2019 में सामान्य वर्ग भाजपा से छिटका तो मोदी की आसान नही होगी दिल्ली की राह
अखिल/अरविन्द तिवारी
माधौगंज-हरदोई 03 अगस्त-लोकतंत्र में राजनीति समाज को जोड़कर उसे विकास के पथ पर अग्रसर करने वाली होती है जिस राजनीति से समाज में बिखराव आये उसे लोकतांत्रिक राजनीति कतई नहीं कहा जा सकता है। आजादी के समय दबे कुचले उपेक्षित पिछड़े शोषित समाज को मुख्यधारा से जोड़कर बराबरी का दर्जा दिलाने के उद्देश्य से आरक्षण की व्यवस्था की गई थी जो समय सीमा से बंधी थी। समयसीमा पूरी हो जाने के बावजूद दलित एवं पिछड़ी जाति के लिये आरक्षण व्यवस्था आज भी हर स्तर पर जारी है।इसी तरह दलित समाज को समाजिक उत्पीड़न से बचाने के लियेे जो कानून पहले से बने थे उसके अलावा एक कड़े प्रावधान के रुप में दलित अत्याचार निवारण एक्ट भी बनाया गया था।बसपा सरकार के पहले कार्यकाल में इसे सख्त बनाकर एकतरफा बना दिया गया था लेकिन दूसरे कार्यकाल में इसमें थोड़ी ढील दे दी गयी थी। दूसरे कार्यकाल में उत्पीड़न की शिकायत की जाँच करने के बाद मुकदमा दर्ज करने एवं क्षेत्राधिकारी स्तर से जाँच करने की व्यवस्था थी। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतहासिक फैसले में इसके कुछ कड़े प्रावधानों में ढील देकर लचीला बना दिया था। इस फैसले के विरोध में दलित समाज द्वारा पिछले अगस्त महीने में भारत बंद का आवाह्वान किया था जिसके दौरान आगजनी लूटपाट हिंसक झड़पें हुयी थी।सरकार में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी से जुड़ी दलित सेना ने सरकार से 9 अगस्त तक पुराने प्रावधानों को बहाल करने के लिये विधेयक पारित कराने या अध्यादेश लाने की माँग की थी। सरकार अपने वायदे को पूरा करके उसका चुनावी लाभ लेने की दिशा में पहल करते हुये प्रारूप की मंजूरी दो दिन पहले मंत्रिमंडल से ले ली गई है।प्रारूप में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कमजोर हुये अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून को पुराने स्वरूप में लाने की व्यवस्था है। इस विधेयक के पास हो जाने के बाद मुकदमा दर्ज होते ही गिरफ्तारी करने की व्यवस्था है और इस प्रस्तावित कानून में पहले से मौजूद 22 प्रावधानों के अलावा 25 नये प्रावधान शामिल किये गये हैं। लोकजनशक्ति पार्टी प्रमुख केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने 2दिन पूर्व मंत्रिमंडल के फैसले की जानकारी देते हुये कहा है कि दो चार दिन में इस सम्बंध में इस विधेयक को संसद में पेश कर दिया जायेगा।लोगों का मानना है कि सरकार का यह फैसला सम्भवतः आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुये विपक्ष को दुविधा में डालने की दृष्टि से किया गया है।एससी एसटी एक्ट को पुराने नही बल्कि उससे दोगुना नये प्रावधानों वाले विधेयक के माध्यम से सरकार संसद में विपक्ष को साँसत में डालना है। सरकार जानती है कि अगर विपक्ष विधेयक का विरोध करता है वह दलित विरोधी हो जायेगा और अगर विरोध नहीं करता है तो नये प्रावधानों को जोड़कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द कर पुनः पुराने स्वरूप को बहाल करने का फायदा तो उसे आगामी चुनाव में मिल ही जायेगा। इस विधेयक के जरिये शायद सरकार आगामी चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार करके देश के दलितों के सामने अपने को सबसे बड़े हमदर्द के रूप में पेश करके उनका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कराना चाहती है।इसीलिये शायद प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार की दलित विरोधी छबि को ठीक करने के लिये आगामी चुनाव की बलिवेदी पर गैर दलितों के हितों को बलिदान करने का जा रही है। इस विधेयक के लागू हो जाने के बाद इस एससीएसटी एक्ट के मुकदमें में कोई अग्रमि जमानत भी नहीं करा सकता है। बलात्कार के मामले में पीड़िता का चिकित्सीय प्रमाणीकरण जरूरी होता है लेकिन आने वाले इस कानून में डाक्टरी की जरूरत नहीं है। जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल भी कानून का उल्लंघन है तथा गवाह की जरूरत नहीं बल्कि दलित का बयान ही सर्वोपरि है। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार का दलित प्रेम उनके गैर दलित वोटबैंक को प्रभावित कर सकता है।लोगों का मानना है कि संविधान में न्याय का हक सबको समान रुप से मिला है तो बिना असलियत जाने किसी को “फाँसी” पर चढ़ा देना उनके मौलिक अधिकारों का हनन नही तो क्या है? जिस तरह अबतक कानून का दुरपयोग हुआ है उससे सभी परिचित है शायद इसी मानवीय दृष्टिकोण से सुप्रीम कोर्ट ने नरमी बरतने का फैसला लिया था।
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