डॉ दिलीप अग्निहोत्री
नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में देश के सभी मुख्यमंत्रियों को आमंत्रित किया गया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के रूख पर सबकी नजर थी। इसके दो प्रमुख कारण थे, पहला यह कि पश्चिम बंगाल में भाजपा जमीनी स्तर पर मुख्य विपक्षी पार्टी बन चुकी है। उसने कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। इतना ही नहीं विधानसभा चुनाव में भाजपा के विजयी होने के कयास लगाए जा रहे है।
दूसरा कारण यह था कि ममता बनर्जी ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर चुनाव के दौरान अमर्यादित टिप्पणी भी की थी। अमित शाह के कोलकोता रोडशो पर हमला भी किया गया था। इसी लिए ममता का शपथ ग्रहण में आने को लेकर दिलचस्पी बनी हुई थी। यह माना गया कि ममता उस भावना को राजनीतिक शत्रुता के हवाले नहीं करेंगीं, जिसके चलते वह मोदी को भाई मान कर प्रतिवर्ष कुर्ता भेजती रही है। प्रारंभ में ममता ने कहा भी था कि वह शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होंगी। लेकिन अब बताया जा रहा है कि ममता ने शामिल होने से इनकार कर दिया है।
ममता के इनकार का कोई व्यक्तिगत या राजनीतिक कारण होता तो उसे नजरअंदाज किया जा सकता था। लेकिन उन्होंने जिस मुद्दे को इनकार का आधार बनाया वह मानवीय है। ममता के अनुसार भाजपा ने पश्चिम बंगाल के उन परिवारों को आमंत्रित किया है, जिनके सदस्य को राजनीतिक चुनावी हिंसा में जान गंवानी पड़ी।
जबकि इन परिवारों को मानवीय आधार पर सम्मान देना उचित था। बेहतर यह होता कि ममता बनर्जी इसको मुद्दा न बनाती। आखिर वह उनके प्रदेश के ही लोग है। इस समय वह कष्ट के दौर से गुजर रहे है। राजनीतिक विरोध अपनी जगह है। लेकिन कष्ट के इस मौके पर केंद्र के साथ प्रदेश की सरकार भी उनके साथ होती तो मानवीय आधार पर इसकी सराहना होती। लेकिन ममता बनर्जी ने संकुचित राजनीतिक सोच को उजागर किया है। उनके निर्णय से यही सन्देश गया कि उन्हें अपने प्रदेश के पीड़ित कुछ परिवारों के साथ बैठना पसंद नहीं है।
ममता के इस निर्णय का पश्चिम बंगाल की राजनीति पर दूरगामी असर होगा। नरेंद्र मोदी ने सदैव सहयोगी संघवाद के संवैधानिक विचार पर अमल किया है। उन्होंने दलगत आधार पर किसी प्रदेश के साथ भेदभाव नहीं किया है। नीति आयोग के माध्यम से प्रदेशों की केंद्र में भागीदारी बढाई। प्रदेशो को मिलने वाली सहायता व अनुदान में भी बढोत्तरी की गई। मोदी सरकार ने यह विचार नहीं किया कि किस प्रदेश में भाजपा विरोधी सरकार है। संविधान निर्माता ऐसी ही व्यवस्था चाहते थे।
चुनाव समाप्त होने के बाद ममता बनर्जी को भी इसी भावना का परिचय देना चाहिए था। उन्हें अपने प्रदेश से बुलाये गए सामान्य परिवार के लोगों के साथ दिखना चाहिए था। मुख्यमंत्री केवल उनका प्रतिनिधि नहीं होता, जिन्होंने उन्हें वोट दिया होता है, या जो उनकी पार्टी के होते है। बल्कि वह सभी का प्रतिनिधि होता है। लेकिन ममता बनर्जी ने अपने को सीमित राजनीतिक दायरे में समेट लिया है। कम्यूनिसटों की भांति उनके शासन में केवल अपनी पार्टी के कैडर को प्राथमिकता मिली है। विरोधियों के प्रति नफरत का विचार रहता है। पश्चिम बंगाल से अक्सर ऐसी खबरें आती रहती है।
अमित शाह के रोडशो में भी इसी संकुचित विचार का प्रदर्शन सत्ता पक्ष ने किया था। बन्द कालेज के बाद कमरे में ईश्वर चन्द्र विद्या सागर की मूर्ति तोड़ दी गई। इस विद्यालय में तृणमूल कांग्रेस नेता का प्रबंधन है। मूर्ति तोड़ने का आरोप भाजपा पर लगा दिया गया। जहां गड़बड़ी की आशंका थी वहां जानबूझकर पुलिस बल नहीं लगाया गया। अमित शाह ने कहा भी था कि केंद्रीय पुलिस बल न होता तो उनका बचना मुश्किल था। ममता बनर्जी एक बार फिर उसी संकुचित विचार के साथ खुलकर आ गई है। शपथ ग्रहण में शामिल न होने का उन्होंने जो कारण बताया, वह इसका प्रमाण है।
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