स्वार्थ में डूबी बसपा की ताजा रणनीति अब कितनी कारगर हो पायेगी ? | Alienture हिन्दी

Breaking

Post Top Ad

X

Post Top Ad

Recommended Post Slide Out For Blogger

Tuesday 25 June 2019

स्वार्थ में डूबी बसपा की ताजा रणनीति अब कितनी कारगर हो पायेगी ?

मृत्युंजय दीक्षित 
समाजवादी पार्टी से गठबंधन तोड़ने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने एक बार फिर प्रदेश की राजनीति में अकेले चलो की रणनीति को अपना लिया है। गठबंधन तोडने के बाद बसपा की पहली बैठक में उन्होंने जो विचार व्यक्त किये हैं उससे यह पता चल रहा है कि बसपा सुप्रीमो मायावती सत्ता छिन जाने से कितनी अधिक बैचेन हो रही हैंं तथा भविष्य में अभी फिलहाल उनको कहीं भी सत्ता नसीब नहीं होन जा रही है। यह गहरा दर्द उनके दिल में समा गया है वह केवल फफक-फफक रो नहीं पा रही हैं। मायावती की सारी सोशल इंजीनियरिंग एक के बाद एक फेल हो रही है। ताजा रणनीति उनकी कारगर हो पायेगी इसमें भी संदेह बना हुआ है। बसपा सुप्रीमो मायावती यह भूल रही हैं कि आज लोकसभा में उनके अपने जो दस सांसद लोकसभा में पहुंचे हैं वह समाजवादी पार्टी के यादवों के मतों के दम पर ही पहुंचे हैं तथा वह फिर भी पूरी नकारात्मकता व अहंकार तथा स्वार्थपरक राजनीति के अंधकार में डूबकर समाजवादी पार्टी व फिर उसके बाद ईवीएम मशीनों तथा पीएम मोदी व भाजपा के राष्ट्रवाद के खिलाफ ही अपनी भड़ास निकाल रहीं हैं। यह तो गनीमत थी कि मोदी सुनामी के भय के कारण महागठबंधन हो गया और वह पूरी तरह से फ्लाप शो साबित हुआ है।
बसपा सुप्रीमो मायावती अब 2007 की रणनीति पर फिर उतर आयी हैं। लेकिन वह अपने आपको दलितों व मुसलमानों का सबसे बड़ा पैरोकार सिद्ध करना चाह रही है। मायावती जी के कई बयान उनकी राजनीति को संदेह के घेरे में ला रहे हैं। वह बात तो करती हैं सर्वजन सुखाय और हिताय की तथा अपने कार्यकर्ताओं को 2007 की तरह भाईचारा कमेटी बनाने की सलाह भी देती हैं लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण व दलितों के प्रति उनका स्वार्थपरक प्रेम भी जनमानस के मन में छाया हुआ है। मायावती जी की अब तक की राजनैतिक यात्रा देखी जाये तो यह यात्रा पूरी तरह से स्वार्थ, झूठ व धोखे तथा घोटालों से भरी हुई हैं। मायावती जी ने समाजवादी पार्टी से लेकर भारतीय जनता पार्टी सहित सभी से लाभ उठाया और फिर उनके ऊपर झूठे आरोप लगाकर अपनी राजनीति को सिद्ध करने का असफल प्रयास कर रही हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार को अस्थिर करती रहीं और अंततः एक वोट से उनकी सरकार को धोखे से गिराकर अपनी विकृत मानसिकता को उजागर किया । पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार को भी अस्थिर रखने में मायावती का बड़ा योगदान रहा है। यह उनकी मानसिक विकृति की राजनीति व रणनीति का ही परिणाम है कि आज वह इस मनोदशा को प्राप्त हो रही हैं।
बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपनी पार्टी की बैठक में सपा मुखिया अखिलेश यादव पर अपनी पराजय का ठीकरा एक बार फिर फोड दिया है और कहा है कि अखिलेश नहीं चाहते थे कि मुसलमानों को अधिक टिकट दिये जायें क्योंकि उन्हें इससे मतों का धु्रवीकरण होने का डर सता रहा था। वह तो यहां तक कह रही हैं कि अखिलेश यादव ने गठबंधन की पराजय के लिये जिम्मेदार नेताओं को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया। वह बैठक में प्रदेश की राजनीति में अपने आप को यादव परिवार से भी कहीं बहुत बड़ा और केवल मुसलमानों का हितैषी होने का संकेत दे रही थीं। उनका यह भी  कहना था कि हमारी पराजय का कारण समाजवादी पार्टी की सरकार की विफलता व अखिलेश यादव के कार्यकाल में अराजकता भी रही है। जब दोनों दलों ने गठबंधन कर लिया था तब क्या मायावती को इन सभी बातों की जानकारी नहीं थी। आज मायावती के बयान केवल एक बहुत बड़ा शिगूफा है तथा अब समय आ गया है कि प्रदेश का जनमानस ऐसा मतदान करे कि यह दल जो बार-बार अपनी रणनीति के कारण जीवित हो जाते हैं वह कभी जीवित ही न हो सकें। मायावती के ताजा बयानों से उप्र की सियासत में मुसलमान एक बार फिर सियासी विमर्श के केंद्र में आ गये हैं। क्या मायावाती अपने बयानों से सपा मुखिया अखिलेश यादव को मुसलमान विरोध साबित करना चाह रही हैं? साथ ही सवाल उठने लगे हैं कि क्या सपा वास्वत में देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में मुसलमानों की भागीदारी की विरोधी है।
