ऋतुओं में श्रेष्ठ शरद ऋतु, मासों में श्रेष्ठ ‘कार्तिक मास तथा तिथियों में श्रेष्ठ पूर्णमासी यानी प्रकृति का अनोखा माह तो है ही, त्योहारों, उत्सवों के माह कार्तिक की अंतिम तिथि देव-दीपावली है। इसे देवताओं का दिन भी कहा जाता है। तभी तो ‘देव दीपावली’ का उत्साह चारों ओर दिखाई देता है। कार्तिक माह के प्रारंभ से ही दीपदान एवं आकाश दीप प्रज्जवलित करने की व्यवस्था के पीछे धरती को प्रकाश से आलोकित करने का भाव रहा है, क्योंकि शरद ऋुतु से भगवान भास्कर की गति दिन में तेज हो जाती है और रात में धीमी। इसका नतीजा यह होता है कि दिन छोटा होने लगता है और रात बड़ी, यानी अंधेरे का प्रभाव बढऩे लगता है। इसलिए इससे लडऩे का उद्यम है दीप जलाना। दीप को ईश्वर का नेत्र भी माना जाता है। इस दृष्टिकोण से भी दीप प्रज्जवलित किए जाते हैं। इस माह की पवित्रता इस बात से भी है कि इसी माह में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्य आदि ने महापुनीत पर्वों को प्रमाणित किया है।
इस माह किये हुए स्नान, दान, होम, यज्ञ और उपासना आदि का अनन्त फल है। इसी पूर्णिमा के दिन सायंकाल भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था, तो इसी तिथि को अपने अत्याचार से तीनों लोकों को दहला देने वाले त्रिपुरासुर का भगवान भोलेनाथ ने वध किया। उसके भार से नभ, जल, थल के प्राणियों समेत देवताओं को मुक्ति दिलाई और अपने हाथों बसाई कााी के अहंकारी राजा दिवोदास के अहंकार को भी नष्ट कर दिया। इसीलिए काशीपुराधिपति बाबा विश्वनाथ का एक नाम त्रिपुरारी भी है। त्रिपुर नामक राक्षस के मारे जाने के बाद देवताओं ने स्वर्ग से लेकर काशी में दीप जलाकर खुशियां मनाई। तभी से तीनों लोकों में न्यारी काशी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन देवताओं के दीवाली मनाने की मान्यता है। देवताओं ने ही इसे देव दीपावली नाम दिया।
कहते है उस दौरान काशी में भी रह रहे देवताओं ने दीप जलाकर देव दीपावली मनाई। तभी से इस पर्व को कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर काशी के घाटों पर दीप जलाकर मनाया जाने लगा। मान्यता है कि इस दिन देवताओं का पृथ्वी पर आगमन होता है। इस प्रसन्नता के वशीभूत दीये जलाये जाते हैं। वैसे भी इस समय प्रकृति विशेष प्रकार का व्यवहार करती है, जिससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है और वातावरण में आह्लाद एवं उत्साह भर जाता है। इससे समस्त पृथ्वी पर प्रसन्नता छा जाती है।
पृथ्वी पर इस प्रसन्नता का एक खास कारण यह भी है कि पूरे कार्तिक मास में विभिन्न व्रत-पर्व एवं उत्सवों का आयोजन होता है, जिनसे पूरे वर्ष सकारात्मक कार्य करने का संकल्प मिलता है। इस बार 22 नवम्बर को तकरीबन 3 किमी से भी अधिक लंबा अर्धचंद्राकारी गंगा का किनारा लाखों दीपों की अल्पनाओं, लडिय़ों से किसी स्वर्गलोक की मानिंद आभा बिखेरेगा। विश्वसुंदरी पुल के पास मदरवा, सामने घाट से लेकर राजघाट व गंगा वरुणा संगम यानी सराय मोहाना तक घाट-घाट पर टिमटिमाती दीये रोशन होंगे।
पौराणिक मान्यताएं
मान्यता है कि काशी के राजा दिवोदास द्वारा काशी में देवताओं के प्रवेश पर प्रतिबंद्घ लगा दी गई थी। उसके अहंकार से देवलोक में हड़कंप मच गया। कोई देवी-देवता काशी आने को तैयार नहीं होता। कार्तिक मास में पंच गंगा घाट पर गंगा स्नान के महात्म्य का लाभ का लेने के लिए चुपके से साधुवेा में देवतागण आते थे और गंगा स्नान कर चले जाते। उसी दौरान त्रिपुर नामक दैत्य को भगवान भोलेनाथ ने वध किया और अहंकारी राजा दिवोदास के अहंकार को नष्ट कर दिया। राक्षस के मारे जाने के बाद देवताओं की विजय स्वर्ग में दीप जलाकर देवताओं ने खुशी मनाई। इस दिन को देवताओं ने विजय दिवस माना और खुशी मनाने के लिए कार्तिक पूर्णिमा पर काशी आने लगे। काशी आने का मकसद भगवान भोलेनाथ की महाआरती करने का भी था। उसी दिन से देवगण उत्सव मनाने के लिए को देव दीपावली नाम दिया। कहते है उस दौरान काशी में भी रह रहे देवताओं ने दीप जलाकर देव दीपावली मनाई। तभी से इस पर्व को कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर काशी के घाटों पर दीप जलाकर मनाया जाने लगा।
