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Wednesday, 19 September 2018

नेताओं की गोद: हकीकत या छलावा?

निर्मल रानी

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले दिनों मध्य प्रदेश विधानसभा के निकट भविष्य में होने वाले चुनावों के मद्देनज़र राजधानी भोपाल में एक विशाल रोड शो में हिस्सा लिया। इस रोड शो को जहां कांग्रेस जनों द्वारा राहुल गांधी के अब तक के सबसे सफल शक्ति प्रदर्शनों में एक के रूप में देखा गया वहीं कांग्रेस से सबसे अधिक भयभीत दिखाई देने वाली सत्तारूढ़ भाजपा की ओर से इसे असफल या लाप प्रदर्शन बताया गया। इस विशाल रोड शो के बाद मिले भारी जनसमर्थन देखते हुए जहां प्रदेश के कांग्रेस नेताओं व कार्यकर्ताओं के हौसले बढ़े दिखाई दिए वहीं भाजपा की ओर से राहुल गांधी व कांग्रेस पार्टी पर कई आरोप मढ़े गए।

भाजपा की ओर से राहुल गांधी पर लगाए जाने वाले आरोपों में सबसे प्रमुख आरोप यह लगाया गया कि उन्होंने 2013 में भोपाल की रौशनपुरा नामक झुग्गी-झोंपड़ी कालोनी के एक बालक को गोद लिया था। प्रदेश भाजपा नेताओं के अनुसार आज वह बालक भोपाल की सड़कों पर अखबार बेचता फिर रहा है। वह बदहाली का जीवन व्यतीत कर रहा है। जबकि राहुल गांधी अपने उस गोद लिए हुए दत्तक पुत्र की कोई खैर-खबर नहीं ले रहे हैं। जिस समय भाजपा के प्रदेश कार्यालय में कथित रूप से राहुल गांधी द्वारा गोद लिए गए इस बालक को पेश किया गया उस समय प्रदेश के जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्र भी उसके साथ मौजूद थे। मंत्री महोदय ने यह भी घोषणा की कि राहुल गांधी के इस कथित दत्तक पुत्र के भरण-पोषण की जि़म्मेदारी अब भारतीय जनता पार्टी उठाएगी।

नि:संदेह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को इस बालक की सुध लेनी चाहिए थी। प्रदेश कांग्रेस कमेटी तथा भोपाल के स्थानीय कांग्रेस नेताओं को उस बालक के भरण-पोषण,उसकी शिक्षा तथा उसके उज्जवल भविष्य के लिए रचनात्मक कार्य करने चाहिए थे। यदि ऐसा हुआ होता तो भाजपा के किसी नेता को राहुल गांधी के इस कथित दत्तक पुत्र को उनकी गोद से उतारकर अपनी गोद में न चढ़ाना पड़ता। परंतु भाजपा द्वारा राहुल गांधी की कथित असफलता को अपनी सफलता में बदलने का प्रयास क्या किसी एक बालक को उनकी गोद से अपनी गोद में बिठाने जैसे प्रतीकात्मक संदेश से पूरा हो जाएगा? क्या भाजपा का इस प्रकार का सांकेतिक विरोध प्रदर्शन राहुल गांधी को नीचा दिखाने में और भाजपा को आदर व स मान दे पाने में सफल हो सकेगा? क्या यदि राहुल गांधी भोपाल के उस बच्चे की समुचित तरीके से देख-भाल करते या उसके उज्जवल भविष्य की,उसके भरण-पोषण आदि की पूरी चिंता करते तो भाजपा के पास राहुल गांधी का विरोध करने के लिए कोई मुद्दा ही न रह जाता? दरअसल इस प्रकार के ‘गोद बदलने जैसे सांकेतिक विरोध प्रदर्शन से भाजपा ने अपने लिए अनेक सवाल ज़रूर खड़े कर लिए हैं। राहुल गांधी ने तो एक बच्चे को गोद लिया जिसकी जि़म्मेदारी वह अपनी व्यस्तताओं के कारण शायद न निभा सके हों। यह उनके निकटस्थ सलाहकारों की गलती भी हो सकती है। परंतु वह सत्ता में नहीं बल्कि विपक्ष में हैं इसलिए किसी सत्तारूढ़ दल के किसी जि़म्मेदार मंत्री का सुनियोजित ढंग से राहुल गांधी द्वारा एक बालक को गोद लेने व इसकी जि़म्मेदारी न निभा पाने पर हंगामा खड़ा करने के मुद्दे ने स्वयं भाजपा के समक्ष कई सवाल खड़े कर दिए हैं।