बसपा नेत्री मायावती ने अपने बयानों से सपा मुखिया पर गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं तथा उनको ही हर चीज में दोषी ठहराने का प्रयास कर रही हैं। जिसमें वह अभी सफल होती दिखलायी भी पड़ रही है। लेकिन आंकड़े, तथ्य और तर्क तो दोनों को ही सबसे अधिक नकारा और जुमलेबाज साबित कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव बसपा ने सपा के सहारे लड़ा और दस सीटों पर सफलता मिली देखा जाये तो बसपा को यह सीटें दलित, मुस्लिम और यादव वोटबैंक के साहरे ही मिली हें। उन्होंने लोकसभा में मुस्लिम सांसद दानिश अली को अपने संसदीय दल का नेता चुना है। मुख्य सचेतक व उपमुख्य सचेतक पद पर यादव बिरादरी के लोगों को बिठाकर भी अपनी रणनीति साफ कर दी है। अभी तक कुछ सीमा तक भाई-भतीजावाद से दूर रहने वाली मायावती ने भी अब परिवारवाद की राजनीति को अपना लिया है। उन्होंने अपने भाई आनंद कुमार को दोबारा पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व भतीजे आकाश आनंद को राष्ट्रीय कोआर्डिनेटर बना दिया है। अपनी नयी रणनीति के तहत मायावती जी अपने आप को दलित हितैषी व मुसलमान हितैषी साबित करना चाह रही हैं तथा अब उनका यह भी कहना है कि सपा मुखिया अखिलेश यादव भी संघ व भाजपा की तरह आरक्षण विरोधी हो गये हैं। मायावती ईवीएम विरोधी हैं, वह एक देश एक चुनाव विरोधी हैं। वह अलगाववाद की समर्थक हैं तथा अयोध्या में भव्यश्रीराम मंदिर के निर्माण की भी धुरविरोधी हैं। मायावती अपने आप को संविधान की बहुत बड़ी ज्ञाता समझती हैंं लेकिन संसद में ,26 जनवरी तथा 15 अगस्त को राष्ट्रपति का संबोधन होता है तब वह उनका भी विरोध करती है व आलोचना करती हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती की विचारधारा व सारी की सारी रणनीति अस्थिरता व देश को काफी पीछे ले जाने वाली है। यह दलितों व अतिपिछड़ों को केवल अपना गुलाम बनाकर रखना चाहती हैं। मायावती जी के विचार देश को पूरी तरह से गुलामी मानसिकता की ओर ले जाने वाले हैं। यह बहुत अधिक स्वार्थपरक राजनेता हैं तथा अब समय आ गया है कि देश के सभी राजनैतिक दलों को बसपा से दूरी बना लेनी चाहिये जनमानस तो अपने आप ही ऐसे तत्वों को कइ बार नकार चुका है लेकिन मायावती जी अभी भी सुधरने का नाम नहीं ले रही। अपनी विफलता और असफलता दोनां के लिये केवल भाजपा, संघ और अब समाजवादी मित्रां को भी दोषी मान रही हैं। यह कोई राजनेता है जिसके विचारों में सकारात्मकता और विकासवाद का घोर अभाव है। मायावती जी कुंठा व हीनभावना से ग्रसित होकर अपने बयानों को प्रेसित करती हैं जिससे उनका उनका उत्थान होने की बजाय पतन हो जाता है।
मायावती मुस्लिम हितैषी होने के साथ कई्र बातों को भूल भी जाती हैं। सपा और बसपा ने 2019 के लोकसभा चुनावांं में चार और छह सांसदांे को टिकट दिये थे। जिसमें सपा के तीन व बसपा के भी तीन सांसद विजयी रहे। सबसे बड़ी बात यह है कि लोकसभा चुनावां में सपा के पांच में ंसे तीन सांसद मुसलमान  व केवल दो सीटें यादव परिवार को मिली अन्य सीटों पर भगवा फहरा गया। तब ऐसी परिस्थितियों में बसपा की पराजय के लिये सपा क्यों दोषी बनायी जा रही है। असल में हकीकत यह है कि अब बसपा प्रदेश की राजनीति में अपने आप को भाजपा के खिलाफ सीधे मुकाबले में उतरना चाह रही है तथा वह साबित करना चाह रही है कि उप्र में बीजेपी का मुकाबला अब केवल बसपा ही कर सकती है। उनकी नजर में अब सपा तीसरे नंबर पर जा रही है। यही कारण है कि उन्होंने बड़ी चालाकी के साथ समाजवाद का रस निचोड लेने के बाद उसका छिलका बाहर फेंक कर अपनी राजनीति को नये सिरे से चमकाने की कोशिश की है तथा अब वह दलित व मुस्लिम तुष्टीकरण की रणनीति को अपनाकर भाईचरा कमेटी बनाकर उपचुनाव में पहली बार उतरने जारी हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती को इससे अपने भविष्य का खाका खीचने में भी सहायता मिलेगी। लेकिन उनकी यह ताजा रणनीति कितनी सफल होगी यह तो आने वाला भविष्य ही बतायेगा फिलहाल मायावती जी से बड़ा स्वार्थी और धोखेबाज कोई नही। जनमानस को सावधान रहना चाहिये।

No comments:

Post a Comment

Post Top Ad