डॉ दिलीप अग्निहोत्री
राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने को लेकर कयास लग रहे है। यदि वह अपने रुख पर कायम रहे तो कांग्रेस में गैर गांधी नेता को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जा सकता है। प्रियंका गांधी यदि चुनाव की जिम्मेदारी न संभालती तो वह विकल्प हो सकती थी। लेकिन इस बार राहुल के साथ वह भी करिश्मा नहीं दिखा सकी। इसलिए गैर गांधी अध्यक्ष पार्टी की विवशता हो सकती है। भविष्य में उसके ऊपर ठीकरा फोड़ना आसान होगा। लेकिन कांग्रेस में यदि ऐसा कोई अध्यक्ष बना तो उसकी दशा मनमोहन सिंह जैसी ही होगी । जिस कार्यसमिति में उन्होंने इस्तीफा देने का प्रस्ताव पेश किया था, उसमें इसका पारित होना संभव ही नहीं थी। पूरी पटकथा पूर्व निर्धारित थी। मंजूर होने के हालात होते तो पेशकश की ही नहीं जाती। गांधी परिवार के बाहर के व्यक्ति को अध्यक्ष बनने की बात का भी कोई मतलब नहीं था। जो भी अध्यक्ष बनता उसे गांधी परिवार के इशारों पर ही चलना पड़ता। मनमोहन सिंह की गुण के कारण प्रधानमंत्री बनाये गए थे, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
कांग्रेस कार्यसमिति ने वही किया, जिसकी संभावना थी। राहुल गांधी को इस्तीफा न देने के लिए आसानी से मना लिया गया। इतना ही नहीं उनका गुणगान भी हुआ। कहा गया कि पार्टी को उनके मार्गदर्शन की बहुत आवश्यकता है। इस तरह यह तय हुआ कि कांग्रेस पहले की ही तरह राहुल गांधी के नेतृत्व में कार्य करती रहेगी। लेकिन यह तय नहीं हो सका कि राहुल अपनी कार्यप्रणाली और भाषण में बदलाव करेंगे या नहीं। क्योंकि कांग्रेस की बदहाली के लिए यही तत्व जिम्मेदार है, और इन्ही को जबाबदेही स्वीकार करनी चाहिए। लेकिन ऐसा लगा कि जैसे कार्यसमिति के सभी सदस्य अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे थे। राहुल को इस्तीफा न देने से मना लेना ही एकमात्र उद्देश्य था। इसके लिये खास प्रयास भी नहीं करना था। कांग्रेस के पास विकल्प भी क्या है। राहुल की विफलता के बाद कुछ लोग प्रियंका को पार्टी की कमान सौंपने की दबे स्वर में मांग करते थे, लेकिन अब उनकी असलियत भी सामने आ गई। वह महासचिव भी बनाई गई, खूब प्रचार किया, लेकिन जहां जहां वह गई ,पार्टी का बंटाधार हो गया। इसलिए यह विकल्प भी निष्प्रभावी हो गया। गांधी परिवार के बाहर जितने प्रमुख नेता है ,उन सभी विश्वनीयता ,जनाधार और संगठन क्षमता सवालों के घेरे में है। ऐसे में कहा जा सकता है कि कांग्रेस कार्यसमिति ने केवल खानापूर्ति से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर लिया। बताया जा रहा है कि राहुल गांधी ने अपरोक्ष रूप से उन दिग्गजों पर ठीकरा फोड़ा जो अपने परिजनों के चुनाव में परेशान थे। पहले इन्होंने टिकट के लिए दबाब बनाया, फिर उनके प्रचार में बहुत समय लगाया। पार्टी को जितना उनकी प्राथमिकता में नहीं था। लेकिन इस समस्या को उठाने के बाद भी समाधान संभव नहीं होगा। जिस पार्टी में राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद ही परिवारवाद पर आधारित हो वहां इन बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता।
