तनवीर जाफ़री
देश का सबसे प्राचीन व प्रतिष्ठित राजनैतिक संगठन जिस के माथे पर देश की स्वतंत्रता का सेहरा भी बंधा हुआ है,इन दिनों एक बड़े राजनैतिक उथल पुथल के दौर से गुज़र रहा है। कांग्रेस को हमेशा से ही भीतरघातियों से ही ज़्यादा नुक़्सान हुआ है। सत्ताभोगी प्रवृति रखने वाले अनेक बड़े नेता किसी न किसी बहाने कांग्रेस पार्टी को छोड़ कर सत्ताधरी भाजपा या अन्य दलों में जा चुके हैं। कांग्रेस के वोट बैंक भी कई क्षेत्रीय दलों में समा चुके हैं। सोलहवीं लोकसभा में मात्र 44 सीटों पर सिमटने वाली कांग्रेस पार्टी मौजूदा सत्रहवीं लोकसभा में भी अपने खाते में मात्र 8 सीटों का इज़ाफ़ा करते हुए सदन में अपनी संख्या केवल 52 तक ही पहुंचा सकी है।
कांग्रेस को इस बार सबसे बड़ा झटका उस समय लगा जबकि स्वयं राहुल गांधी भी अमेठी की अपनी पारम्परिक सीट से भी चुनाव हार गए। यदि उन्होंने केरल में वायनाड से भी चुनाव न लड़ा होता तो इस बार वे लोकसभा की सदस्य्ता से भी महरूम रह जाते। राहुल गांधी ने 2014-19 के मध्य कांग्रेस पार्टी को मज़बूत स्थिति में ला खड़ा करने में अपनी ओर से कोई कसार बाक़ी नहीं छोड़ी। 2017 के गुजरात विधान सभा चुनाव में राहुल गाँधी की रणनीति ने सत्ताधारी भाजपा के पसीने छुड़ा दिए थे। भाजपा 100 सीटों के आंकड़े को भी नहीं छू सकी थी। इसके बाद तीन राज्यों छत्तीसगढ़,मध्य प्रदेश व राजस्थान में तो कांग्रेस ने अपराजेय समझी जाने वाली भाजपा से सत्ता ही झटक ली। परन्तु 2019 के लोकसभा के आम चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट गठबंधन न बन पाने के कारण कांग्रेस ही नहीं बल्कि अधिकांश क्षेत्रीय विपक्षी दलों को भी उम्मीदों के मुताबिक़ सफलता नहीं हासिल हो सकी। ठीक इसके विपरीत भाजपा को 2014 में प्राप्त 282 सीटों के मुक़ाबले 2019 में 303 अर्थात 21 सीटें और अधिक हासिल हुईं।
ऐसा पहली बार देखा जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने चुनाव में हुई हार की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए स्वयं को पार्टी के अध्यक्ष पद से अलग कर लिया। हालांकि उनको मनाने के लिए तथा पद पर बने रहने के लिए कांग्रेस नेताओं ने हर तरह के प्रयास कर डाले। परन्तु राहुल ने सभी के निवेदन अस्वीकार कर दिए। इतना ही नहीं राहुल गाँधी की अब इस बात में भी कोई दिलचस्पी नहीं है कि पार्टी का अगला अध्यक्ष कांग्रेस कार्यसमिति किस को चुने। दरअसल राहुल गाँधी पार्टी की हार से अधिक अपने व अपने परिवार के ऊपर लगने वाले परिवारवाद को बढ़ावा देने जैसे आरोपों से अधिक आहत हैं। इसीलिए अब वे चाहते हैं कि ग़ैर नेहरू-गाँधी परिवार का कोई नेता कांग्रेस की बागडोर संभाले। दरअसल कांग्रेस विरोधी नेताओं की भी हमेशा से ही यही मंशा रही है कि किसी तरह से नेहरू गाँधी परिवार कांग्रेस से दूरी बनाए। इसकी वजह भी यही है कि पूरे देश को पता है कि देश का यह इकलौता ऐसा घराना है जिसके लगभग सभी सदस्यों को पूरे देश ने अथाह प्यार व समर्थन दिया है।
