ललित गर्ग
यह समय पांच राज्यों में चुनाव का समय है जो हमें थोड़ा ठहरकर अपने बीते दिनों के आकलन और आने वाले दिनों की तैयारी का अवसर देता है। एक व्यक्ति की तरह एक समाज, एक राष्ट्र के जीवन में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इन पांच राज्यों के चुनाव का वर्तमान एवं लोकसभा चुनाव की दस्तक जहां केन्द्र एवं विभिन्न राज्यों में भाजपा को समीक्षा के लिए तत्पर कर रही है, वही एक नया धरातल तैयार करने का सन्देश भी दे रही है। इन पांच राज्यों में चुनाव परिणाम क्या होंगे, इसका पता 11 दिसम्बर को लगेगा।
भाजपा के लिये यह अवसर जहां अतीत को खंगालने का अवसर है, वहीं भविष्य के लिए नये संकल्प बुनने का भी अवसर है। उसे यह देखना है कि बीता हुआ दौर उसे क्या संदेश देकर जा रहा है और उस संदेश का क्या सबब है। जो अच्छी घटनाएं बीते साढे़ चार साल के नरेन्द्र मोदी शासन में हुई हैं उनमें एक महत्वपूर्ण बात यह कही जा सकती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागृति का माहौल बना- एक विकास क्रांति का सूत्रपात हुआ, विदेशों में भारत की स्थिति मजबूत बनी। लेकिन जाते हुए वक्त ने अनेक घाव भी दिये हैं, जहां नोटबंदी ने व्यापार की कमर तोड़ दी और महंगाई एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंची, जहां आम आदमी का जीना दुश्वार हो गया है।
जीएसटी का लागू होना एवं उससे सकारात्मक वातावरण का निर्माण होना एक क्रांतिकारी कदम कहा जा सकता है। ऐसा भी प्रतीत हुआ कि में राजनीति और सत्ता गरीबी उन्मूलन की दिशा में अधिक गतिशील बनी। आर्थिक घटनाओं के संकेत हैं कि हम न सिर्फ तेजी से आगे बढ़ रहे हैं बल्कि किसी भी तरह का झटका झेलने में सक्षम है। इस साल सेंसेक्स ने लगातार ज्वारभाटा की स्थिति बनाए रखी हालांकि पेट्रोल की कीमतों ने काफी परेशान किया। जब दुनिया की बड़ी आर्थिक एवं राजनीतिक सत्ताएं धराशायी होती दिख रही है तब भी भारत ने स्वयं को संभाल रखा है। इसका श्रेय नरेन्द्र मोदी सरकार को जाता है।
भाजपा ने अपनी विचारधारा में व्यापक बदलाव किये , जो उसके स्थायित्व के लिये जरूरी भी थे। जब तक भाजपा वाजपेयीजी की विचारधारा पर चलती रही, तब वह श्रीराम के बताये मार्ग पर चलती रही। मर्यादा, नैतिकता, राजनीतिक शुचिता उसके लिए कड़े मापदंड थे। सत्ता की शर्त पर उसने इनसे कभी समझौता नहीं किया। जहाँ करोड़ों रुपये के घोटाले- घपले करने के बाद भी कांग्रेस बेशर्मी से अपने लोगों का बचाव करती रही, वहीं भाजपा ने फण्ड के लिए मात्र एक लाख रुपये ले लेने पर अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्षमण को हटाने में तनिक भी विलंब नहीं किया। झूठे ताबूत घोटाला के आरोप पर तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडिस का इस्तीफा ले लिया।