कांग्रेस कार्यसमिति में तो राहुल गांधी पर ही प्रमुखता से विचार होना चाहिए था। चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में हुए थे। राहुल स्वयं को नरेंद्र मोदी के सीधे मुकाबले में लेकर आये थे। मोदीं पर ही उनका पूरा फोकस था। ऐसे में विचार यह होना चाहिए था कि राहुल की यह रणनीति लगातार दूसरी बार औंधे मुंह क्यों गिरी। विचार यह होना चाहिए था कि राहुल के गब्बर सिंह टैक्स मुद्दे का क्या है, नोटबन्दी को बर्बादी का कारण बताने का क्या हुआ, चैकीदार को चोर बताने का क्या है, मोदी गरीब विरोधी है, उन्होंने गरीबों से पैसा छीनकर पन्द्रह अमीरों को दे दिया, मोदी खत्म हो गए है, आदि बातों का क्या हुआ।
क्या इन बातों से राहुल को ईमानदार और गरीबों का हितैषी मान लिया गया, क्या राहुल के बार बार चिल्लाने के बाद आमजन ने मोदी को चोर मान लिया, क्या जीएसटी की राहुल की परिभाषा स्वीकार की गई, क्या कांग्रेस के न्याय पर विश्वास किया गया। लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति ने इनमें से किसी विषय पर विचार नहीं किया। बैठक में केवल लीपापोती ही कि गई। राहुल गांधी की प्रंशसा में होड़ मची थी। इस बार पार्टी को आठ सीटों की बढोत्तरी हुई। शायद इसी को उपलब्धि मान लिया गया। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अभी विधानसभा चुनाव में जीत की खुमारी उतरी नहीं थी, लोकसभा में बाजी पलट गई। ऐसा लगा कि यहां के मतदाता कांग्रेस से पांच महीने में ही ऊब गए। कर्नाटक में कांग्रेस ने भाजपा को सरकार बनाने से रोक दिया था, लेकिन इस बार भाजपा ने अठ्ठाइस में से पच्चीस सीट हथिया कर कांग्रेस को झटका दिया है। उसे सिर्फ एक सीट पर संतोष करना पड़ा।
इस परिस्थिति में गुलाम नबी आजाद के कथन का पता नहीं क्या मतलब था। उनका कहना था कि ने राहुल गांधी ने नेतृत्व किया और यह नेतृत्व दिख रहा था। जनता को भी यह नेतृत्व दिख रहा था। हमारे सिद्धांतों की पराजय नहीं है, यह आंकड़ों की पराजय है। राहुल ने अनुमान लगा लिया कि कार्यसमिति का रुख क्या है। वह अपनी प्रशंसा सुनना चाहते थे। आमजन के बीच न सही पार्टि कार्यसमिति पूरी तरह उनके साथ थी। उन्होंने कहा कि मैं पार्टी का अध्यक्ष हूं और जिम्मेदारी लेते हुए मुझे इस्तीफा देना चाहिए। आपको नया अध्यक्ष चुनना चाहिए। सभी ने सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव से इनकार कर दिया। कार्यसमिति ने कहा कि इन परिस्थितियों में अगर कोई कांग्रेस का नेतृत्व कर सकता है तो वे राहुल ही कर सकते हैं।
कार्यसमिति में बाकायदा प्रस्ताव पारित हुआ। इसमें कहा गया कि पार्टी उन चुनौतियों, विफलताओं और कमियों को स्वीकार करती है, जिनकी वजह से ऐसा जनादेश आया। आत्मचिंतन के साथ साथ कांग्रेस अध्यक्ष को अधिकृत करती है कि वो पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन एवं विस्तृत पुर्नसंरचना करें। आत्मचिंतन शब्द का उल्लेख अवश्य किया गया, लेकिन जिसको आत्मचिंतन की सर्वाधिक आवश्यकता है, उसे ही इससे मुक्त रखा गया। वह संगठन का पुनर्गठन करेंगे। प्रस्ताव की अगली लाइन किसी सुधार के प्रति निराश करती है। इसमें कहा गया कि हमारा अदम्य साहस, हमारी संघर्ष की भावना और हमारे सिद्धांतों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता पहले से ज्यादा मजबूत हुई है। कांग्रेस पार्टी नफरत और विभाजन की ताकतों से लोहा लेने के लिए सदैव कटिबद्ध है। इसका मतलब है कि कांग्रेस ने अपनी रणनीति को भारी पराजय के बाद भी अच्छा मान लिया है। ऐसे में कितना सुधार होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। कहा गया कि कांग्रेस जनादेश को विनम्रता से स्वीकार करती है। वह एक जिम्मेदार और सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएगी। लेकिन राहुल गांधी का पिछला रिकार्ड सकारात्मक विपक्ष की भूमिका के निर्वाह के प्रति भी निराशाजनक रहा है। अन्यथा पार्टी की ऐसी फजीहत न होती।
