नई दिल्ली: भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध साल 1965 खत्म हुए अभी कुछ दिन बीते थे. नया साल शुरू हुआ. यूं तो राजधानी दिल्ली में ठंडक सबाब पर थी, लेकिन भारत-पाक की सीमा पर बारूद की गंध और गोलियों की गर्माहट अभी भी महसूस की जा सकती थी. इन सबके बीच दोनों देशों के बीच बातचीत की रूपरेखा बनी और इसके लिए जो जगह तय की गई वह न तो भारत में थी और न ही पाकिस्तान में. तत्कालीन सोवियत रूस के अंतर्गत आने वाले ‘ताशकंद’ में 10 जनवरी 1966 को भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्रीऔर पड़ोसी पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के बीच बातचीत मुकर्रर हुई.
10 जनवरी 1966 की उस सुबह ‘ताशकंद’ में ठंडक कुछ ज्यादा ही थी. यूं भी कह सकते हैं कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल को ऐसी ठंडक झेलने की आदत नहीं थी, इसलिये उनकी दुश्वारी कुछ ज्यादा ही थी. मुलाकात का वक्त पहले से तय था. लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान तय वक्त पर मिले. बातचीत काफी लंबी चली और दोनों देशों के बीच शांति समझौता भी हो गया. ऐसे में दोनों मुल्कों के शीर्ष नेताओं और प्रतिनिधिमंडल में शामिल अधिकारियों का खु़श होना लाजिमी था, लेकिन वह रात भारत पर भारी पड़ी. 10-11 जनवरी की दरम्यानी रात प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की संदिग्ध परिस्थितों में मौत हो गई.
उस दिन ताशकंद में भारतीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल रहे वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर इस घटना का जिक्र अपनी आत्मकथा ‘बियॉन्ड द लाइंस’ में करते हुए लिखते हैं, ”आधी रात के बाद अचानक मेरे कमरे की घंटी बजी. दरवाजे पर एक महिला खड़ी थी. उसने कहा कि आपके प्रधानमंत्री की हालत गंभीर है. मैं करीबन भागते हुए उनके कमरे में पहुंचा, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. कमरे में खड़े एक शख़्स ने इशारा से बताया कि पीएम की मौत हो चुकी है”. उस ऐतिहासिक समझौते के कुछ घंटों बाद ही भारत के लिए सब कुछ बदल गया. विदेशी धरती पर संदिग्ध परिस्थितियों में भारतीय पीएम की मौत से सन्नाटा छा गया. लोग दुखी तो थे ही, लेकिन उससे कहीं ज्यादा हैरान थे.
राज्यसभा के पास ही नहीं है मौत की जांच रिपोर्ट
लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद तमाम सवाल खड़े. उनकी मौत के पीछे साजिश की बात भी कही गई. खासकर जब शास्त्री जी की मौत के दो अहम गवाहों, उनके निजी चिकित्सक आर एन चुग और घरेलू सहायक राम नाथ की सड़क दुर्घटनाओं में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई तो यह रहस्य और गहरा गया. लाल बहादुर शास्त्री की मौत के एक दशक बाद 1977 में सरकार ने उनकी मौत की जांच के लिए राज नारायण समिति का गठन किया. इस समिति ने तमाम पहलुओं पर अपनी जांच की, लेकिन आज तक इस समिति की रिपोर्ट का अता-पता नहीं है.
यहां तक कि राज्यसभा के पास भी इस समिति की रिपोर्ट की कोई कॉपी नहीं है. सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलू ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा, ”संसद बहुत सावधानी से दस्तावेजों को सहेजने के लिए जानी जाती है. संसद में कहा गया हर शब्द रिकार्ड और सार्वजनिक दायरे में रखा जाता है, एक ऐसा भारी-भरकम काम है जिसे कार्यालय बिल्कुल सही तरह से कर रहा है. तब ऐसा महत्वपूर्ण रिकार्ड कैसे गायब हो गया”. उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री की मौत से जुड़े तमाम गोपनीय रिकार्ड प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के सामने रखने के निर्देश भी दिये हैं, इसे सार्वजनिक करने के संबंध में निर्णय लें.
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