कश्मीर से कन्या कुमारी तक बराबर लोकप्रियता रखने वाला देश का यह एकमात्र राजनैतिक घराना है। इस परिवार की लोकप्रियता ने ही अनेक नेताओं व दलों के सत्ता में आने के सपनों को जल्दी पूरा नहीं होने दिया। इसीलिए परिवारवाद को बढ़ावा देने के सबसे अधिक आरोप नेहरू गाँधी परिवार पर ही लगाए गए। बावजूद इसके कि देश के अधिकांश राजनैतिक लोग परिवारवाद के रोग से पीड़ित हैं परन्तु उन सभी को भी अपना नहीं बल्कि नेहरू गाँधी परिवारका ही परिवारवाद नज़र आता रहा है। निश्चित रूप से राहुल गाँधी इस तरह कि चर्चा पर विराम लगाना चाह रहे थे,यह भी उनके अध्यक्ष पद छोड़ने का मुख्य कारण है। हालाँकि राहुल के त्यागपत्र के निर्णय से कांग्रेस के ख़ेमे में जहाँ निराशा है वहीँ कांग्रेस विरोधी इसे अपनी एक बड़ी जीत के रूप में देख रहे हैं।
शरद पवार तथा लालू यादव जैसे नेता भी राहुल के त्याग पत्र के पक्ष में नहीं थे। परन्तु वे भी राहुल को इस्तीफ़ा देने से रोक नहीं सके। अब कुछ राजनैतिक विश्लेषक जहाँ इसे “राहुल गाँधी द्वारा कांग्रेस को मंझधार में छोड़ना” बता रहे हैं वहीँ कुछ इसे राहुल का बड़ा साहसिक क़दम तथा पद से न चिपके रहने के उनके बुलंद हौसले की नज़र से भी देख रहे हैं।यह क़यास भी लगाए जा रहे हैं कि अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी से मुक्त होकर राहुल पूरे देश में घूम कर कांग्रेस की विचारधारा का प्रचार प्रसार और अधिक मज़बूती से कर सकते हैं तथा समय आने पर भविष्य में पार्टी अध्यक्ष की बागडोर भी संभाल सकते हैं।
अब सबसे बड़ा प्रश्न कांग्रेस के समक्ष यह है कि पार्टी का अगला अध्यक्ष कौन हो। इस सवाल का जवाब ढूंढने से पहले कांग्रेस के बुनियादी सिद्धांतों तथा पार्टी की विचारधारा पर भी नज़र डालनी ज़रूरी है। साथ ही यह भी जानना ज़रूरी है कि पार्टी अपने 135 वर्षों की राजनैतिक यात्रा में अपने उन बुनियादी उसूलों व विचारों को साथ लेकर चल भी सकी है अथवा नहीं ? और यदि चली भी तो कितनी ईमानदारी के साथ। क्या वजह थी कि कांग्रेस के पारम्परिक वोट धीरे धीरे कांग्रेस से दूर होते चले गए ?और बची खुची कसर भारतीय जनता पार्टी व उसके संरक्षक व सहयोगी संगठनों की उस सुनियोजित मुहिम ने पूरी कर दी जिसके तहत कांग्रेस को मुस्लिम परस्त व देश की सम्पदा को मुसलमानों पर ख़र्च करने वाली या मुसलमानों का तुष्टीकरण करने वाली पार्टी प्रचारित किया गया। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में कहा कि “माना की कांग्रेस मुस्लिम मर्दों की पार्टी है” ।