राहुल गांधी ने कार्यसमिति में अशोक गहलोत और कमलनाथ के साथ वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम के पुत्रमोह में पार्टी के हित की अनदेखी का विषय उठाया। उनका यह कथन ठीक भी है। कमलनाथ की सर्वाधिक सक्रियता छिंदवाडा में थी, जहाँ उनके पुत्र लड़ रहे थे। इसी प्रकार अशोक गहलोत ने जोधपुर में बेटे वैभव गहलोत के लिए सर्वाधिक समय लगाया। लेकिन इन बातों का ज्यादा असर नहीं पड़ा। कमलनाथ, अशोक गहलोत, चिदम्बरम ज्यादा क्षेत्रों में प्रचार करते तब भी पार्टी को लाभ नहीं मिलता। लोकसभा चुनाव तो राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़े जा रहे थे। उनके बयान ही मुख्य मुद्दे के रूप में चल रहे थे। कार्यसमिति में प्रियंका गांधी ने इसका उल्लेख किया। लेकिन उनका कथन राहुल को बचाने के लिए था, जबकि इन्हीं मुद्दों ने कांग्रेस का नुकसान कराया था। प्रियंका ने राफेल और चैकीदार चोर है के मुद्दे पर अन्य नेताओं के साथ न देने का आरोप लगाया। प्रियंका को यह भी बताना चाहिए था कि उन्होंने इन मुद्दों पर राहुल का साथ दिया। उनकी जनसभा में भी कांग्रेस के कार्यकर्ता चैकीदार चोर का नारा लगाते थे। प्रियंका खुश होती थी। क्या हासिल हुआ। नवजोत सिद्धू भी यही नारा लगाते थे, कांग्रेस में उनकी स्थिति दयनीय हो चुकी है। राहुल, प्रियंका व सिद्धू की तरह कांग्रेस के अन्य दिग्गज भी यही चिल्लाते तो इतनी सीट भी नहीं मिलती। कुछ भी हो कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर अफरा तफरी का आलम है। संगठन के पदाधिकारी इस्तीफे सौप रहे है। इसका तात्कालिक कारण लोकसभा चुनाव में मिली शर्मनाक पराजय है। लेकिन मूल कारण अलग है। इन सबको भविष्य के प्रति भी उम्मीद नहीं है। पंजाब में अमरिंदर सिंह के कारण कांग्रेस को अच्छी सफलता मिली, लेकिन प्रदेश अध्यक्ष स्वयं चुनाव हार गए। इस कारण उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया। महाराष्ट्र में पार्टी के प्रभारी अशोक चव्हाण पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़, झारखंड कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार असम कांग्रेस अध्यक्ष रिपुन बोरा, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष राज बब्बर मध्य प्रदेश के कमलनाथ इस्तीफे की पेशकश कर चुके है। बताया जा रहा है कि इस्तीफे का सिलसिला अभी जारी रहेगा। कांग्रेस की समस्या बढ़ गई है। प्रियंका गांधी को राहुल गांधी का विकल्प माना जा सकता था, लेकिन वह भी विफल साबित हो चुकी है। नया अध्यक्ष बन भी गया तो पार्टी की समस्या यथावत रहेगी। क्योंकि नया अध्य्क्ष राहुल गांधी के प्रभाव से मुक्त नहीं होगा। राहुल फिर पहले जैसा भाषण देंगे, इससे कांग्रेस फिर मुसीबत का सामना करेगी। जिन प्रदेशों से इस्तीफे आ रहे है, वहां भी सब थके हारे ही विकल्प मौजूद है। इनमें से कोई भी कांग्रेस का ग्राफ बढ़ाने की स्थिति में नहीं रहेगा।
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Wednesday, 29 May 2019
वंशवादी पार्टी में इस्तीफे की पेशकश
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