कर्नाटक में येदियुरप्पा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते ही उन्हें भाजपा से निष्कासित करने में कोई विलंब नहीं किया। ऐसे अनेक नैतिकता एवं आदर्श के प्रतिमानों को महत्व देने वाले अटलजी ने अपनी व्यक्तिगत नैतिकता के चलते एक वोट से अपनी सरकार गिरा डाली। एक सफल एवं सक्षम लोकतंत्र के लिये ऐसी ही नैतिक प्रतिबद्धताएं अपेक्षित होती है, लेकिन राजनीति के लिये इन्हें त्याज्य माना गया है। जब राजनीति में नैतिकता एवं शुचिता के साथ आगे बढ़ने का संकल्प होता है तो चुनावी संग्राम में हार का मुंह भी देखना पड़ता है, लेकिन जब से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने है एवं अमित शाह भाजपा अध्यक्ष बने हैं, उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नक्शे कदम पर चलने वाली भाजपा को कर्मयोगी श्रीकृष्ण की राह पर ले आए हैं। जिस तरह श्रीकृष्ण अधर्मी को मारने में किसी भी प्रकार की कोताही नहीं करते हैं। छल हो तो छल से, कपट हो तो कपट से, अनीति हो तो अनीति से नष्ट करना ही उनका ध्येय होता है। इसीलिए वे अर्जुन को सिर्फ कर्म करने की शिक्षा देते हैं। मोदी एवं शाह भी कर्म करने में विश्वास कर राष्ट्र के अस्तित्व एवं अस्मिता को अक्षुण्ण रखने का उपक्रम करते रहे हैं।
आजादी के सात दशक की यात्रा में न केवल देश की अस्मिता एवं अस्तित्व पर ग्रहण लगा बल्कि लोकतंत्र भी अंधकार की ओट में आ गया। राष्ट्र में ये ग्रहणपूर्ण स्थितियां मनुष्य जीवन के घोर अंधेरों की ही निष्पत्ति कही जा सकती है। यहां मतलब है मनुष्य की विडम्बनापूर्ण और यातनापूर्ण स्थिति से। दुःख-दर्द भोगती और अभावों-चिन्ताओं में रीतती उसकी हताश-निराश जिन्दगी से। उसे इस लम्बे दौर में किसी भी स्तर पर कुछ नहीं मिला। उसकी उत्कट आस्था और अदम्य विश्वास को राजनीतिक विसंगतियों, सरकारी दुष्ट नीतियों, सामाजिक तनावों, आर्थिक दबावों, प्रशासनिक दोगलेपन और व्यावसायिक स्वार्थपरता ने लील लिया था।
लोकतन्त्र भीड़तन्त्र में बदल गया था। दिशाहीनता और मूल्यहीनता बढ़ती रही है, प्रशासन चरमरा रहा था। भ्रष्टाचार के जबड़े खुले थें, साम्प्रदायिकता की जीभ लपलपा रही थी और दलाली करती हुई कुर्सियां भ्रष्ट व्यवस्था की आरतियां गा रही थीं। उजाले की एक किरण के लिए आदमी की आंख तरस रही थी और हर तरफ से केवल आश्वासन बरस रहे थें। सच्चाई, ईमानदारी, भरोसा और भाईचारा जैसे शब्द शब्दकोषों में जाकर दुबक गये थें। व्यावहारिक जीवन में उनका कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। इस विसंगतिपूर्ण दौर में भाजपा ने शहद में लिपटी कड़वी दवा के रूप में घावों पर मरहम का काम किया है। कुल मिलाकर सार यह है कि, अभी देश दुश्मनों से घिरा हुआ है, नाना प्रकार के षडयंत्र रचे जा रहे हैं।
देश को बचाने के लिये नैतिकता से काम नहीं चलेगा, उसके लिये सशक्त एवं विजनरी सत्ता जरूरी है। बिना सत्ता के कुछ भी संभव नहीं हैं। भगवान कृष्ण ने कहा, अभिमन्यु को घेर कर मारने वाले और द्रौपदी को भरी दरबार में वेश्या कहने वाले के मुख से धर्म, नैतिकता, मर्यादा एवं अनुशासन की बातें शोभा नहीं देती। आज चुनावी महासंग्राम में विभिन्न राजनीतिक दल जिस तरह से संविधान, नैतिकता एवं धर्म की बात कर रहे है तो लग रहा है जैसे हम पुनः महाभारत युग में आ गए हैं। जरूरी है कि जिस तरह महाभारत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को नहीं चूकने दिया था, देश की जनता श्रीकृष्ण बनकर नरेन्द्र मोदी रूपी अर्जुन को भी नहीं चूकने दे। देश में आज सक्षम एवं सार्थक विपक्ष नहीं है जिसके साथ नैतिकता का खेल खेला जाए।