खास होंगे आयोजन
इस बार काशी की विश्व प्रसिद्घ देव दीपावली बेहद खास होगी। 84 घाटों पर एक जैसा नजारा होगा। पूरे शहर में आतिशबाजी और सांस्कृतिक कार्यक्रमों होंगे। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मौजूद्गी में मथुरा के रंगोत्सव और अयोध्या के दीपोत्सव की तरह ही बनारस की देव दीपावली को मनाया जाएगा। इसमें 84 घाटों पर एक जैसे आयोजन के अलावा शहर में भी इसकी शृंखला चलाई जाएगी। गंगा के दूसरी तरफ भी आयोजन किए जाएंगे। गंगा के अर्द्धचंद्राकार घाटों पर एक साथ आयोजन कर प्रशासन इस त्योहार को भी बनारस की संस्कृति से जोडऩे की कोशिश करेगा।
देव दीपावली के दिन कहीं पीएम मोदी के स्वच्छ भारत मिशन का संदेश होगा तो कहीं डिजिटल इंडिया और बेटी बचाओं-बेटी पढ़ाओं का संदेश दीपमालाओं में उकेरा जायेगा। तो कहीं सरहदों की रक्षा में जान कुर्बान करने वाले जवानों के नाम के दीये रोशन होंगे। खास यह है कि इस दिन अनूठे जलोत्सव यानी देव दीपावली पर कुल 51 लाख दीये जलाएं जायेंगे। पंचनंद तीर्थ पंच गंगा घाट पर ही आठ स्तंभो पर कुल 8000 दीप शाम ढलते ही जगमगाने लगेंगे। आतंकवाद के अलावा देवी-देवताओं, राष्ट्रीय परिदृश्यों पर आधारित दीपों की अल्पनाएं याद्गार बनेंगी।
गंगा तट से लगायत शहर के सभी कुंड-तालाबों पर शहीदों की याद में लाखों दीप टिमटिमाएंगे। यह निर्णय केंद्रीय देव दीपावली समिति की है। कुल मिलाकर 84 घाट और कुंडों को मिलाकर 200 से ज्यादा स्थानों पर शहीदों की याद में दीप जलाने की तैयारी है। पंचगंगा घाट पर रानी अहिल्याबाई के हजारा स्तंभ के साथ ही पांच हजारा स्तंभ प्रज्जवलित होगा। मानसरोवर घाट पर दक्षिण भारतीय श्रद्घालुओं की ओर से फूलों, रंगों की रंगोली बनाकर दीप जलाएं जायेंगे। तुलसी घाट पर देव दीपवाली का अलग ही नजारा होगा। दशाश्वमेध घाट पर गंगा सेवा निधि की ओर से इंडिया गेट की रिप्लिका बनाई जायेगी। इसमें शौर्य धुन के साथ सेना के आला अफसर पुष्प गुच्छ अर्पित करेंगे।
जागते हैं भगवान विष्णु
आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान विष्णु चार मास के लिए योगनिद्र्रा में लीन होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी को उठते हैं। और पूर्णिमा से कार्यरत हो जाते हैं। इसीलिए दीपावली को लक्ष्मीजी की पूजा बिना विष्णु, श्रीगणेश के साथ की जाती है। लक्ष्मी की अंशरूपा तुलसी का विवाह विष्णु स्वरूप शालिग्राम से होता है, इसी खुशी में देवता स्वर्गलोक में दिवाली मनाते हैं इसीलिए इसे देव दिवाली कहा जाता है। इस दिन को देवउठनी एकादशी कहते है। मान्यता है कि क्षीरसागर में शयन कर रहे श्री हरि विष्णु को जगाकर उनसे मांगलिक कार्यों की शुरूआत कराने की प्रार्थना की जाती है। मंदिरों व घरों में गन्नों के मंडप बनाकर श्रद्धालु भगवान लक्ष्मीनारायण का पूजन कर उन्हें बेर, चने की भाजी, आंवला सहित अन्य मौसमी फल व सब्जियों के साथ पकवान का भोग अर्पित किए जाते हैं।
मंडप में शालिगराम की प्रतिमा व तुलसी का पौधा रखकर उनका विवाह कराया जाता है। इसके बाद मण्डप की परिक्रमा करते हुए भगवान से कुंवारों के विवाह कराने और विवाहितों के गौना कराने की प्रार्थना की जाती है। दीप मालिकाओं से घरों को रोशन किया जाता है। यह भी माना जाता है कि दीपावली पर महालक्ष्मी अपने स्वामी भगवान विष्णु से पहले जाग जाती है, इसलिए दीपावली के पंद्रह दिन बाद देवताओं की दीवाली मनाई जाती है।
देवताओं की ही दीपावली को देव दीपावली कहा जाता है। मान्यता है कि इस दिन जो तुलसी का पौधा लगाते हैं, उनके कुटुम्ब से उत्पन्न होने वाले प्रलयकाल तक विष्णुलोक में निवास करते हैं। कहते है रोपी तुलसी जितनी जड़ों का विस्तार करती है उतने ही हजार युग पर्यन्त तुलसी रोपण करने वाले सुकृत का विस्तार होता है। जिस मनुष्य की रोपणी की हुई तुलसी जितनी शाखा, प्रशाखा, बीज और फल पृथ्वी में बढ़ते हैं, उसके उतने ही कुल जो बीत गए हैं और होंगे दो हजार कल्प तक विष्णुलोक में निवास करते हैं।
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