लखनऊ व प्रयागराज जैसे बडे शहरों में कम वोटिंग को लेकर उठते सवाल
हर मामले में इनसे पिछडे जनपद व नगर वोटिंग में रहें अव्वल
एक सत्ता का केंद्र तो दूसरा शिक्षा का हब, फिर भी असंवेदनशील
रवि गुप्ता
लखनऊ। नाम बडे और दर्शन छोटे या यूं कहें कि रहन-सहन तो रईसों वाला है, मगर जब बारी लोकतंत्र के सबसे बडे महापर्व में भागीदारी की आयी तो सारी फकीरी दिख गई। जी हां, बात हो रही है यूपी के दो सबसे बडे व नामचीन शहरों में समय-दर-समय घटते वोटिंग ग्राफ की। इन दो शहरों में से एक तो प्रदेश की राजधानी लखनऊ है तो दूसरा इलाहाबाद है जिसका नया नाम अब प्रयागराज हो चुका है। लोकसभा चुनाव के पांचवें व छठें चरण में क्रमश: इन दोनों प्रमुख नगरों में भी मतदान हुआ। लेकिन जब देर शाम इन दोनों शहरों का वोटिंंग प्रतिशत सामने आया तो लखनऊ और प्रयागराज उसी दौरान अन्य जनपदों में हुए मतदान से काफी पीछे खडेÞ दिखें। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर लोकतंत्र की वास्तिवक समझ कौन अधिक रखता है…लोकतांत्रिक दायित्वों के प्रति कौन अधिक संवेदनशील है…इन शहरों में तरह-तरह की वोटिंग जागरुकता कैंपेन के बाद भी मतदान में इतनी कंजूसी क्यों?
नजाकत-नफासत व नवाबों के शहर लखनऊ जहां पर सर्वाधिक संख्या में वोटर रहें, वहां पर वोटिंग प्रतिशत इतना कम रहा कि खुद स्थानीय प्रशासन भी हैरत में आ गया। स्वयं यहां के डीएम यानि जिला निर्वाचन अधिकारी तक ने ऐसी स्थिति को निराशाजनक करार दिया। जबकि दूसरी ओर लखनऊ से हर मामले में काफी पिछडेÞ जनपद लखीमपुर खीरी जहां पर इसी फेज में सबसे कम वोटर रहें, वहां पर लोगों ने रिकॉर्ड वोटिंग की। कुछ ऐसी ही मायूस करने वाली स्थितियां प्रयागराज में हुए मतदान को देखने पर भी मिली। बीते रविवार को छठें फेज के तहत यूपी के 14 लोकसभा सीटों पर वोटिंग शुरू हुई, मगर देर शाम जब फाइनल आंकड़ा आया तो मतदान के मामले में प्रयागराज का नाम सबसे नीचे दिखा। इससे मतदान करने में कहीं आगे अति पिछड़ा इलाका अम्बेडकरनगर जनपद रहा।
यहां पर विचारणीय प्रश्न यह है कि लखनऊ जोकि प्रदेश की राजधानी है और यहां से पूरे सूबे की शासन-प्रशासन व्यवस्था का संचालन और नियंत्रण होता है तो दूसरा शहर प्रयागराज है जिसे ‘शैक्षिक नगरी’ का दर्जा दिया जाता है। इसके बावजूद प्रदेश के इन दोनों आधारभूत महानगरों में वोटिंग को लेकर अपेक्षाकृत इतनी जागरुकता या फिर इच्छा शक्ति क्यों नहीं है?
वहीं राजनीतिक जानकारों की मानें तो वोटिंग को लेकर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच जो इतना फर्क दिखता है, उसके पीछे कुछ प्रमुख कारण हैं। मसलन, सत्तापक्ष में जिस भी दल की सरकार रहती है तो अपना चुनाव अपने कार्यकाल के दौरान किये गये वृहद व व्यापक योजनाओं के दम पर लड़ती है। इनमें से ऐसी जो भी योजनायें होती हैं वो एक बडेÞ जनसमूह को कवर करती हैं जिसका सबसे अधिक ताल्लुक ग्रामीण, कस्बाई व मध्यमवर्गीय लोगों से होता है। ऐसे में जब भी चुनाव आता है तो उपरोक्त वर्ग के वोटर सरकार की ऐसी योजनाओं के लाभ-हानि का गुणा-भाग लगाकर अधिक से अधिक संख्या में मतदान करने के लिए निकल पड़ते हैं। जबकि दूसरी तरफ अधिकांश शहरी या संभ्रान्त वर्ग के वोटरों को इन आम योजनाओं से न तो कोई लाभ लेना होता है और न ही कोई खास मतलब, ऐसे में वो अपनी सुविधानुसार या इच्छानुसार ही मतदान में भाग लेते हैं, यानि मौके मिला तो दे दिया नहीं तो कोई बात नहीं…। एक बात और है कि ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों के लोग राजनीतिक माहौल को लेकर जितने लम्बे समय तक कनेक्ट रहते हैं या फिर रहने की कोशिश करते हैं, उतना शहरी क्षेत्र के लोग नहीं होना चाहते। ऐसे में जब भी कोई चुनाव आता है तो खासकर गांव व छोटे शहरों वाले अपनी छोटी-बड़ी राजनीतिक समझ को वोट की कसौटी पर कसने के लिए निकल पड़ते हैं तो शहरी वोटर केवल चुनावी वातावरण में ही राजनीति को लेकर इतने तल्लीन दिखते हैं।
‘लखनऊ व प्रयागराज में वोटिंग पहले से बेहतर तो रही है। मतदान को लेकर जागरुकता तो है, पर इसको लेकर जन-जन को थोड़ी सक्रियता भी दिखानी पडेगी।’
-: डॉ. बीडीआर तिवारी, अपर मुख्य निर्वाचन अधिकारी उप्र।
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