आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देव शयन करते हैं। कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन उठते हैं, जिसे देवोत्थान कहा जाता है। इस दिन विष्णु क्षीर सागर में निंद्रा अवस्था से चार माह के उपरांत जागते हैं। भगवान विष्णु के शयन के चार माह में सभी मांगलिक कार्य निषेध रहता है। हरि के जागने के उपरांत ही सभी मांगलिक कार्य आरंभ हो जाता है। श्रीहरी को चार मास की योग-निंद्रा से जगाने के लिये घंटा, शंख, मृदंग वाद्यों की मांगलिक ध्वनि के बीच श्लोक पढ़ा जाता है। यह वर्णन पद्मपुराण के उत्तरखंड में है। पंडित बताते हैं कि प्रबोधिनी एकादशी का व्रत करने से हजार अश्वमेध व सौ राजसूय यज्ञों का फल मिलता है।
स्नान-दान का है विशेष महत्व
इस दिन पवित्र नदियों में स्नान व भगवान विष्णु के पूजन का विशेष महत्व है। पुण्यादि करने से इसका महत्व और बढ़ जाता है। इस व्रत को करने से जन्म-जन्मांतर के पाप क्षीण हो जाते हैं तथा जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। इस दिन द्राक्ष, ईख, अनार, केला, सिंघाड़ा आदि ऋतुफल भगवान विष्णु को अर्पण करना चाहिए। इसके बाद पादोदक (चरणामृत) करना चाहिए। चरणामृत के महत्व के बारे में कहा गया है- ‘अकालमृत्युहरणम् सर्वव्याधिविनाशनम्, विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते। अर्थात चरणामृत अकाल मृत्यु से रक्षा करता है, सभी रोगों का नाश करता है। विष्णु जी का चरणामृत पीने से पुनर्जन्म नहीं होता। मान्यता है कि पादोदक हमारे लिए औषधि के समान है। पूजा के समय ताम्रपात्र में शालिग्राम का गंगाजल से पुरुष सूक्त के 16 मंत्रों के साथ अभिषेक किया जाता है। उसमें तुलसी दल, केशर, चंदन आदि का मिश्रण होता है।
मंगल कार्यो की होगी शुरुआत
वास्तव में देव सोने और देव जागने का अंतरंग संबंध सूर्य वंदना से है। आज भी सृष्टि की क्रियाशीलता सूर्य पर निर्भर है और हमारी दैनिक व्यवस्थाएं सूर्योदय से निर्धारित होती हैं। प्रकाश पुंज होने के नाते सूर्य देवता को भगवान विष्णु का ही स्वरुप माना गया है क्योंकि प्रकाश ही परमेश्वर है। इसलिए देवउठनी एकादशी पर विष्णु सूर्य के रुप में पूजे जाते हैं। यह प्रकाश और ज्ञान की पूजा है। वेद माता गायत्री भी तो प्रकाश की ही प्रार्थना है।
प्रबोधिनी एकादशी असल में उसी विश्व स्वरुप की आराधना है जो भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करने के बाद दिखाया था। यह परमात्मा के अखंड तेजोमय स्वरुप की आराधना है क्योंकि परमात्मा ने जब सृष्टि का सृजन किया तब उनके पास कोई सामान नहीं था। जब शरद ऋतु आती है तब बादल छंट जाते हैं, आसमान साफ हो जाता है, सूर्य भगवान नियमित दर्शन देने लगते हैं। सूर्य के प्रकाश का मानव की पाचन शक्ति से भी संबंध है। चातुर्मास में सूर्य का प्रकाश नियमित न होने से पाचन शक्ति गड़बड़ा जाती है। इसलिए अनेक भक्तगण चातुर्मास में एक बार ही भोजन करते हैं। फिर देवउठनी एकादशी से सूर्य के नियमित प्रकाश से पाचन क्रिया पुन: उत्तेजित हो जाती है। सूर्य आयुष और आरोग्य के अधिष्ठाता भी माने गए हैं। इस तरह इन्हें प्रबोधित, चौतन्य व जागृत माना जाता है और कार्तिक शुक्ल एकादशी को देव उठने का पर्व मनाया जाता है। यह समस्त मंगल कार्यों की शुरुआत का दिन माना जाता है।
नहीं गूंजेगी शहनाई