आज देश के जिस तरह के जटिल हालात है, राजनीतिक दल सत्ता एवं स्वार्थ की दौड़ में राष्ट्र को भुलते रहे हैं, उनमें यह प्रसंग हमारे लिये प्रेरणा बन सकता है। बहुत पुरानी बात है। एक राजा ने एक पत्थर को बीच सड़क पर रख दिया और खुद एक बड़े पत्थर के पीछे जाकर छिप गया। उस रास्ते से कई राहगीर गुजरे। किन्तु वे पत्थर को रास्ते से हटाने की जगह राजा की लापरवाहियों की जोर-जोर से बुराइयां करते और आगे बढ़ जाते। कुछ दरबारी वहां आए और सैनिकों को पत्थर हटाने का आदेश देकर चले गए। सैनिकों ने उस बात को सुना-अनसुना कर दिया, लेकिन पत्थर को किसी ने नहीं हटाया।
उसी रास्ते से एक किसान जा रहा था। उसने सड़क पर रखे पत्थर को देखा। रुककर अपना सामान उतारा और उस पत्थर को सड़क के किनारे लगाने की कोशिश करने लगा। बहुत कोशिशों के बाद अंत में उसे सफलता मिल गई। पत्थर को हटाने के बाद जब वह अपना सामान वापस उठाने लगा तो उसने देखा कि जहां पत्थर रखा हुआ था वहां एक पोटली पड़ी है। उसने पोटली को खोलकर देखा। उसमें उसे हजार मोहरें और राजा का एक पत्र मिला। जिसमें लिखा था- यह मोहरें उसके लिए हैं, जिसने मार्ग की बाधा को दूर किया। यह प्रसंग हर बाधा में हमें अपनी स्थिति को सुधारने की प्रेरणा देती है। चुनावों का समय किसान बनने का समय है जो राष्ट्र की बाधा रूपी पत्थर को हटाये।
समय के इस विषम दौर में आज आवश्यकता है आदमी और आदमी के बीच सम्पूर्ण अन्तर्दृष्टि और संवेदना के सहारे सह-अनुभूति की भूमि पर पारस्परिक संवाद की, मानवीय मूल्यों के पुनस्र्थापना की, धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और चारित्रिक क्रांति की। आवश्यकता है कि राष्ट्रीय अस्मिता के चारों ओर लिपटे अंधकार के विषधर पर मतदाता अपनी पूरी ऊर्जा और संकल्पशक्ति के साथ प्रहार करे तथा वर्तमान की हताशा में से नये विहान और आस्था के उजालों का आविष्कार करे।
सदियों की गुलामी और स्वयं की विस्मृति का काला पानी हमारी नसों में अब भी बह रहा है। इन हालातों में भारत ने कितनी सदियों बाद खुद को आगे बढ़ता देखा है। यह लंबा इतिहास, जो हमारी परम्पराओं में पैठ चुका था, हमें भविष्य को लेकर ज्यादा आशावादी होने से बचना सिखाता रहा। यह जंगल का सरवाइकल मंत्र है कि डर कर रहो, हर आहट पर संदेह करो, हर चमकती चीज को दुश्मन समझो और नाराजगी कायम रखो। इसलिए आम जनता को गुमराह करने वाली राजनीति को समझना होगा। अगर आमदनी बढ़ रही है, तो उसमें जरूर कोई दमघोंटू फंदा छिपा होगा, तरक्की जरूर बर्बादी की आहट है, विकास में गुलामी के बीज जरूर मौजूद है- विपक्षी दलों द्वारा रोपी गयी इन मानसिकताओं से उबरे बिना हम वास्तविक तरक्की की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। जीवन की तेजस्विता के लिये हमारे पास तीन मानक हैं- अनुभूति के लिये हृदय, चिन्तन और कल्पना के लिये मस्तिष्क और कार्य के लिये मजबूत हाथ। यदि हमारे पास हृदय है पर पवित्रता नहीं, मस्तिष्क है पर सही समय पर सही निर्णय लेने का विवेकबोध नहीं, मजबूत हाथ हैं पर क्रियाशीलता नहीं तो जिन्दगी की सार्थक तलाश अधूरी है।
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