोरी, अपसंस्कृति का घुलता जहर, पाश्चात्य विसंगतियों का अंधानुकरण, सरकारी बुनियादी शिक्षा सिस्टम की दुर्दशा, विधायिका से जुड़े कर्णधारों का अपराध में लिप्त होना, मौजूदा चुनाव प्रणाली की कमियों और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की दयनीय दशा के साथ ही पीने के पानी की अनुपलब्धता, लैंगिक विभेद, बलात्कार की भयावह घटनाओं की बाढ़ जैसे अनगिनत समस्याओं के बीच दिशाहीन भविष्य के कुहासे के बीच आम आदमी 70 वर्षीय लोकतंत्र के चक्रव्यूह में जैसे घिर कर रह गया है।

स्वतन्त्रता के पश्चात् विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के सतत् क्रियान्वयन के बाद देश में आज भी निरक्षरता और भयावह गरीबी कायम है। नई पीढ़ी में तो जैसे राष्ट्रप्रेम की भावनात्मक कसक क्षीण हो चली है। आज 70 वर्ष बाद भी राष्ट्र कई मुहानों पर एक ऐसे चैराहे पर खड़ा नजर आता है जिसमें धुंधलका विद्यमान है। सात दशक की इस समयावधि में हालांकि राष्ट्र को अनेक उपलब्धियाॅं भी प्राप्त हुई हैं परन्तु उपलब्धियों के इन कीर्तिमानों की चकाचैंध असंतुलित और अनियोजित विकास के चलते फीकी मालूम होती हैं।

बेलगाम जनसंख्या वृद्धि जारी है। जनसंख्या विस्फोट का मसला राजनीतिक पार्टियों की प्राथमिकता से बाहर जा चुका है। जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे को वोट की राजनीति के चलते सरकारों ने दाखिले दफ्तर कर दिया है। परन्तु विभिन्न तात्कालिक लाभ के तुच्छ कारणों के चलते और सम्प्रदाय विशेष को खुश करने की तुष्टीकरण की नीति की आढ़ में इस ज्वलंत समस्या की सर्वथा अनदेखी कर दी गई और इसे एक औपचारिक स्वैच्छिक कार्य योजना का रूप देकर उदासीनता ओढ़ ली गई। इसका नतीजा आज सवा अरब से भी ज्यादा पहुॅंच चुकी देश की आबादी के रूप में सामने है। जनसंख्या विस्फोट के चलते संसाधनों का टोटा होना और बुनियादी सुविधाओं में बदहाली होना स्वाभाविक रूप में सामने आया है।

व्यक्तिगत भ्रष्टाचार संस्थागत स्वरूप ले चुका है। भारतीय लोकतंत्र के चारों प्रमुख स्तम्भों यथा विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस में भ्रष्टाचार में चैतरफा अभिवृद्धि हुई है। राज्य सरकारों के अथवा केन्द्र सरकार के कार्यालयों में भ्रष्टाचार एक कार्य संस्कृति बन चुका है। शिक्षण संस्थाओं, सरकारी चिकित्सालयों, बुनियादी सुविधाओं से जुड़े सभी महकमों में आम आदमी भ्रष्टाचार के चलते त्राहि-त्राहि करता नजर आता है। सामान्य भर्तियों से लेकर प्रान्तीय सिविल सेवा जैसी भर्तियों तक में बेईमान और अक्षम लोगों को चयन समिति में शामिल कराकर अपने शुभचिन्तकों को चोर दरवाजे से सरकारी कर्मचारी और अफसर बनाने के मामले इसके गवाह हैं। दिल्ली एन0सी0आर0 सहित विभिन्न राज्यों के राजधानी क्षेत्रों में राष्ट्रीय सिविल सेवा/प्रान्तीय सिविल सेवा के नौकरशाहों की करोड़ों रूपये लागत की अट्टालिकायें देश के मेहनतकश अभावग्रस्त समुदाय को मुॅंह चिढ़ाती नजर आती हैं।