उन्होंने देश में सोनिया गाँधी के इटली के नागरिक होने को भी ख़ूब प्रचारित किया। जनता से चुनाव के दौरान यह पूछा गया की तुमको “रोम राज्य” चाहिए या राम राज्य। दूसरी तरफ़ कांग्रेस भी दक्षिणपंथियों के इस जाल में फंसकर ख़ुद को इन आरोपों से बचाने में ही उलझी रह गई। हद तो यह कि राहुल गाँधी को भी अपना गोत्र व जाति तक बताने की नौबत आन पड़ी। वे अपना जनेऊ दिखाने लग गए। गोया जनसमस्याओं से जुड़े तमाम मुद्दे व सत्ता विरोधी अनेक सामग्री मौजूद होने के बावजूद पिछला लोकसभा चुनाव इसी प्रकार के ग़ैर ज़रूरी मुद्दों के इर्द गिर्द घूमता रहा। इसका परिणाम केवल इतना ही नहीं हुआ कि कांग्रेस और उसकी विचारधारा चुनावों में संख्या बल के आधार पर पराजित हुई बल्कि इससे भी बड़ा नुक़सान यह हुआ कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के हत्यारों का समर्थन व महिमामंडन करने व संविधान का मज़ाक़ उड़ाने वाले अनेक लोग भी सांसद बनकर संविधान के मंदिर में जा पहुंचे। नतीजतन देश की बहुरंगी संस्कृति व सभ्यता का प्रतीक समझी जाने वाली संसद एक रंग व एकरूपता के पथ पर चल पड़ी। और इस प्रकार भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे पर ही ख़तरा मंडराने लगा।
इस वातावरण में कांग्रेस को एक अदद ऐसे तेज़तर्रार,दबंग,निडर तथा समर्पित नेता की ज़रुरत है जो भाजपा के नरेंद्र मोदी व अमित शाह जैसे नेताओं का हर स्तर से मुक़ाबला कर सके। एक ऐसा नेता चाहिए जो रक्षात्मक होने के बजाए गांधीवादी व धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के पक्ष में अपने विपक्षियों पर आक्रामक रुख़ अख़्तियार कर सके। संविधान की रक्षा तथा उसके मान सम्मान का विश्वास देशवासियों को दिला सके। आज जो लोग स्वयं को देश का सबसे बड़ा राष्ट्रवादी व राष्ट्रभक्त बता रहे हैं उनसे स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका पर मज़बूती से सवाल पूछ सके। जिन कथित राष्ट्रवादियों ने अंग्रेज़ों के आगे माफ़ी नामे दिए थे उन दस्तावेज़ों को बुलंद आवाज़ के साथ जनता के मध्य रख सके। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध मज़बूती के साथ खड़ा हो सके।
आज देश के अनेक हिस्सों से आए दिन भीड़ द्वारा किसी न किसी के मारे जाने की ख़बरें आ रही हैं। इन घटनाओं से दुखी लोग जगह जगह सड़कों पर उतर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अनेक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों व अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में इसका ज़िक्र हो रहा है। परन्तु देश का सबसे प्राचीन धर्मनिरपेक्ष संगठन अभी अपने अध्यक्ष की तलाश में व्यस्त है। जबकि सत्ताधारी लोगों का सदस्य्ता अभियान यानी अगले चुनाव की तैयारी शुरू भी हो चुकी है।वर्तमान समय में कांग्रेस के समक्ष जो हालात हैं उनमें नहीं लगता कि मोतीलाल वोहरा जैसे बुज़ुर्ग गांधीवादी या सुशील कुमार शिंदे जैसे ‘सुशील’ नेता कांग्रेस की नैय्या को पर लगा सकेंगे। वक़्त की ज़रुरत तो यही कहती है दिग्विजय सिंह जैसे स्पष्टवादी नेता को कांग्रेस की बागडोर सौंपी जाए। क्यूंकि पहले भी संसद में कांग्रेस की ओर से दक्षिणपंथियों को आईना दिखाने वाले अर्जुन सिंह व माधवराव सिंधिया जैसे नेता इत्तेफ़ाक़ से मध्य प्रदेश राज्य से ही थे।
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