इस बार देवउठनी ग्यारस पर चातुर्मास का समापन होगा। शयन पर गए श्रीहरि विष्णु जागेंगे, लेकिन शहनाई नहीं बजेगी। ऐसा होगा देवउठनी ग्यारस के छह दिन पहले गुरु का तारा अस्त होने से। इसके चलते वैवाहिक आयोजनों का इंतजार कर रहे लोगों को कुछ दिन और इंतजार कारना पड़ेगा। हालांकि मतमतांतर के साथ अबूझ मुहूर्त में से एक देवउठनी ग्यारस पर कुछ शादियां होगी, जबकि कुछ पंचांग में दिसम्बर माह में भी चुनिंदा मुहूर्त दि गए हैं। ज्योतिषियों की मानें तो देवउठनी ग्यारस दीपावली के 11 दिन बाद 19 नवम्बर को होगी। इस दिन तुलसी विवाह के आयोजन होंगे।
इससे पहले 12 नवंबर को गुरु का तारा अस्त होगा, जिसका उदय 7 दिसम्बर को होगा। इसके बाद 16 दिसम्बर को धनु मलमास लगेगा, जो मकर संक्रांति रहेगा। इस दौरान भी मांगलिक कार्य निषेध रहेंगे। कुछ पंचांगों में जरुर 7 से 16 दिसम्बर के मध्य विवाह के मुहूर्त दिए गए हैं। दिसम्बर में कुछ पंचांगों में 11, 12 और 13 को विवाह के मुहूर्त हैं। जनवरी 2019 में 17, 18, 22, 23, 25, 26, 29, 30 और फरवरी में 8, 9, 10, 14, 19, 20, 21 को विवाह के मुहूर्त हैं। मार्च में 7, 8, 9 और 12 विवाह मुहूर्त है। मार्च में 13 से 9 अप्रैल तक खरमास होने से वैवाहिक आयोजन पर रोक लग जायेगी।
पौराणिक मान्यताएं
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पूरे देव वर्ग का नाम आदित्य या सूर्य था जिसके प्रमुख देव भगवान विष्णु थे। पुराणों में सूर्योपासना का उल्लेख मिलता है और बारह आदित्यों के नाम भी उल्लेखित हैं जो इस प्रकार हैं, इंद्र, धातृ, भग, त्वष्ट, मित्र, वरुण, अयर्मन, विवस्वत, सवितृ, पूलन, अंशुमत और विष्णु। चूंकि चराचर जगत हरिमय है इसलिए ग्यारह आदित्य भी विष्णु के ही रुप हैं। इसलिए आदित्य व्रत करने की अनुशंसा की गई है। यह व्रत रविवार को किया जाता है और प्रत्येक रविवार को एक वर्ष तक सूर्य पूजन किया जाता है। एकादशी व्रत अपने आप में विष्णु को समर्पित है। माना जाता है कि भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को लम्बे युद्घ के बाद समाप्त किया था और थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर में जाकर सो गए थे और चार मास पश्चात फिर जब वे उठे तो वह दिन देव उठनी एकादशी कहलाया। मान्यता है कि क्षीरसागर में शयन कर रहे श्री हरि विष्णु को जगाकर उनसे मांगलिक कार्यों की शुरुआत कराने की प्रार्थना की जाती है।
घर-घर होगा तुलसी विवाह
देवउठनी एकादशी से तुलसी विवाह व तुलसी पूजन का भी विधान है। एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक तुलसी विवाह के अंतर्गत नियमित रुप से तुलसी व भगवान विष्णु का पूजन होता है। तुलसी को नियमित रुप से जल अर्पण करना भारतीय संस्कृति का अंग बन चुका है और तुलसी की औषधीय क्षमताओं को वैज्ञानिक भी स्वीकार कर चुके हैं। इसलिए इस एकादशी से तुलसी विवाह और उसके साथ ही परिणय मंगल के शुरू होने की चिरायु परंपरा हमारे संस्कारों में विद्यमान है। इस अवसर पर श्रद्घालु महिलाएं व पुरुष व्रत रखेंगे। शाम को घरों में रंगोली व दीपमालिकाएं सजाई जाएंगी।
आंगन में तुलसी चबूतरे को गन्ने के मंडप से सजाया जाएगा। प्रबोधनी एकादशी पर तुलसी विवाह की परम्परा है। पारंपरिक विवाह गीतों के साथ तुलसी व विष्णु का विवाह होगा। मौके पर भगवान विष्णु को ऋतु फलों, शकरकंद आदि का भोग लगाया जाएगा। तुलसी विवाह पर श्रद्घालु श्रृंगार सामग्री भी चढ़ाएंगे। देवउठनी एकादशी में श्रद्घालु गन्ने के मंडप में तुलसी विवाह की कथा भी सुनेंगे। कार्तिक शुक्ल एकादशी में तुलसी विवाह के पीछे मान्यता है कि भगवान गणेश के श्राप के कारण तुलसी का विवाह एक राक्षस के साथ हो गया था।
No comments:
Post a Comment