स्वार्थपरक और आपराधिक पृष्ठभूमि की घिनौनी राजनीति के मौजूदा दौर में भ्रष्टाचार व कदाचार आज देश की कार्यपद्धति का पर्याय जैसा नजर आता है। राजनीतिज्ञ और जरायमशुदा गलबहियाॅं डाले दीखते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व0 लालबहादुर शास्त्री जैसे व्यक्तित्व के इस देश में कालांतर में प्रधानमंत्री पद पर रहे महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों पर भ्रष्टाचार, भ्रष्ट तत्वों को संरक्षण, भाई-भतीजावाद जैसे गंभीर आरोप ही नहीं लगे हैं वरन् देश-प्रदेश के न्यायालयों में बाकायदा परिवाद दाखिल हुए हैं और अनेक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ सजायाफ्ता भी हुए हैं। दल-बदल कानून को अंगूठा दिखाकर स्वाार्थी और पदलोलुप तथा मूल्यविहीन नेता राजनीतिज्ञ दलों को निजी स्वार्थ में कपड़े की तरह बदलते दिखाई देते हैं। दलबदल कानून बेईमानी बनकर रह गया है। विभिन्न दलों के सांसदों या विधायकों द्वारा सरकार बनाने या बचाने में भारी खरीद फरोख्त की घिनौनी तस्वीरें इस स्वतन्त्र राष्ट्र ने अनेक अवसरों पर देखी हैं।

आजादी के बाद स्वदेशी व स्वावलम्बन की नीति की जगह जिस सब्सिडी कल्चर की नींव डाली गयी उसने समाज में अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार को जन्म दिया। प्राथमिक शिक्षा के हालात सात दशक बाद भी संतोषजनक नहीं कहे जा सकते। देश में दो प्रकार की समानांतर शिक्षा प्रणाली के चलते सरकारी स्कूलों और काॅन्वेंट कालेजों से अलग-अलग पीढ़ी सामने आ रही है। लार्ड मैकाले की थोपी गई शिक्षा पद्वति आज भी व्हाइट काॅलर की जमात पैदा करने तक ही सक्षम हो पायी है। देश में ब्रिटिश पद्वति के नौकरशाहों को तैयार करने की उसी पारम्परिक तर्ज पर ही संचालित भारतीय प्रशासनिक सेवा आज विवादास्पद और अव्यवहारिक-सी प्रतीत होती है।

आज भारतीय राजनीति संकीर्ण जातिवाद, संप्रदायगत तुष्टीकरण, क्षेत्रवाद, छद्म धर्मनिरपेक्षतायुक्त और स्वार्थपरता का स्वरूप लेकर एक व्यवसाय के रूप में परिवर्तित हो चली है। राजनीति में विचारधारा व सिद्धान्तों की जगह व्यक्तिगत स्वार्थ और पदलिप्सा हावी हो चुकी है, मूल्यों का सर्वथा लोप हो चुका है। वोट बैंक की राजनीति के चलते बांग्लादेशी तथा रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों को राष्ट्रीय सुरक्षा को ताक पर रखकर शरण दी जा रही है। मानवाधिकार संरक्षण के नाम पर तथाकथित छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों और बुद्धिजीवियों की जमात पैरवी में खड़ी है। भारतीय सेना की वीरगाथा की सराहना की बजाय विपक्षी पार्टियों के नेता शर्मनाक तरीके से सबूत मांगते नजर आ रहे हैं। सदन अपनी गरिमा खोते जा रहे हैं। प्रतिदिन की कार्यवाही में लाखों के खर्चे के बावजूद प्रायः कोरम का प्रश्न पैदा हो जा रहा है। अश्लील गाली-गलौज, अशिष्टता, नारेबाजी आज सदन की पहचान बन चुका है। मौजूदा सदन अपराधियों, माफियाओं और संसदीय ज्ञान से जड़ लोगों से पटा पड़ा है।

भारतीय स्वतन्त्रता की 71वीं वर्षगांठ के इस पुनीत और गौरवशाली अवसर पर पूरे राष्ट्र को नये सिरे से चिन्तन और आत्मावलोकन की आज महती आवश्यकता आन पड़ी है। भारत को वैश्विक परिदृश्य में आत्मनिर्भर, सम्प्रभु, सुरक्षित, उन्नतिशील तथा अग्रगामी पथ पर निरन्तर अग्रसर किये जाने हेतु भारतीय लोकतंत्र में समाहित विसंगतियों को पूरी शिद्दत और संजीदगी के साथ दूर किये जाने हेतु अथक प्रयास प्रारम्भ किया जाना अपरिहार्य है। गरीबी, आर्थिक असमानता, निरक्षरता, भ्रष्टाचार, जातिवाद, साम्प्रदायिक मनमुटाव को प्रत्येक नागरिक सामाजिक अभियान के तौर पर हटाने का सम्मिलित प्रयास करें। यदि इस दिशा में त्वरित प्रयास नहीं किया जाता है तो वैश्विक पटल पर राष्ट्र अपनी मौजूदा साख को कायम रख पाने में सफल नहीं हो पाएगा। निश्चय ही भारत आम नागरिक कदाचित ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होने देंगे, यह आशा की जानी चाहिए।

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