इनमें सबसे प्रमुख सवाल यह है कि आखिर प्रधानमंत्री की सबसे महत्वपूर्ण आदर्श ग्राम योजना किस हाल से गुज़र रही है? इस योजना के तहत पहले चरण में जिन मंत्रियों व सांसदों ने अपने-अपने संसदीय क्षेत्रों में जिन गांवों को गोद लिया था आखिर उन गांवों का अब तक कितना विकास हुआ है? पहले चरण के बाद दूसरे व तीसरे चरण में कितने मंत्रियों व कितने सांसदों द्वारा इस योजना में दिलचस्पी दिखाते हुए और कितने गांव गोद लिए गए? यदि राहुल गांधी ने एक बच्चों को गोद लेने के बाद विपक्ष में रहते हुए अपने लिए यह सवाल खड़ा कर दिया है कि वे एक लापरवाह व वादाखि़लाफी करने वाले नेता हैं फिर आखिर शासक वर्ग से यह सवाल क्यों नहीं पूछा जा सकता कि समस्त सरकारी तंत्र व सुख-सुविधाएं एवं शासन की सभी सहूलियतें उपलब्ध होने के बावजूद यदि केंद्रीय मंत्रियों व सत्तारूढ़ सांसदों द्वारा गोद लिए गए गांव बदहाली के दौर से गुज़र रहे हैं और वही मंत्री व सांसद दूसरे व तीसरे चरणों में किसी दूसरे नए गांव को गोद लेने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे फिर आखिर इसका कारण क्या है? गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 11 अक्तूबर 2014 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जन्मदिवस के अवसर पर इस योजना की शुरुआत की थी।

आदर्श ग्राम योजना के अंतर्गत् मार्च 2019 तक प्रत्येक संसदीय क्षेत्र के तीन गांवों को विकसित किए जाने का लक्ष्य तय किया गया था। योजना के अनुसार तीन हज़ार से लेकर पांच हज़ार तक की आबादी वाले गांवों का चयन करना था इसके बाद विकास हेतु उस गांव का सर्वेक्षण किया जाना था। उसके पश्चात ऐसे गांवों के विकास से संबंधित योजना केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय को भेजी जानी थी तथा समय सीमा के भीतर ऐसे गांवों को आदर्श ग्राम के रूप में विकसित करने का लक्ष्य था।

क्या केंद्र सरकार या भाजपा शासित राज्यों के शासनतंत्र द्वारा यह बताया जा सकता है कि लगभग पांच वर्षों के पूरे होने जा रहे शासनकाल में भाजपा सांसदों व केंद्रीय मंत्रियों द्वारा गोद लिए गए गांवों में से अब तक कितने गांव आदर्श गांव बन चुके हैं? क्या वजह है कि वही सांसद व मंत्री जो पहले चरण में उत्साहवश कुछ गांव गोद ले बैठे थे अब उन गांवों का विकास न हो पाने के बाद उन्हीं गांवों को क्यों अपनी गोद से नीचे उतार कर फेंक रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि केवल भाजपा सांसदों या मंत्रियों द्वारा गोद लिए गए गांवों में ही आदर्श गांव योजना जैसी कोई चीज़ नज़र नहीं आ रही है बल्कि दूसरे दलों के सांसद भी इस योजना में पूरी तरह से निष्क्रिय साबित हो रहे हैं। क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र के गांव तो क्या सोनिया गांधी व राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्रों के गांव सभी अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहे हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वाराणसी से दूर जयापुर नामक जिस गांव को गोद लिया गया था उसी गांव में पंचायत चुनाव में भाजपा का उ मीदवार पराजित हो गया। यदि यहां आदर्श ग्राम योजना की चमक-दमक दिखाई देती तो शायद भाजपा को कम से कम इस गांव में तो पराजय का मुंह न देखना पड़ता।

भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी के वातावरण में आकंठ डूबे हमारे देश के शासनतंत्र में जिन आदर्श गांवों में सड़क, सफाई, बिजली,पानी,स्वास्थय आदि को लेकर जो काम हुआ भी था वह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है। आदर्श ग्राम योजना की ही तरह सत्ता में आने के बाद केंद्र सरकार द्वारा देश में सौ स्मार्ट सिटी बनाने की भी घोषणा की गई थी। परंतु अब तक न तो कोई स्मार्ट सिटी नज़र आ रहा है न ही कोई आदर्श ग्राम दिखाई दे रहा है। बदनामी का पर्याय बन चुके नेताओं के वादों,आश्वासनों में देश की जनता कल भी पिस रही थी और आज भी पिस रही है। सत्ता और विपक्ष के लोग एक-दूसरे को भ्रष्ट,अकर्मण्य व नालायक़ बताने में तथा प्रत्येक पक्ष अपने-आपको ही सबसे योग्य बताने में अपनी सारी ऊर्जा लगा रहा है। परिणामस्वरूप जनता, सत्ता और विपक्ष के आरोपों व प्रत्यारोपों के मध्य पिसी जा रही है। जनता से वोट मांगने के लिए अपनी योग्यता बताने के बजाए दूसरे को अयोग्य बताया जाना ज़्यादा ज़रूरी समझा जाने लगा है। ऐसे में नेताओं की गोद को आखिर क्या समझा जाए?

हकीकत या छलावा?

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